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सन २०१५ में विश्व के विभिन्न भागों में भ्रष्टाचार का आकलन
भ्रष्टाचार से देश की अर्थव्यवस्थाऔर प्रत्येक व्यक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। भारतमें राजनीतिक एवं नौकरशाहीका भ्रष्टाचारबहुत ही व्यापक है। इसके अलावा न्यायपालिका, मीडिया, सेना, पुलिसआदि में भी भ्रष्टाचार व्याप्त है।
अनुक्रम
- 1परिचय
- 2ब्रिटिश भारत में भ्रष्टाचार
- 3आर्थिक विकास में बाधक
- 4भ्रष्टाचार व असमानता
- 5महाशक्ति के रूप में भारत का भविष्य
- 6भारत के प्रमुख आर्थिक घोटाले
- 7न्यायपालिका में भ्रष्टाचार
- 8सेना में भ्रष्टाचार
- 9संचार माध्यमों (मीडिया) का भ्रष्टाचार
- 10राजनैतिक भ्रष्टाचार
- 11चुनाव सम्बन्धी भ्रष्टाचार
- 12नौकरशाही का भ्रष्टाचार
- 13कारपोरेट भ्रष्टाचार
- 14विविध भ्रष्टाचार
- 15भ्रष्टाचार और स्विस बैंक
- 16भारत का भ्रष्टाचार बोध सूचकांक
- 17वैज्ञानिक समाधान
- 18भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष और आन्दोलन
- 19सन्दर्भ
- 20इन्हे भी देखें
- 21बाहरी कड़ियाँ
परिचय
2005 में भारत में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल नामक एक संस्था द्वारा किये गये एक अध्ययन में पाया गया कि 62% से अधिक भारतवासियों को सरकारी कार्यालयों में अपना काम करवाने के लिये रिश्वत या ऊँचे दर्ज़े के प्रभाव का प्रयोग करना पड़ा। वर्ष 2008 में पेश की गयी इसी संस्था की रिपोर्ट ने बताया है कि भारत में लगभग 20 करोड़ की रिश्वत अलग-अलग लोकसेवकों को (जिसमें न्यायिक सेवा के लोग भी शामिल हैं) दी जाती है। उन्हीं का यह निष्कर्ष है कि भारत में पुलिस कर एकत्र करने वाले विभागों में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार है। आज यह कटु सत्य है कि किसी भी शहर के नगर निगम में रिश्वत दिये बगैर कोई मकान बनाने की अनुमति नहीं मिलती। इसी प्रकार सामान्य व्यक्ति भी यह मानकर चलता है कि किसी भी सरकारी महकमे में पैसा दिये बगैर गाड़ी नहीं चलती।भ्रष्टाचार अर्थात भ्रष्ट + आचार। भ्रष्ट यानी बुरा या बिगड़ा हुआ तथा आचार का मतलब है आचरण। अर्थात भ्रष्टाचार का शाब्दिक अर्थ है वह आचरण जो किसी भी प्रकार से अनैतिक और अनुचित हो।
किसी को निर्णय लेने का अधिकार मिलता है तो वह एक या दूसरे पक्ष में निर्णय ले सकता है। यह उसका विवेकाधिकार है और एक सफल लोकतन्त्र का लक्षण भी है। परन्तु जब यह विवेकाधिकार वस्तुपरक न होकर दूसरे कारणों के आधार पर इस्तेमाल किया जाता है तब यह भ्रष्टाचार की श्रेणी में आ जाता है अथवा इसे करने वाला व्यक्ति भ्रष्ट कहलाता है। किसी निर्णय को जब कोई शासकीय अधिकारी धन पर अथवा अन्य किसी लालच के कारण करता है तो वह भ्रष्टाचार कहलाता है। भ्रष्टाचार के सम्बन्ध में हाल ही के वर्षों में जागरुकता बहुत बढ़ी है। जिसके कारण भ्रष्टाचार विरोधी अधिनियम -1988, सिटीजन चार्टर, सूचना का अधिकार अधिनियम - 2005, कमीशन ऑफ इन्क्वायरी एक्ट आदि बनाने के लिये भारत सरकार बाध्य हुई है।
ब्रिटिश भारत में भ्रष्टाचार
मुख्य लेख : भारत में ब्रिटिश काल में भ्रष्टाचार
अंग्रेजों ने भारत के राजा महाराजाओं को भ्रष्ट करके भारत को गुलाम बनाया। उसके बाद उन्होने योजनाबद्ध तरीके से भारत में भ्रष्टाचार को बढावा दिया और भ्रष्टाचार को गुलाम बनाये रखने के प्रभावी हथियार की तरह इस्तेमाल किया। देश में भ्रष्टाचार भले ही वर्तमान में सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ है, लेकिन भ्रष्टाचार ब्रिटिश शासनकाल में ही होने लगा था जिसे वे हमारे राजनेताओं को विरासत में देकर गये थे।आर्थिक विकास में बाधक
