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खुशवंत सिंह के जीवन का दूसरा पहलू

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समरथ को नांही दोष गोंसाईं / अनामी शरण बबल



विवेक जी आपमें इतना विवेक संयम मान मर्यादा रिश्तों को दूर तक लेकर चलने का धीरज और कलम को कभी भी असंयमित नहीं होने देने का सब्र है। , जिसका मैं हमेशा सत्कार करता हूं सलाम करता हूं, कि आप एकदम खांटी पत्रकार है कि खुद को कभी भी किसी एक के पक्ष में नहीं जाते। खुद को पार्टी बनने से रोक लेने का यह धैर्य्य है। अपनी लक्ष्मण रेखा आप खुद तय करते हैं यह बड़ी बात है। जबकि आजकल ज्यादातर पत्रकार किसी एक के पक्ष में झुककर पार्टी बन जाते हैं। निसंदेह खुशवंत सिंह की लेखनी में दम है और एक हद तक सच्चाई भी. मैं बी लगभग एक दर्जन अनुदित उपन्यास औरभी बहुत कुछ देखा और पढा है। तमाम हालातों को वे अपनी तरह से सामने रखते रहे हैं। मगर वे अमीरी और ताकत के उस परिवार से आते हैं जहां पर सामान्य जन से नाता ना के बराबर होता है। या महाकवि गोस्वामी तुलसीदास का सहारा लें तो समरथ को नहीं दोष गोंसाई एकदम सच और सही साबित होता है। वहीं खुसवंतजी के पिता (सर) शोभा सिंह के साथ ही शामली के सर की उपाधि से नवाजे गए शादीराम ने भी शोभा सिंह की झूठी गवाही में साथ दिया था। जिसके फलस्वरूप शामली के लोगों ने शादीराम के पूरे परिवार को सामाजिक बहिष्कार कर दिया। इसका असर यह रहा कि शामली में रहते हुए इस परिवार को रोजाना नागरिको की उपेक्षा और कटाक्ष का सामना करना पड़ा। एक गद्दार की तरह शादीराम के परिवार को वेस्ट यूपी ने नकार दिया। हालात तो तब नफरत कीजाहिर हुई जब शादीराम की मौत हुई तो शामली शहर में किसी भी दुकानदार ने कफन तक नहीं दी। परिजनों को सहारनपुर बडौत बागपत और लोनी तक में कफन नहीं मिला। शादीराम के अंतिम संस्कार के लिए दिल्ली से कफन और सामान खरीदकरशामली लाया गया। तब कहीं जाकर पूरे शहर में गद्दार की तरह कुख्यात शादीराम की श्मसान यात्रा पूरी हुई। यह तो खुशवंत सिंह समेत शोभा सिंह का सौभाग्य रहा कि दिल्ली जैसे शहर में ना इनको गद्दार का तगमा मिला और ना ही इनको एक गद्दार के संतान होने की जलालत या सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा। हद तो तब हो गयी जब अपने गद्दार पिता की इमेज को सुधारने के लिए शोभा पुत्र खुशवंत जी उनकी याद में एक सालाना जलसा करने लगे. जिसमें शहरी बुद्दिजीवियों द्वारा शोभाा और सुजानसिंह द्वारा अंग्रेजों की चाटूकारी तथा दलाली करके अर्जित धन वैभव सम्मान शोहरत और मालदार रईसी से चकाचौंध इस परिवार के गुणगान करने में विद्वान लोग एक दूसरे से आगे निकलने में नहीं थकते। खुशवंत परिवार के अहसान तले हमेशा झुके रहने वाले हमारे प्रधानमंत्री जी को एक समय चुनाव लड़ने के लिए खुशवंत सिंह ने दो लाख रूपये का दान दिया था। इस अहसान को सार्वजनिक तौर पर पीएम ने कई बार दोहराया और इस परिवार के अहसान का खुलासा किया। खुशवंत प्रेशर के सामने अपनी और दिल्ली में शीला दीक्षित