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टिकैत के साथ ही खामोश हो गयी किसानों की आवाज







मेरे जीवन के कुछ और इडियट्स-6

अनामी शरण बबल 







 मई 1990 की बात है, मैं किसी रिपोर्ट के सिलसिले में मेरठ गया था। किसी पत्रकार ने ही मुझे बताया कि पिछले दो सप्ताह से किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत जिला अस्पताल में भर्ती है। कहीं गिर जाने से पैर की हड्डी टूट गयी थी। मामला थोड़ा टिकैत का है इस कारण अस्पताल में पत्रकारों को जाने की अनुमति नहीं है। मेरठ से काम निपटा कर मुझे रात मुजफ्फरनगर में काटनी थी और अगले दिन शाम तक सहारनपुर पहुंचना था। एकदम टाईट कार्यक्रम के बावजूद मुझे लगा कि जब मेरठ में हूं तो टिकैट से मिले बगैर जाना ठीक नहीं। इसका टिकैत जी पर भी ज्यादा प्रभाव पड़ेगा और अपन रिश्ता भी सरस सरल और स्नेहिल सा हो जाएगा।

 अभी मैं अस्पताल के गेट पर ही था कि तीन चार साथियों के साथ टिकैत पुत्र राकेश टिकैत पर मेरी नजर पड़ी। राकेश को देखते ही मेरा मन खिल गया और लगा कि अब टिकैत से मिलना तो हो ही जाएगा। चाय रस और समोसे खा रहे राकेश एंड पार्टी के पास पहुंचते ही मैने सीधे पूछा कि बाबूजी अब कैसे है?  एकाएक मेरे को गौर से राकेश देखने लगा। मैने तुरंत कहा यही तो दिक्कत है राकेश जी कि लिखना याद करना और रखना भी हम पत्रकारों के ही जिम्मे है क्या?दिल्ली और शामली में दो तीन बार मिला था। मेरी बाते सुनकर राकेश खुशी से चहकते हुए कहा हां हां बाबूजी के साथ आपको कई बार देखा था। मैने तुरंत कहा कि कल शाम को ही मुझे दिल्ली में पता लगा कि बाबूजी बीमार हैं तो सोचा कि एकबार मिल आना चाहिए। मेरी बात सुनते ही राकेश मुझसे लिपट गए और हैरानी से कहा केवल बाबूजी को देखने आए हो आप ?   हंसते हुए मैने कहा राकेश जी बिहारी हूं लिहाजा यह भी नहीं कह सकता कि मेरठ कोई अपना ससुराल है। हंसी मजाक के बीच उनलोग के साथ चाय पी और राकेश के साथ सीधे महेन्द्र सिंह टिकैत के आरामदायक कमरे में ले जाया गया। दर्जनों लोगों की भीड़ कमरे के बाहर खड़ी थी तो घर की तीन चार महिलाएं बेड के आस पास में खड़ी थी।

टिकैत को नमस्कार करके एक कुर्सी पर बैठते ही उनके एक हाथ को लेकर हाल चाल पूछा। अपनी याद्दाश्त पर जोर देते हुए टिकैट ने कहा इधर भी आ गया छोरा ( महेन्द्र सिंह टिकैट से जब मैं पहली बार मिला था उस समय मेरी उम्र 22 साल की थी और वे तभी से वे मुझे नाम लेने की बजाय केवल छोरा ही कहते रहे)। राकेश टिकैत ने अपने बाबूजी को बताया कि ई केवल आपसे मिलने आए है, इनको दिल्ली में कल ही पता चला कि आप अस्पताल में हो। उठने बैठने से लाचार होने के बाद भी अपने बेटे से मेरे बारे में इन बातों को सुनकर वे गदगद हो गए। उनकी आंखे सजल हो गयी और मन ही मन मैं अपना दांव एकदम सही बैठने पर खुश हो रहा था। इनकी झलक पाने के लिए सैकड़ो लोग अंदर बाहर खड़े थे। मगर मैं अंदर एक घंटे तक बैठे बैठे इनके उदय से लेकर भावी दशा दिशा रणनीति से लेकर किसानों के स्थायी लाभ आदि पर बहुत सारी बातें की। भारतीय किसान यूनियन के भीतरघात पर भी कुछ हाल सवाल करता रहा। चूंकि मैं लिख नहीं रहा था लिहाजा बहुतों को इंटरव्यू सा नहीं लगा. और मैं ढाई तीन घंटे तक अस्पताल में रहते हुए थोकभाव से मौजूद किसान नेताओं से बाते करके भावी कार्यक्रमों पर जानकारी ले ली।