भारत के महाशक्ति बनने की सम्भावना का आकलन अमरीका एवं चीन की तुलना से किया जा सकता है। महाशक्ति बनने की पहली कसौटी तकनीकी नेतृत्व है। अठारहवीं सदी में इंग्लैण्ड ने भाप इंजन से चलने वाले जहाज बनाये और विश्व के हर कोने में अपना आधिपत्य स्थापित किया। बीसवीं सदी में अमरीका ने परमाणु बम से जापान को और पैट्रियट मिसाइल से इराक को परास्त किया। यद्यपि अमरीका का तकनीकी नेतृत्व जारी है परन्तु अब धीरे-धीरे यह कमजोर पड़ने लगा है। वहां नई तकनीकी का आविष्कार अब कम ही हो रहा है। भारत से अनुसंधान का काम भारी मात्रा में 'आउटसोर्स'हो रहा है जिसके कारण तकनीकी क्षेत्र में भारत का पलड़ा भारी हुआ है। तकनीक के मुद्दे पर चीन पीछे है। वह देश मुख्यत: दूसरों के द्वारा ईजाद की गयी तकनीकी पर आश्रित है।दूसरी कसौटी श्रम के मूल्य की है। महाशक्ति बनने के लिये श्रम का मूल्य कम रहना चाहिये। तब ही देश उपभोक्ता वस्तुओंका सस्ता उत्पादन कर पाता है और दूसरे देशों में उसका उत्पाद प्रवेश पाता है। चीन और भारत इस कसौटी पर अव्वल बैठते हैं जबकि अमरीका पिछड़ रहा है। विनिर्माण उद्योग लगभग पूर्णतया अमरीका से गायब हो चुका है। सेवा उद्योग भी भारत की ओर तेजी से रुख कर रहा है। अमरीका के वर्तमान आर्थिक संकट का मुख्य कारण अमरीका में श्रम के मूल्य का ऊंचा होना है।
तीसरी कसौटी शासन के खुलेपन की है। वह देश आगे बढ़ता है जिसके नागरिक खुले वातावरण में उद्यम से जुड़े नये उपाय क्रियान्वित करने के लिए आजाद होते हैं। बेड़ियों में जकड़े हुये अथवा पुलिस की तीखी नजर के साये में शोध, व्यापार अथवा अध्ययन कम ही पनपते हैं। भारत और अमरीका में यह खुलापन उपलब्ध है। चीन इस कसौटी पर पीछे पड़ जाता है। वहां नागरिक की रचनात्मक ऊर्जा पर कम्युनिस्ट पार्टी का नियंत्रण है।
चौथी कसौटी भ्रष्टाचार की है। सरकार भ्रष्ट हो तो जनता की ऊर्जा भटक जाती है। देश की पूंजी का रिसाव हो जाता है। भ्रष्ट अधिकारी और नेता धन को स्विट्जरलैण्ड भेज देते हैं। इस कसौटी पर अमरीका आगे है। 'ट्रान्सपेरेन्सी इंटरनेशनल'द्वारा बनाई गयी रैंकिंग में अमरीका को १९वें स्थान पर रखा गया है जबकि चीन को ७९वें तथा भारत का ८४वां स्थान दिया गया है।
पांचवीं कसौटी असमानता की है। गरीब और अमीर के अन्तर के बढ़ने से समाज में वैमनस्य पैदा होता है। गरीब की ऊर्जा अमीर के साथ मिलकर देश के निर्माण में लगने के स्थान पर अमीर के विरोध में लगती है। इस कसौटी पर अमरीका आगे और भारत व चीन पीछे हैं। चीन में असमानता उतनी ही व्याप्त है जितनी भारत में, परन्तु वह दृष्टिगोचर नहीं होती है क्योंकि पुलिस का अंकुश है। फलस्वरूप वह रोग अन्दर ही अन्दर बढ़ेगा जैसे कैन्सर बढ़ता है। भारत की स्थिति तुलना में अच्छी है क्योंकि यहाँ कम से कम समस्या को प्रकट होने का तो अवसर उपलब्ध है।
भ्रष्टाचार व असमानता
महाशक्ति बनने की इन पांच कसौटियों का समग्र आकलन करें तो वर्तमान में अमरीकाकी स्थिति क्रमांक एक पर दिखती है। तकनीकी नेतृत्व, समाज में खुलेपन, भ्रष्टाचार नियंत्रण और समानता में वह देश आगे है। अमरीका की मुख्य कमजोरी श्रम के मूल्य का अधिक होना है। भारतकी स्थिति क्रमांक २ पर दिखती है। तकनीकी क्षेत्र में भारत आगे बढ़ रहा है, श्रमका मूल्य न्यून है और समाज में खुलापन है। हमारी समस्यायें भ्रष्टाचार और असमानता की है। चीनकी स्थिति कमजोर दिखती है। तकनीकी विकास में वह देश पीछे है, समाज घुट रहा है, भ्रटाचार चहुंओर व्याप्त है ओर असमानता बढ़ रही है।यद्यपि आज अमरीका भारत से आगे है परन्तु तमाम समस्यायें उस देश में दस्तक दे रही हैं। शोध भारत से 'आउटसोर्स'हो रहा है। भ्रटाचार भी शनै: शनै: बढ़ रहा है। २००२ में ट्रान्सपेरेन्सी इन्टरनेशनल ने ७.६ अंक दिये थे जो कि २००९ में ७.५ रह गये हैं। अमरीकी नागरिकों में असमानता भी बढ़ रही है। तमाम नागरिक अपने घरों से बाहर निकाले जा चुके हैं और सड़क पर कागज के डिब्बों में रहने को मजबूर हैं। आर्थिक संकट के गहराने के साथ-साथ वहां समस्याएं और तेजी से बढ़ेंगी। इस तुलना में भारत की स्थिति सुधर रही है। तकनीकी शोध में भी हम आगे बढ़ रहे हैं जैसा कि नैनो कार के बनाने से संकेत मिलते हैं। भ्रटाचार में भी कमी के संकेत मिल रहे हैं। सूचना के अधिकार ने सरकारी मनमानी पर कुछ न कुछ लगाम अवश्य कसी है। परन्तु अभी बहुत आगे जाना है।