सरकार की नाक कटाते कटाते मनमोहन एकाएक मौन हो गए। विंडसर प्लेस चौक के नाम परिवर्तन करके मनमोहन सिंह सर शोभा सिंह चौक रखवानाे के लिए राजी हो गए। और यह कहना बेमानी है कि मनमोहन जी के पीछे प्रेशर खुशवंतसिंह का ही था। भला हो मौनी बाबा का कि वे इस मामले में मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और एनडीएमसी के मनोनीत सदस्यों से राय मांगी.। कोई और मामला होता तो मुख्यमंत्री शीला नतमस्तक होकर पीएम की बात मान लेती, मगर सर शोभा सिंह के नाम परिवर्तन के बाद होने वाली किरकिरी का ट्रेलर दिखाकर बताकर शीला आंटी जी ने मौनी बाबा को मौन कर दिया। नाम परिवर्तन की फुसफुसाहट की खबर पाते ही मीडिया में हंगामा हो गया। कांग्रेस के ही बिट्टा साहब ने तो धरना प्रर्दशन करके पंजे को शर्मसार कर दिया। बिट्टा के साथ ही दिल्ली में सर शोभा सिंह का नाम गद्दार शोभा सिंह के रूप में उछलने लगा। तब कहीं जाकर मौनी बाबा और खुशवंत जी के मंसूबों पर पानी फिरा। निसंदेह खुशवंत जी एक साहसिक लेखक हैं। समाज की बनी बनायी धारा को तोडने और सामाजिक बंधनों को तोडने मे इनको मजा भी आता है. मगर यही साहस कोई दूसरा कहां कर पाते है। बेशक दिल्ली की शहरी मानसिकता उदारता और अपने आप में ही सिमटे रहने की कूपमंडूकी आदत जिसे लोग आत्मकेंद्रित जीवन को शहरी गौरव भी मानते हैं ने गद्दारी की सजा न तो शोभा सिंह को भोगने दी और ना ही उनके परिजनों को ही गद्दार परिवार के सदस्य होने की पीड़ा झेलने दी। इस मामले में सर शादीराम का छोटे शहर का नागरिक होना ही सबसे शर्मनाक साबित हुआ। खुशवंत सिंह से सवाल करने का न तो कोई समय है और ना ही दिवंगत हो चुके सुजान शोभा खुशवंत और परिवार को गद्दारी की पीडा का अहसास ही है। बेशक खुशवंत सिंह एक बड़े पत्रकार लेखक हो सकते हैं, मगर उनके दामन पर गद्दार पुत्र होने का दाग भी अंकित है। यह अलग प्रसंग है कि महानगर में अब किसके पास समय है कि अतीत के प्रेतों को खंगाल कर फिर से शहीदे आजम भगत सिंह के साथ बटुकेश्वर दत्त और राजगुरू की फांसी पर 86 साल के बाद आंसू कौन बहाए या किसको याद है कि भगत सिंह की फांसी की सजा के पीछे मशहूर लेखक खुशवंत सिंह के पिता और दिल्ली के क्नॉट प्लेस के निर्माण के ठेकेदार शोभा सिंह की झूठी गवाही का हाथ है। और चलते चलते खुशवंत सिंह की बेशर्मी कहे या सादगी या भोलेपन का नाम दे यह समझ नहीं आता,जब हमारे खुशवंत अपने बाप की होने वाली लानत मलानत पर एक बार कहा था कि इसमें मेरे पिता की क्या गलती थी वे तो केवल तीनों की पहचान की थी। वाह खुशवंत जी के भोलेपन पर मन शर्मसार हो जाता है.. औरतों के वक्ष और नितंबों को तो उनके आकार प्रकार देखकर ही यौनेच्छा की माप तौल करने में माहिर कहे या पारखी माने जाने वाले हमारे खुशवंत सिंह भी भोले बाबा बनकर अपने गद्दार देशद्रोही बाप को सेनानी बनाने की कोशिश करते हुए शर्मिंदा तक नहीं होते। यही खुशवंत सिंहजैसे कद्दावर लेखक औरनिंदक का सबसे कमजोर पहलू है।

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