अस्पताल से बाहर निकला तो लगभग चार बज गए थे। मुझे अब सहारनपुर या मुजफ्फरनगर जाने से ज्यादा उचित दिल्ली लौटना ही लगने लगा, ताकि इस इंटरव्यू को कल दोपहर तक देकर अगले दिन बाजार में आने वाले अंक में इंटरव्यू छप जाए। बस में बैठा मैं इंटरव्यू की रूपरेखा बना ली और दिल्ली लौटते ही मैने पूरे एक पेज के लंबे इंटरव्यू को देर रात तक जागकर रात में ही लिख डाला। अगले दिन शुक्रवार को सुबह सुबह दफ्तर में जाकर इंटरव्यू डेस्क पर दे पटका। इंटरव्यू देखकर हमारे संपादक श्री सुधेन्दु पटेल और मुख्य समाचार संपादक श्री कृष्ण कल्कि की आंखों में चमक आ गयी। अगले दिव मैं सहारनपुर हरिद्वार के लिए निकल गया। जबकि मेरे अनुरोद पर चौथी दुनिया की एक सौ प्रति खास तौर पर टिकैतों के लिए मेरठ भिजवा दी गयी। करीब चार दिन में इधर उधर हर जगह का हाल खबर लेकर वाया मुजफ्परनगर होते मेरठ लौटा। कई पुलिस अधिकारकियों से बातचीत के बाद मैं एक बार फिर मेरठ अस्पताल चला गया, तो इस बार यहां का नजारा ही बदला हुआ था। चौथी दुनिया साप्ताहिक अखबार की धूम थी। मेरठ होते दिल्ली से भी सैकड़ों कॉपी मंगवाकर अपनी जरूरतें पूरी की। राकेश से मुलाकात तो नहीं हो सकी मगर मैं दो पल में ही टिकैत के सामने था। मुझे देखते ही वे सीनियर टिकैत चीख पड़े अरे छोरा बिना लिखे ही कागज पर तूने तो मेरी सारी बात लिख डाली। हंसते हुए उन्होने कहा केवल मुझै ही नहीं सबौ को तेरा लिखा बहुत पसंद आया है । किसी से कहकर टिकैत ने मुझे अपने घर के दो जमीनी नंबर (लैंड लाईन नंबर) लिखकर देते हुए कहा कि जब तुम्हें आना हो तो फोन कर देना तो शामली से आने की व्यवस्था करा दी जाएगी।


मेरठ में स्वास्थ्य लाभ कर रहे टिकैत पर मेरा यह उल्लेख थोड़ा लंबा हो गया है मगर इसी एक घटने के बाद मैं महेन्द्र सिंह टिकैत से अपने संबंधों समेत उनके स्वभाव और कारिंदों पर भी पर बात करूंगा। मैं भारतीय जनसंचार संस्थान नयी दिल्ली 1987 में आने से पहले तक टिकैत का केवल नाम भर ही सुना था। मगर 1987 में दिल्ली वोट क्लब पर चक्का जाम करके संसद से लेकर नयी दिल्ली को पूरी तरह ठप्प कर दिया। मेरठ मुजफ्परनगर बागपत समेत पूरे पश्चिमी यूपी में किसान हितों को मुद्दा बनाकर लखनऊ तक को हिला डाला। और 1987 से 1990 के तीन सालों मे भारतीय किसान यूनियन ने लगभग एक दर्जन शहरों में किसान आंदोलन धरना प्रदर्शन करके देश भर में छा गए। 1987 से लेकर 2011 कर इनसे मेरी कमसे कम दो दर्जन बार मुलाकात हुई होगी। ज्यादातर मुलाकात तो संसद मार्ग थाना नयी दिल्ली के सामने बैरिक्रेटस के पास होती थी । इतनी भीड़ में भी हाल चाल नमस्ते के बाद दो चार बातें इनसे जरूर हो जाती थी।