महाशक्ति के रूप में भारत का भविष्य
राजनीतिक पार्टियों का मूल उद्देश्य सत्ता पर काबिज रहना है। इन्होंने युक्ति निकाली है कि गरीब को राहत देने के नाम पर अपने समर्थकों की टोली खड़ी कर लो। कल्याणकारी योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए भारी भरकम नौकरशाही स्थापित की जा रही है। सरकारी विद्यालयों एवं अस्पतालों का बेहाल सर्वविदित है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में ४० प्रतिशत माल का रिसाव हो रहा है। मनरेगा के मार्फत् निकम्मों की टोली खड़ी की जा रही है। १०० रुपये पाने के लिये उन्हें दूसरे उत्पादक रोजगार छोड़ने पड़ रहे हैं। अत: भ्रटाचार और असमानता की समस्याओं को रोकने में हम असफल हैं। यही हमारी महाशक्ति बनने में रोड़ा है।उपाय है कि तमाम कल्याणकारी योजनाओं को समाप्त करके बची हुयी रकम को प्रत्येक मतदाता को सीधे रिजर्व बैंक के माध्यम से वितरित कर दिया जाये। प्रत्येक परिवार को कोई २००० रुपये प्रति माह मिल जायेंगे जो उनकी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति को पर्याप्त होगा। उन्हें मनरेगा में बैठकर फर्जी कार्य का ढोंग नहीं रचना होगा। वे रोजगार करने और धन कमाने को निकल सकेंगे। कल्याणकारी योजनाओं में व्याप्त भ्रटाचार स्वत: समाप्त हो जायेगा। इस फार्मूले को लागू करने में प्रमुख समस्या राजनीतिक पार्टियों का सत्ता प्रेम है। सरकारी कर्मचारियों की लॉबी का सामना करने का इनमें साहस नहीं है। सारांश है कि भारत महाशक्ति बन सकता है यदि राजनीतिक पार्टियों द्वारा कल्याणकारी कार्यक्रमों में कार्यरत सरकारी कर्मचारियों की बड़ी फौज को खत्म किया जाये। इन पर खर्च की जा रही रकम को सीधे मतदाताओं को वितरित कर देना चाहिये। इस समस्या को तत्काल हल न करने की स्थिति में हम महाशक्ति बनने के अवसर को गंवा देंगे।
यह सच है कि भारत महाशक्ति बनने के करीब है परन्तु हम भ्रष्टाचार की वजह से इस से दूर होते जा रहे है। भारत के नेताओ को जब अपने फालतू के कामो से फुरसत मिले तब ही तो वो इस सम्बन्ध मे सोच सकते है उन लोगो को तो फ्री का पैसा मिलता रहे देश जाये भाड मे। भारत को महाशक्ति बनने मे जो रोडा है वो है नेता। युवाओ को इस के लिये इनके खिलाफ लडना पडेगा, आज देश को महाशक्ति बनाने के लिये एक महाक्रान्ति की जरुरत है, क्योकि बदलाव के लिये क्रान्ति की ही आवश्यकता होती है लेकिन इस बात का ध्यान रखना पडेगा की भारत के रशिया जैसे महाशक्तिशाली देश की तरह टुकडे न हो जाये, अपने को बचाने के लिये ये नेता कभी भी रूप बदल सकते है।
भारत के प्रमुख आर्थिक घोटाले
- बोफोर्स घोटाला - 64 करोड़ रुपये
- यूरिया घोटाला - 133 करोड़ रुपये
- चारा घोटाला - 950 करोड़ रुपये
- शेयर बाजार घोटाला - 4000 करोड़ रुपये
- सत्यम घोटाला - 7000 करोड़ रुपये
- स्टैंप पेपर घोटाला - 43 हजार करोड़ रुपये
- कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला - 70 हजार करोड़ रुपये
- 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला - 1 लाख 67 हजार करोड़ रुपये
- अनाज घोटाला - 2 लाख करोड़ रुपए (अनुमानित)
- कोयला खदान आवंटन घोटाला - 12 लाख करोड़ रुपये
