प्रस्तुति- स्वामी शरण/ अमन कुमार
3 मई का दिन दुनियाभर में वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे के तौर पर मनाया जाता है। प्रेस स्वतंत्रता के मौलिक सिद्धांतों, प्रेस स्वतंत्रता का मूल्यांकन करने के लिए, मीडिया स्वतंत्रता पर हो रहे हमले का बचाव करने और अपने पेशे को इमानदारी से निभाने के क्रम में जान गंवाने वाले पत्रकार को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए हर साल 3 मई को यह दिन मनाया जाता है।
लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर खतरा
पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। ऐसे में अगर इस स्तंभ में दरार आती है तो लोकतंत्र पर भी खतरों के बादल मंडराने लगेंगे। भारत के लोकतंत्र को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है लिहाजा यहां के पत्रकारों की आजादी में कमी नहीं आनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश भारतीय मीडिया इस वक्त एक बहुत बड़े खतरे के दौर से गुजर रहा है।
राजनीति और पूंजीवाद से मीडिया की आजादी पर खतरा
21वीं शताब्दी के इस आधुनिक युग में दुनियाभर में पत्रकारिता को लेकर हो रही चिंताओं और चुनौतियों के बीच पत्रकारिता के स्वरूप और चरित्र में भी बदलाव आया है। राजनीति, पूंजीवाद और अपराध के बीच चल रही मीडिया के चरित्र पर दिनों-दिन खतरा बढ़ता जा रहा हैं। वहीं दूसरी ओर ऐसी विषम परिस्थितियों में भी हमारे देश में कुछ पत्रकार ऐसे हैं जो मीडिया की स्वतंत्रता को बचाने का प्रयास निरंतर करते आ रहे हैं। ऐसे पत्रकार पूंजीवाद और राजनीति का दवाब झेलने के बाद भी अपने पेशे से कोई समझौता नहीं करते और अपनी बात को किसी भी तरीके से निर्भिकता से दुनिया तक पहुंचाते हैं। ऐसे पत्रकारों को कई बार अपनी नौकरी और यहां तक की अपनी जान भी गंवानी पड़ जाती है।
पत्रकारों पर हो रहें हैं हमले
हाल के समय में पत्रकारों पर हमले बढ़ते जा रहे हैं। एक-डेढ़ साल (16 महीने) में उन पर 54 से ज्यादा हमले सामने आए हैं। मीडिया वॉचडॉग हूट ने अपनी एक रिपोर्ट में यह आंकड़े पेश किए हैं, वो भी वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे के मौके पर। तीन मई को दुनिया भर में इसे मनाया जाता है। पत्रकारों पर हमले के वास्त विक आंकड़े इससे कहीं ज्यादा हैं, क्योंकि एक मंत्री ने संसद में बताया कि साल 2014-15 के बीच पत्रकारों पर 142 हमले हुए। वहीं इन हमलों के पीछे की कहानियां एक स्पष्ट तस्वीरें बयां कर रही हैं और वो यह कि इंवेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग तेजी से खतरनाक साबित होती जा रही है।
एक रिपोर्ट के अनुसार, पत्रकार जिस भी स्टोरी को इंवेस्टिगेट करने के लिए बाहर जाते हैं, फिर चाहे वो रेत खनन, पत्थनर उत्खनन, अवैध निर्माण, पुलिस क्रूरता, चिकित्सकीय लापरवाही, चुनाव अभियान या नागरिक प्रशासन भ्रष्टाचार का मामला हो, उन पर हमले किए जाते हैं जिसमें कई बार उन्हें अपनी जिंदगी से भी हाथ धोना पड़ जाता है।
पत्रकार अपनी इमानदारी से समझौता करने को विवश
मीडिया इस वक्त व्यवसायीकरण के दौर से गुजर रहा है। पहले के जमाने में मीडिया सिर्फ अख़बारों तक ही सीमित थी लेकिन अब नई तकनीक के आने के बाद प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है जिसकी वजह से मीडिया को चलाने के लिए खर्चे भी बढ़े हैं। इन खर्चों को पूरा करने के लिए ज्यादातर अख़बार और मीडिया संस्थान सरकार, राजनैतिक पार्टियों, बड़ी-बड़ी कंपनियों और बड़े-बड़े पूंजीवादी लोगों के ऊपर निर्भर हो गए हैं। इन सब के ऊपर मीडिया के निर्भर होने से मीडिया की आजादी को लेकर पत्रकार समझौता करने के लिए विवश हो जाता हैं। हांलाकि इन सबके बीच भी कुछ पत्रकार अपनी आजादी से समझौता नहीं करते और वो मीडिया की गरिमा को बनाए रखने का निरंतर प्रयास करते हैं। जिसकी वजह से उन्हें सरकार, प्रशासन और समाज से सहयोग से बदले उपेक्षा ही मिलती है।
लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर खतरा
पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। ऐसे में अगर इस स्तंभ में दरार आती है तो लोकतंत्र पर भी खतरों के बादल मंडराने लगेंगे। भारत के लोकतंत्र को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है लिहाजा यहां के पत्रकारों की आजादी में कमी नहीं आनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश भारतीय मीडिया इस वक्त एक बहुत बड़े खतरे के दौर से गुजर रहा है।
राजनीति और पूंजीवाद से मीडिया की आजादी पर खतरा
21वीं शताब्दी के इस आधुनिक युग में दुनियाभर में पत्रकारिता को लेकर हो रही चिंताओं और चुनौतियों के बीच पत्रकारिता के स्वरूप और चरित्र में भी बदलाव आया है। राजनीति, पूंजीवाद और अपराध के बीच चल रही मीडिया के चरित्र पर दिनों-दिन खतरा बढ़ता जा रहा हैं। वहीं दूसरी ओर ऐसी विषम परिस्थितियों में भी हमारे देश में कुछ पत्रकार ऐसे हैं जो मीडिया की स्वतंत्रता को बचाने का प्रयास निरंतर करते आ रहे हैं। ऐसे पत्रकार पूंजीवाद और राजनीति का दवाब झेलने के बाद भी अपने पेशे से कोई समझौता नहीं करते और अपनी बात को किसी भी तरीके से निर्भिकता से दुनिया तक पहुंचाते हैं। ऐसे पत्रकारों को कई बार अपनी नौकरी और यहां तक की अपनी जान भी गंवानी पड़ जाती है।
पत्रकारों पर हो रहें हैं हमले
हाल के समय में पत्रकारों पर हमले बढ़ते जा रहे हैं। एक-डेढ़ साल (16 महीने) में उन पर 54 से ज्यादा हमले सामने आए हैं। मीडिया वॉचडॉग हूट ने अपनी एक रिपोर्ट में यह आंकड़े पेश किए हैं, वो भी वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे के मौके पर। तीन मई को दुनिया भर में इसे मनाया जाता है। पत्रकारों पर हमले के वास्त विक आंकड़े इससे कहीं ज्यादा हैं, क्योंकि एक मंत्री ने संसद में बताया कि साल 2014-15 के बीच पत्रकारों पर 142 हमले हुए। वहीं इन हमलों के पीछे की कहानियां एक स्पष्ट तस्वीरें बयां कर रही हैं और वो यह कि इंवेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग तेजी से खतरनाक साबित होती जा रही है।
एक रिपोर्ट के अनुसार, पत्रकार जिस भी स्टोरी को इंवेस्टिगेट करने के लिए बाहर जाते हैं, फिर चाहे वो रेत खनन, पत्थनर उत्खनन, अवैध निर्माण, पुलिस क्रूरता, चिकित्सकीय लापरवाही, चुनाव अभियान या नागरिक प्रशासन भ्रष्टाचार का मामला हो, उन पर हमले किए जाते हैं जिसमें कई बार उन्हें अपनी जिंदगी से भी हाथ धोना पड़ जाता है।
पत्रकार अपनी इमानदारी से समझौता करने को विवश
मीडिया इस वक्त व्यवसायीकरण के दौर से गुजर रहा है। पहले के जमाने में मीडिया सिर्फ अख़बारों तक ही सीमित थी लेकिन अब नई तकनीक के आने के बाद प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है जिसकी वजह से मीडिया को चलाने के लिए खर्चे भी बढ़े हैं। इन खर्चों को पूरा करने के लिए ज्यादातर अख़बार और मीडिया संस्थान सरकार, राजनैतिक पार्टियों, बड़ी-बड़ी कंपनियों और बड़े-बड़े पूंजीवादी लोगों के ऊपर निर्भर हो गए हैं। इन सब के ऊपर मीडिया के निर्भर होने से मीडिया की आजादी को लेकर पत्रकार समझौता करने के लिए विवश हो जाता हैं। हांलाकि इन सबके बीच भी कुछ पत्रकार अपनी आजादी से समझौता नहीं करते और वो मीडिया की गरिमा को बनाए रखने का निरंतर प्रयास करते हैं। जिसकी वजह से उन्हें सरकार, प्रशासन और समाज से सहयोग से बदले उपेक्षा ही मिलती है।