समय सूत्रधार पाक्षिक मैग्जीन के लिए मुझे टिकैट के गांव सिसौली 1992 में जाना पड़ा। रह रहकर हंगामा मचा देना या यों कहे कि जब पेपर में लोग बाग नाम भूलने लगे तो टिकैत एंड कंपनी द्वारा फिर कहीं कोई हंगामा मचा दिया जाता। एक तरह से महेन्द्र टिकैट को लोग जाति से जाट की बजाय जाम टिकैट नेता हंगामेदार नेता औरकबी कभी दूसरों के कहने पर चलने वाले मूर्ख नेता का भी तगमा दे डालते। पुलिस प्रशासन बी इनसे थोड़ा कांपती थी। म्रठ के एकवरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा कि टिकैत थोड़ा सनकी है अगर एक बार सनक गए तो इनको मनाना सरल नहीं ।


बागपत्त सहारनपुर के रास्ते शामली तक तो मैं आ गया मगर राकेश टिकैत से बात नहीं होने का खामियाजा मुझे चिलचिलाती धूप में कई किलोमीटर तक पैदल चल कर चुकाना पड़ा। गांव सिसौली थाना भौरांकला पड़ता है। बीच रास्ते में यहां के थानेदार अपनी मोटर साईकिल पर सवार मिल गए। रास्ते में गुजर रहे थानेदार को मैने हाथ देकर रूकवाया तो दरियादिल सिपहिया रूक गया। जब मैने बताया कि मुझे टिकैत के यहां गांव सिसौली जाना है तो एकदम पूरे अदब के साथ लिफ्ट देते हुए सीधे महेन्द्र सिंह टिकैट की कोठी के बाहर तक न केवल पहुंचाया बल्कि मुझे लेकर सीधे एक हॉल में ले गया जहां पर 50-60 किसानों का एक दलबल गप्प शप्प के साथ हुक्के गुड़गुड़ा रहा था। मुझे देखते ही टिकैत ने बिन फोन किए आने पर हैरानी प्रकट की। मैने शिकायती लहजे में कहा कि फोन है या कटवा दी आपने। दो दिन से घंटी बजाते बजाते मेरे हाथ थक गए।  मेरी बात सुनते ही वे दूरभाष विभाग को भला बुरा कहने हुए बताया कि दो सप्ताह से दोनो फोन काम नहीं कर रहे है।

मैने सोचा यही मौका है जरा इनको गरम पानी में  उबाला जाए. मैने हंसते हुए कहा मैं समझ गया दद्दा अब सत्ता और ई फोनवा वालो को अब आपसे डर लगना बंद हो गया है। कहां तो लखनऊ हिलाते थे और अब आपके गांव का ही कोई कर्मचारी भय नहीं खाता। ई सब आपको परख रहे है कि गरमी बाकी है या....?????
 मेरी बात सुनते ही दर्जनों जाट आपस में ही हां हां करने लगे। कहां मर गयौ कहते हुए हाल में बैठे कुछ नौजवान जाट पुत्रो ने अपनी मोटरसाईकिल से निकाल कर गांव में तलाशी चालू कर दी। मैं थानेदार के साथ हाल में बैठा रहा। इस बीच छाछ का सेवन किया गया।
यहां पर एक रोचक प्रसंग लिखना मुझे जरूरी लग रहा है। थानेदार ने मुझे बाहर चलने का संकेत किया। उसके साथ मैं भी बाहर बरामदे में था। थानेदार ने टिकैत के साथ मेरे मेलजोल वाले रिश्ते को देखकर बिनती की। बकौल थानेदार यार लखनऊ का हूं और चार साल से यहीं पर टंगा हूं। केवल टिकैत जी के नहीं चाहने से मेरा तबादला रूका पड़ा है। हमारे कप्तान (एसएसपी) ने कह रखा है कि तेरा केस स्पेशल है, टिकैट चाहते हैं कि तबादला ना हो। उसने कहा कि यार बड़ी मेहरबानी होगी मेरे लिए आप सिफारिश कर दो न। हम दोनों को कानाफूसी करते देख टिकैत ने मुझे हांक मारी इधर आ जा आजा। मुस्कुराते हुए टिकैत ने मुझसे पूछा अपने बदली (ट्रांसफर)का पौव्वा लगवा रहा है न। टिकैट ने कहा कि यह सबों को एकदम घर सा मान देता है और कितना भला है यह तुम देख ही रहे हो। मगर यह भागना चाहता है यहां से। मैने थानेदार का पक्ष लेते हुए कहा कि इसको गौशाला में बांध कर रखा करे। एकदम फालतू होकर पालतू बन गया है। मेरी बात सुनकर टिकैत चौंक से गए कि बोले ?मैने थानेदार का ही पक्ष रखा इसको पुलिसिया ही बने रहने दो दद्दा डांगर ना बनाओ । इसके भी बाल बच्चे और मेहरारू है। आप समझ रहे हो न ?एक तरफ मेरी बातेसुनकर कई जाटों में भी थानेदार के प्रति सहानुभूति जाग गयी। थानेदार ने मेरे प्रति आभार जताया कि बस मैं अब अपना काम करवा लूंगा?