न्यायपालिका में भ्रष्टाचार
मुख्य लेख : भारतीय न्यायपालिका
आश्चर्य नहीं कि भारतीय समाज के भ्रष्टाचार के सबसे व्यस्त और अपराधी अड्डे अदालतों के परिसर हैं। गांधीजीने कहा था कि अदालत न हो तो हिंदुस्तान में न्याय गरीबों को मिलने लगे।न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है, यह एक आम मान्यता है। जब किसी व्यक्ति के खिलाफ अदालती निर्णय आता है तो उसे लगता है कि जरूर न्यायाधीश ने विपक्षी लोगों से पैसे लिए होंगे या किसी और वजह से उसने अदालत का निर्णय अपने पक्ष में करवा लिया होगा। कहते सब हैं, पर डरते भी हैं कि ऐसा कहने पर वे अदालत की अवमानना के मामले में फंस न जाएं। उनके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है।[2]
अंग्रेजी काल से ही न्यायालय शोषण और भ्रष्टाचार के अड्डे बन गये थे। उसी समय यह धारणा बन गयी थी कि जो अदालत के चक्कर में पड़ा, वह बर्बाद हो जाता है। भारतीय न्यायपालिका में भ्रष्टाचार अब आम बात हो गयी है। सर्वोच्च न्यायालयके कई न्यायधीशों पर महाभियोग[3]की कार्यवाही हो चुकी है। न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार में - घूसखोरी, भाई भतीजावाद, बेहद धीमी और बहुत लंबी न्याय प्रक्रिया, बहुत ही ज्यादा मंहगा अदालती खर्च, न्यायालयों की भारी कमी और पारदर्शिता की कमी, कर्मचारियों का भ्रष्ट आचरण आदि जैसे कारकों की प्रमुख भूमिका है।
आमतौर पर कहा जाता है कि फलां वकील के पास जाइए, वह निश्चित रूप से आपकी जमानत करवा देगा। उस "निश्चित रूप से"का एक अर्थ होता है। यही भ्रष्टाचार है। परन्तु अदालतों ने अपने आप को पूरी तरह से ऐसे आवरण में ढांप रखा है कि कभी इस पर न कोई खबर छपती है, न कोई कार्रवाई होती है। कानून ऐसा है कि आज न्यायाधीश को गिरफ्तार नहीं कर सकते। यह तो छोड़िए, आप उनके खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति रखने का मुकदमा नहीं बना सकते। कानून ऐसा है कि अगर कोई न्यायाधीश इस प्रकार की स्थितियों में पाया जाए तो उस पर होने वाली कार्रवाई को सार्वजनिक नहीं किया जाता।[4]
वैसे विगत सात दशकों में राज्य के तीन अंगों के प्रदर्शन पर नजर डाली जाए तो न्यायपालिका को ही बेहतर माना जाएगा। अनेक अवसरों पर उसने पूरी निष्ठा और मुस्तैदी से विधायिका और कार्यपालिका द्वारा संविधान उल्लंघन को रोका है, लेकिन अदालतों में विचाराधीन मुकदमों की तीन करोड़ की संख्या का पिरामिड देशवासियों के लिए चिंता और भय उत्पन्न कर रहा है। अदालती फैसलों में पांच साल लगाना तो सामान्य-सी बात है, लेकिन बीस-तीस साल में भी निपटारा न हो पाना आम लोगों के लिए त्रासदी से कम नहीं है। न्याय का मौलिक सिद्धांत है कि विलंब का मतलब न्याय को नकारना होता है। देश की अदालतों में जब करोड़ों मामलों में न्याय नकारा जा रहा हो तो आम आदमी को न्याय सुलभ हो पाना आकाश के तारे तोड़ना जैसा होगा।
वस्तुत: अदालतों में त्वरित निर्णय न हो पाने के लिए यह कार्यप्रणाली ज्यादा दोषी है जो अंग्रेजी शासन की देन है और उसमें व्यापक परिवर्तन नहीं किया गया है। कई मामलों में तो वादी या प्रतिवादी ही प्रयास करते हैं कि फैसले की नौबत ही नहीं आ पाए। समाचार-पत्रों और टीवी के बावजूद नोटिस तामीली के लिए उनका सहारा नहीं लिया जाता और नोटिस तामील होने में वक्त जाया होता रहता है। आवश्यकता इस बात की है कि कानूनों में सुधार करके जमानत और अपीलों की चेन में कटौती की जाए और पेशियां बढ़ाने पर बंदिश लगाई जाए। हालांकि देश में भ्रष्टाचार इतना सर्वन्यायी हुआ है कि कोई भी कोना उसकी सड़ांध से बचा नहीं है, लेकिन फिर भी उच्चस्तरीय न्यायपालिका कुछ अपवाद छोड़कर निस्तवन साफ-सुथरी है। 