अनामी शरण बबल
राजनीति के जंगल में आजकलज्यादातर पुरस्कार और सरकारी सम्मानपांव पैसा पहुंच पौव्वा और जुगाड़ केचलते ही हासिल किया जाता है। पुरस्कार देने का जमाना और मान सम्मान अब कहां?मगर दिल्ली की चकाचौंध से 1500 किलोमीटर दूर रांचीके अपर बाजार के एक साधारण से दफ्तर में बैठकर क्षेत्रीय पत्रकारिता के मान ज्ञान सम्मान केऔर जनहितों के लिए संघर्ष का जो सत्ता विरोधीचेहरा समाज के सामने रखा, वह वंदनीय है। इन्होने रांची से प्रकाशित इस अखबार को जोप्रतिष्ठा दिलाई है इसके लिए इनको और इनकी साधनहीन पूरी टीम की जितनी भी तारीफ कीजाए वह कम है।ये इस तरह की फौज के कमांडर थे जहां पर बहुत सारी सुविधाओं की चूक हो जाने के बाद भी पत्रकारिता की मान और शान के लिए सब एकजुट हो जाते थे।
आमतौर पर किसी सम्मान या पुरस्कार को अर्जित करके लोग महानऔर सम्मानित से हो जाते हैं। मगर क्षेत्रीय पत्रकारिता के इस पुरोधा संपादक बलवीर दत से ज्यादा पद्मश्री का सम्मान सम्मानित होकरगौरव का सूचक बना है।
पिछले साल मुझे भी कुछ माह रांची एक्सप्रेस सेसंपादक का ऑफर आया। यह एक पत्रकार के रूप में मेरे मित्र सुधांशु सुमन नेदिया था। एक टेलीविजन पत्रकार के रूप मं मैंइनको 20 साल से जानता रहा हूं। हालांकि उन्होने मुझे दिल्ली संस्कतरण में संपादक का ऑफर दिया था। रांची एक्सप्रेस और बलबीर दत के नाम का इतना तेज मेरे मन में था कि दिल्लीमें रहते हुए 27 साल हो जाने के बाद भी मैने खुद रांची में पांच छहमाह तक रहने की इच्छा जाहिर की। दो तीन किस्तों में दिल्लीरांची आते जातेकरीब ढाई तीन माह तक मैं रांची में रहा।
नयी सत्ता नयी व्यवस्था और नए हालातमें देखा जाए तो जिन सपनों और बदलाव की योजनाओं और इच्छाओं के साथ गयाथा,उसमें कुछ खास नहीं हो पाया। इस बीच पहाड़ी इलाके की कंपकंपी वाली ठंड को देखते हुएमैने दो तीन माह तक दिल्ली लौटने की इच्छा जाहिर की और तमाम कठिनाईयों दिक्कतों के बाद भी मेरे तमाम नखड़़ो को प्रबंधन ने सिर माथे लिया और मुझे दिल्ली जाने का टिकट थमा दिया। हमलोग में कोई शिकायतनहीं है क्योंकि यह अखबार तो इनके पास अभी सामने आया है, मगर हमारा नाता इनसे 20 साल से एकपत्रकार वाला सबसे प्रमुख रहा था।
रांची पहुंचते ही जब मैं अपने एकप्रिय सहकर्मी नवनीत नंदन के साथ जब बलवीर जी के घर पर पहुंचा तोअवाक रह गया। उनके स्टड़ी रूम में चारों तरफ हजारों किताबों का अंबार लगाथा। स्टडी कमरे में चारो तरफ किताबें ठूंसी पड़ी थी। सैकड़ों फाईलों और हजारों कतरनों को देखकर तो मैं दंग रह गया। मैने उनके पांव छूए और उस अखबाक की कमान थामने से पहले आशीष मांगा ।मैने कहा कि सर आपकेअनुभव लेखन और संपादकीय दक्षता के सामने तो मैं कहीं पासंग भर भी नहीं हूं।मगर यह मेरा सौभाग्य भरा संयोग है कि मैं भी उसी रांची एक्सप्रेस का चालक बनरहा हूं जिसको आपने बुलेट ट्रेन बना रखा था।
पूरे झारखंड में बलबीर दत को बच्चाबच्चा (जो अखबार पढने वाला हो) जानता है। यह अखबार पूरे शहर समेत झारखंड काअपन अखबार सा है। हालांकि जमाने की चमक दमक और बाजारी मारामारी वाले इस राज्य के बलवीर दत्त यहां के इकलौते संपादक हैं जिनको उपराज्यपाल से लेकर रांची शहर का एक एकरिक्शा वाला भी जानता और अपना मानता है। पत्रकारिता में ये यहां के इकलौते सोशलसंपादक का सर्वमान्य चेहरा की तरह स्थापित है। संपादक का मुखौटा लगाकर तो मैं या मेरे जैसे ही दर्जनों लोग रांची में सक्रिय हैं, मगर किसी की भी धमक जनता में नहीं बनी है। और मैं तो अपर बाजार से फिरायालाल चौक के बीच रास्ते में ही सही राह की खोज में भटकता रह गया।
इस समय रांची से दर्जन भर अखबार निकल रहेहैं मगर रविवार वाले हरिवंश जी के प्रभात खबर से अलग होने के बाद किस पेपर का संपादक कौन है यह सब मुझ समेत ज्यादतरसपादकभी संभवत नहीं जानते होंगे। मैं भी ढाई माह में यह नहीं जान पाया कि तमामअखबारों के संपादक कौन है। यायों कहे कि पाठकों की नजर में मेरी तरह हीसब अनाम हैं ।
रांचीएक्सप्रेस में बलवीर दत्त जी के साथ काम करने वाले आ. उदय वर्मा जी ने भी इनकी वीरता धीरता और जनता के लिए अंगद की तरह अडिग हो जाने की दर्जनोंकिस्से कहानियोंको सामने रखा। रांची एक्सप्रेस में मेरी एक संक्षिप्त पारी रही। इसके बावजूद मुझे इसबात का हमेशा गौरवबोध रहेगा कि मैने भी उनको देखा और स्नेह प्यार का पात्र बना ।