करीब एक घंटे में तीन फोन कर्मचारियों को अपने साथ धर पकड़ कर जाट युवकों का दल कमरे में दाखिल हुआ। टिकैत की फटकार के बाद देखते ही देखते दो सप्ताह से बेकार पड़े फोन मेरे आते ही घनघनाने लगे। इस खुशी में किसी ने सबों को खाने के लिए लड्डू देना चालू कर दिया। फोन के जिंदा होने पर टिकैत खुश हो गए छोरा तू तो बड़ा मस्त है जब आता है तभी मन में एक छाप दे जावै (जाता है)।

दिल्ली और लखनऊ के नेता अक्सर सिसौली में आकर टिकैत को अपने पाले में रखते थे, मगर बहुजन समाजवादी पार्टी की बहिन जी मायावती से इनकी भिंडत  कांटे की रही। आरोप लगा कि टिकैत ने बहिनजी को जातिसूचक गाली दी थी। जिससे खफा होकर सिसौली गांव को छावनी में बदल दिया गया। टिकैत की गिरप्तारी के आदेश पर आदेश जारी हो रहे है तो दूसरी तरफ हजारों जाट किसान गोताखोर की तरह दलबल और बंदूकों के साथ पुलिसिया कार्रवाई की छिपकर प्रतीक्षा करते रहे। चारो तरफ तनाव ही तनाव और कुछ भी होने की आशंका देर सबेर गिरफ्तारी करके हेलीकॉप्टर से टिकैत को ले जाने की तमाम योजनाओं को पूरा करने के लिए तैयार यूपी पुलिस फौज की तैनाती के बाद भी मुख्यमंत्री मायावती को अपनी जिद्द और दंभ त्यागना पड़ा। सरकार इसके लिए हिम्मत नहीं जुटा सकी। और खून खराबा के एक हिसंक काले अध्याय की पटकथा अधूरी रह गयी। यूपी में 2012 विधानसभा चुनाव में एकाएक बसपा के मतदाता इस तरह उखड़े कि बहिनजी का भी हाल खराब हो गया। 2017 विधानसभा चुनाव सामने है और बसपा के जनाधार की भी अग्निपरीक्षा बाकी है कि अब टिकैत के बिना बसपा का क्या  होगा? 


भूमि अधिग्रहण गन्ना किसानों का अरबों का बकाया और भुगतान के लिए चीनी मील मालिको की नमक हरामी भी टिकैट के सामने नहीं चली। लंबित भुगतान बैंकों के उत्पीडन किसान खुदकुशी अकाल बिजली बिल पानी की सही आर्पूर्ति और कर्ज माफी आदि दर्जनों मामले इस तरह के थे कि भारतीय किसान यूनियन को चैन की वंशी बजाने का कभी मौका नहीं मिला। इन तमाम समस्याओं को हवा देकर टिकैत सरकार और नौकरशाहों के लिए एक चुनौती बन गए। जिसे नाथ पाना किसी के बूते में नहीं था। एक आह्रवान पर चार छह घंटे में एक लाख से भी अधिख जाटों या किसानो को बुलाकर अपनी बात मनवा लेना ही टिकैत का तिलिस्मी जादू था। जो 2011 मे उनके निधन के साथ ही यह चमत्कार भी लुप्त हो गया या यों कहे कि इनकी मौत के साथ ही किसानों की आवाज भी सदा सदा के लिए खामोश हो गयी। टिकैत से बगावत करके और भाकियू को कई फाड़ कर कर के टिकैत सा ही धारदार बनने के लिए लालयित कई नेताओं में से किसी एक ने भी आगे बढने का कोई प्रयास तक नहीं किया। एक दो दिन में लाखों करोड़ो रूपये खर्च करने वाले यूपी के जाटों की माली हालत अब करोड़ों की हो गयी है मगर आधुनिकता की मार कहें या फैशनपरस्ती  कि  इन किसानों के हल कुदाल और पाटा की तरह ही किसानों की नयी नस्लें धरना प्रदर्शन आंदोलनों की धार के साथ ही किसान नेता महेन्द्रसिंह टिकैत को भी भूल से गए।

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