2007 की ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की प्रतिवेदन अनुसार नीचे के स्तर की अदालतों में लगभग 2630 करोड़ रुपया बतौर रिश्वत दिया गया। अब तो पश्चिम बंगाल के न्यायमूर्ति सेन और कर्नाटक के दिनकरन जैसे मामले प्रकाश में आने से न्यायपालिका की धवल छवि पर कालिख के छींटे पड़े हैं। मुकदमों के निपटारे में विलंब का एक कारण भ्रष्टाचार भी है। उच्चत्तम न्यायालयऔर हाईकोर्ट के जजों को हटाने की सांविधानिक प्रक्रिया इतनी जटिल है कि कार्रवाई किया जाना बहुत कठिन होता है। न्यायिक आयोग के गठन का मसला सरकारी झूले में वर्षो से झूल रहा है।
उच्चत्तम न्यायालयद्वारा बच्चों के शिक्षा अधिकार, पर्यावरण की सुरक्षा, चिकित्सा, भ्रष्टाचार, राजनेताओं के अपराधीकरण, मायावती का पुतला प्रेम जैसे अनेक मामलों में दिए गए नुमाया फैसले, रिश्वतखोरी के चंद मामलों और विलंबीकरण के असंख्य मामलों की धुंध में छुप-से गए हैं। यह भारत की गर्वोन्नत न्यायपालिका की ही चमचमाती मिसाल है, जहां सुप्रीम कोर्ट और उसके मुख्य न्यायाधीश उन पर सूचना का अधिकार लागू न होने का दावा करते हैं और दिल्ली हाईकोर्ट उनकी राय से असहमत होकर पिटीशन खारिज कर देता है। यह सुप्रीम कोर्ट ही है, जिसने आंध्रप्रदेश सरकार द्वारा मुसलमानों को शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण पर रोक लगा दी। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश हों, देश के विधि मंत्री हों या अन्य और लंबित मुकदमों के अंबार को देखकर चिंता में डूब जाते हैं, लेकिन किसी को हल नजर नहीं आता है। उधर, सुप्रीम कोर्ट अदालतों में जजों की कमी का रोना रोता है। उनके अनुसार उच्च न्यायालय के लिए 1500 और निचली अदालतों के लिए 23000 जजों की आवश्यकता है। अभी की स्थिति यह है कि उच्च न्यायालयों में ही 280 पद रिक्त पड़े हैं। जजों की कार्य कुशलता के संबंध में हाल में सेवानिवृत्त हुए उड़ीसा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस बिलाई नाज ने कहा कि मजिस्ट्रेट कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक के लिए कई जज फौजदारी मामले डील करने में असक्ष्म हैं। 1998 के फौजदारी अपीलें बंबई उच्च न्यायालय में इसलिए विचाराधीन पड़ी हैं, क्योंकि कोई जज प्रकरण का अध्ययन करने में दिलचस्पी नहीं लेता। वैसे भी पूरी सुविधाएं दिए जाने के बावजूद न्यायपालिका में सार्वजनिक अवकाश भी सर्वाधिक होते हैं। पदों की कमी और रिक्त पदों को भरे जाने में विलंब ऎसी समस्याएं हैं, जिनका निराकरण जल्दी हो। हकीकत तो यह है कि न्यायपालिका की शिथिलता और अकुशलता से तो अपराध और आतंकवाद तक को बढ़ावा मिलता है।
फर्जी डिग्रीधारी वकील
बार काउंसिल का दावा है कि देश में 45 प्रतिशत फर्जी वकील हैं।[5]सेना में भ्रष्टाचार
विश्व की कुछ चुनिंदा सबसे तेज़, सबसे चुस्त, बहादुर और देश के प्रति विश्वसनीय सेनाओं में अग्रणी स्थान पाने वालों में से एक है। देश का सामरिक इतिहास इस बात का गवाह है कि भारतीय सेना ने युद्धों में वो वो लडाई सिर्फ़ अपने जज़्बे और वीरता के कारण जीत ली जो दुश्मन बडे आधुनिक अस्त शस्त्र से भी नहीं जीत पाए।लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से, बडे शस्त्र आयात निर्यात में, आयुध कारागारों में संदेहास्पद अगिनकांडों की शृंखला, पुराने यानों के चालन से उठे सवाल और जाने ऐसी कितनी ही घटनाएं, दुर्घटनाएं और अपराधिक कृत्य सेना ने अपने नाम लिखवाए हैं और अब भी कहीं न कहीं ये सिलसिला ज़ारी है वो इस बात का ईशारा कर रहा है कि अब स्थिति पहले जैसी नहीं है। कहीं कुछ बहुत ही गंभीर चल रहा है। सबसे दुखद और अफ़सोसजनक बात ये है कि अब तक सेना से संबंधित अधिकांश भ्रष्टाचार और अपराध सेना के उच्चाधिकारियों के नाम ही रहा है। आज सेना के अधिकारियों को तमाम सुख सुविधाएं मौजूद होने के बावजूद भी, सेना में भरती, आयुध, वर्दी एवं राशन की सप्लाई तक में बडी घपले और घोटालेबाजी के सबूत, पुरस्कार और प्रोत्साहन के लिए फ़र्जी मुठभेडों की सामने आई घटनाएं आदि यही बता और दर्शा रही हैं कि भारतीय सेना में भी अब वो लोग घुस चुके हैं जिन्होंने वर्दी देश की सुरक्षा के लिए नहीं पहनी है। आज सेना में हथियार आपूर्ति, सैन्य सामग्री आपूर्ति, खाद्य राशन पदार्थों की आपूर्ति और ईंधन आपूर्ति आदि सब में बहुत सारे घपले घोटाले किए जा रहे हैं और इसमें उनका भरपूर साथ दे रहे हैं सैन्य एवं रक्षा विभागों से जुडे हुए सारे भ्रष्ट लोग। इन सबके छुपे ढके रहने का एक बडा कारण है देश की आंतरिक सुरक्षा से जुडा होने के कारण इन सूचनाओं का अति संवेदनशील होना और इसलिए ये सूचनाएं पारदर्शी नहीं हो पाती हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि की नहीं जा सकतीं। यदि तमाम ठेकों और शस्त्र वाणिज्य डीलों को जनसाधारण के लिए रख दिया जाए तो बहुत कुछ छुपाने की गुंजाईश खत्म हो जाएगी।
सेना से जुड़े कुछ प्रमुख भ्रष्टाचार के मामले :
- बोफोर्स घोटाला
- सुकना जमीन घोटाला
- अगस्ता वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर घोटाला
- टैट्रा ट्रक घोटाला
- आदर्श सोसायटी घोटाला
- कारगिल ताबूत घोटाला
- जीप घोटाला
संचार माध्यमों (मीडिया) का भ्रष्टाचार
मिडिया साक्षरताभी देखेंराजनैतिक भ्रष्टाचार पर किये गये शोध बताते हैं कि यदि संचार माध्यम स्वतन्त्र और निष्पक्ष हो तो इससे सुशासनको बढ़ावा मिलता है जिससे आर्थिक विकास को गति मिलती है।[6]
भारत में 1955 में अखबार के मालिकों के भ्रष्टाचार के मुद्दे संसद में उठते थे। आज मिडिया में भ्रष्टाचार इस सीमा तक बढ़ गया है कि मीडिया के मालिक काफी तादाद में संसद में बैठते दिखाई देते हैं। अर्थात् भ्रष्ट मिडिया और भ्रष्ट राजनेता मिलकर काम कर रहे हैं। भ्रष्ट घोटालों में मीडिया घरानों के नाम आते हैं। उनमें काम करने वाले पत्रकारों के नाम भी आते हैं। कई पत्रकार भी करोड़पति और अरबपति हो गए हैं।
आजादी के बाद लगभग सभी बड़े समाचार पत्र पूंजीपतियों के हाथों में गये। उनके अपने हित निश्चित हो सकते हैं इसलिए आवाज उठती है कि मीडिया बाजार के चंगुल में है। बाजार का उद्देश्य ही है अधिक से अधिक लाभ कमाना। पत्रकार शब्द नाकाफी है अब तो न्यूज बिजनेस शब्द का प्रयोग है। अनेक नेता और कारापोरेट कम्पनियां अखबार का स्पेस (स्थान) तथा टीवी का समय खरीद लेते हैं। वहां पर न्यूज, फीचर, फोटो, लेख जो चाहे लगवा दें। भारत की प्रेस कौंसिल और न्यूज ब्राडकास्टिंग एजेन्सी बौनी है। अच्छे लेखकों की सत्य आधारित लेखनी का सम्मान नहीं होता उनके लेख कूड़ेदान में जाते हैं। अर्थहीन, दिशाहीन, अनर्गल लेख उस स्थान को भर देते हैं। अखबारों से सम्पादक के नाम पत्र गायब हैं। लोग विश्वास पूर्वक लिखते नहीं, लिख भी दिया तो अनुकूल पत्र ही छपते हैं बाकी कूड़ेदान में ही जाते हैं। कुछ सम्पादकों की कलम सत्ता के स्तंभों और मालिकों की ओर निहारती है।[7]
2जी स्पेक्ट्रम घोटाला मामला ने देश में भ्रष्टाचार को लेकर एक नई इबादत लिख दी। इस पूरे मामले में जहां राजनीतिक माहौल भ्रष्टाचार की गिरफ्त में दिखा वहीं लोकतंत्र का प्रहरी मीडिया भी राजा के भ्रष्टाचार में फंसा दिखा। राजा व मीडिया के भ्रष्टाचार के खेल को मीडिया ने ही सामने लाय। हालांकि यह पहला मौका नहीं है कि मीडिया में घुसते भ्रष्टचार पर सवाल उठा हो! मीडिया को मिशन समझने वाले दबी जुबां से स्वीकारते हैं कि नीरा राडिया प्रकरण ने मीडिया के अंदर के उच्च स्तरीय कथित भ्रष्टाचार को सामने ला दिया है और मीडिया की पोल खोल दी है।
हालांकि, अक्सर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन छोटे स्तर पर। छोटे-बडे़ शहरों, जिलों एवं कस्बों में मीडिया की चाकरी बिना किसी अच्छे मासिक तनख्वाह पर करने वाले पत्रकारों पर हमेशा से पैसे लेकर खबर छापने या फिर खबर के नाम पर दलाली के आरोप लगते रहते हैं। खुले आम कहा जाता है कि पत्रकरों को खिलाओ-पिलाओ-कुछ थमाओं और खबर छपवाओ। मीडिया की गोष्ठियों में, मीडिया के दिग्गज गला फाड़ कर, मीडिया में दलाली करने वाले या खबर के नाम पर पैसा उगाही करने वाले पत्रकारों पर हल्ला बोलते रहते
लोकतंत्र पर नजर रखने वाला मीडिया भ्रष्टाचार के जबड़े में है। मीडिया के अंदर भ्रष्टाचार के घुसपैठ पर भले ही आज हो हल्ला हो जाये, यह कोई नयी बात नहीं है। पहले निचले स्तर पर नजर डालना होगा। जिलों/कस्बों में दिन-रात कार्य करने वाले पत्रकार इसकी चपेट में आते हैं, लेकिन सभी नहीं। अभी भी ऐसे पत्रकार हैं, जो संवाददाता सम्मेलनों में खाना क्या, गिफ्ट तक नहीं लेते हैं। संवाददाता सम्मेलन कवर किया और चल दिये। वहीं कई पत्रकार खाना और गिफ्ट के लिए हंगामा मचाते नजर आते हैं।
वहीं देखें, तो छोटे स्तर पर पत्रकारों के भ्रष्ट होने के पीछे सबसे बड़ा मुद्दा आर्थिक शोषण का आता है। छोटे और बड़े मीडिया हाउसों में 15 सौ रूपये के मासिक पर पत्रकारों से 10 से 12 घंटे काम लिया जाता है। उपर से प्रबंधन की मर्जी, जब जी चाहे नौकरी पर रखे या निकाल दे। भुगतान दिहाड़ी मजदूरों की तरह है। वेतन के मामले में कलम के सिपाहियों का हाल, सरकारी आदेशपालों से भी बुरा है। ऐसे में यह चिंतनीय विषय है कि एक जिले, कस्बा या ब्लॉक का पत्रकार, अपनी जिंदगी पानी और हवा पी कर तो नहीं गुजारेगा? लाजमी है कि खबर की दलाली करेगा? वहीं पर कई छोटे-मंझोले मीडिया हाउसों में कार्यरत पत्रकारों को तो कभी निश्चित तारीख पर तनख्वाह तक नहीं मिलती है। छोटे स्तर पर कथित भ्रष्ट मीडिया को तो स्वीकारने के पीछे, पत्रकारों का आर्थिक कारण, सबसे बड़ा कारण समझ में आता है, जिसे एक हद तक मजबूरी का नाम दिया जा सकता है।
मिडिया का स्वामित्व
[8]पेड न्यूज
दत्त-शुल्क समाचार (पेड् न्यूज) भी देखें।क्रोनी कैपिटलिज्म
सहचर पूँजीवाददेखेंराजनैतिक भ्रष्टाचार
मुख्य लेख : राजनैतिक भ्रष्टाचार
चुनाव सम्बन्धी भ्रष्टाचार
मुख्य लेख : चुनाव में धांधली
- बूथ लूटना
- ईवीएम छेड़छाड़
- चुनाव से ठीक पहले पैसे, शराब एवं अन्य सामान बांटना
- चुनाव में अंधाधुंध पैसा खर्च करना
- प्रतिद्वन्दियों के बैनर-झण्डे फाड़ना एवं कार्यकर्ताओं को डराना-धमकाना
- मतगणना में धांधली करा देना
- लोकलुभावन योजनाएँ शुरू करना
- जाति/वर्ग के आधार पर वोट माँगना
नौकरशाही का भ्रष्टाचार
यह सर्वविदित है कि भारत में नौकरशाही का मौजूदा स्वरूप ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की देन है। इसके कारण यह वर्ग आज भी अपने को आम भारतीयों से अलग, उनके ऊपर, उनका शासक और स्वामी समझता है। अपने अधिकारों और सुविधाओं के लिए यह वर्ग जितना सचेष्ट रहता है, आम जनता के हितों, जरूरतों और अपेक्षाओं के प्रति उतना ही उदासीन रहता है।भारत जब गुलाम था, तब महात्मा गांधीने विश्वास जताया था कि आजादी के बाद अपना राज यानी स्वराज्य होगा, लेकिन आज जो हालत है, उसे देख कर कहना पड़ता है कि अपना राज है कहां? उस लोक का तंत्र कहां नजर आता है, जिस लोक ने अपने ही तंत्र की स्थापना की? आज चतुर्दिक अफसरशाही का जाल है। लोकतंत्र की छाती पर सवार यह अफसरशाही हमारे सपनों को चूर-चूर कर रही है।
देश की पराधीनता के दौरान इस नौकरशाही का मुख्य मकसद भारत में ब्रिटिश हुकूमत को अक्षुण्ण रखना और उसे मजबूत करना था। जनता के हित, उसकी जरूरतें और उसकी अपेक्षाएं दूर-दूर तक उसके सरोकारों में नहीं थे। नौकरशाही के शीर्ष स्तर पर इंडियन सिविल सर्विस के अधिकारी थे, जो अधिकांशत: अंग्रेज अफसर होते थे। भारतीय लोग मातहत अधिकारियों और कर्मचारियों के रूप में सरकारी सेवा में भर्ती किए जाते थे, जिन्हें हर हाल में अपने वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारियों के आदेशों का पालन करना होता था। लॉर्ड मैकाले द्वारा तैयार किए गए शिक्षा के मॉडल का उद्देश्य ही अंग्रेजों की हुकूमत को भारत में मजबूत करने और उसे चलाने के लिए ऐसे भारतीय बाबू तैयार करना था, जो खुद अपने देशवासियों का ही शोषण करके ब्रिटेन के हितों का पोषण कर सकें।
स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारत में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के तहत तमाम महत्वपूर्ण बदलाव हुए, लेकिन एक बात जो नहीं बदली, वह थी नौकरशाही की विरासत और उसका चरित्र। कड़े आंतरिक अनुशासन और असंदिग्ध स्वामीभक्ति से युक्त सर्वाधिक प्रतिभाशाली व्यक्तियों का संगठित तंत्र होने के कारण भारत के शीर्ष राजनेताओं ने औपनिवेशिक प्रशासनिक मॉडल को आजादी के बाद भी जारी रखने का निर्णय लिया। इस बार अनुशासन के मानदंड को नौकरशाही का मूल आधार बनाया गया। यही वजह रही कि स्वतंत्र भारत में भले ही भारतीय सिविल सर्विस का नाम बदलकर भारतीय प्रशासनिक सेवा कर दिया गया और प्रशासनिक अधिकारियों को लोक सेवक कहा जाने लगा, लेकिन अपने चाल, चरित्र और स्वभाव में वह सेवा पहले की भांति ही बनी रही। प्रशासनिक अधिकारियों के इस तंत्र को आज भी ‘स्टील फ्रेम ऑफ इंडिया’ कहा जाता है। नौकरशाह मतलब तना हुआ एक पुतला। इसमें अधिकारों की अंतहीन हवा जो भरी है। हमारे लोगों ने ही इस पुतले को ताकतवर बना दिया है। वे इतने गुरूर में होते हैं कि मत पूछिए। वे ऐसा करने का साहस केवल इसलिए कर पाते हैं कि उनके पास अधिकार हैं, जिन्हें हमारे ही विकलांग-से लोकतंत्र ने दिया है।
भारत में अब तक हुए प्रशासनिक सुधार के प्रयासों का कोई कारगर नतीजा नहीं निकल पाया है। वास्तव में नौकरशाहों की मानसिकता में बदलाव लाए जाने की जरूरत है। हालांकि, नौकरशाही पर किताब लिख चुके पूर्व कैबिनेट सचिव टी.एस.आर. सुब्रमण्यम के मुताबिक राजनीतिक नियंत्रण हावी होने के बाद ही नौकरशाही में भ्रष्टाचार आया, अब उनका अपना मत मायने नहीं रखता, सब मंत्रियों और नेताओं के इशारों पर होता है। हमारे राजनीतिज्ञ करना चाहें, तो पांच साल में व्यवस्था को दुरुस्त किया जा सकता है, लेकिन मौजूदा स्थिति उनके लिए अनुकूल है, इसलिए वो बदलाव नहीं करते।
कारपोरेट भ्रष्टाचार
पिछले कुछ वर्षों से भारतएक नए तरह के भ्रष्टाचार का सामना कर रहा है। बड़े घपले-घोटालों के रूप में सामने आया यह भ्रष्टाचार कारपोरेट जगत से जुड़ा हुआ है। यह विडंबना है कि कारपोरेट जगत का भ्रष्टाचार लोकपालके दायरे से बाहर है। देश ने यह अच्छी तरह देखा कि 2जी स्पेक्ट्रम तथा कोयला खदानों के आवंटन में निजी क्षेत्र किस तरह शासन में बैठे कुछ लोगों के साथ मिलकर करोड़ों-अरबों रुपये के वारे-न्यारे करने में सफल रहा।भारत में नेताओं, कारपोरेट जगत के बडे-बड़े उद्योगपति तथा बिल्डरों ने देश की सारी सम्पत्ति पर कब्जा करने के लिए आपस में गठजोड़ कर रखा है। इस गठजोड़ में नौकरशाही के शामिल होने, न्यायपालिका की लचर व्यवस्था तथा भ्रष्ट होने के कारण देश की सारी सम्पदा यह गठजोड़ सुनियोजित रूप से लूटकर अरबपति-खरबपति बन गया है।
यह सच है कि आज भी ऐसे बड़े घराने हैं जो जब चाहें किसी भी सीएम और पीएम के यहां जब चाहें दस्तक दें तो दरवाजे उनके लिए खुल जाते हैं। देश में आदर्श सोसायटी घोटाला, टू जी स्पैक्ट्रम, कामनवैल्थ घोटाला और कोयला आवंटन को लेकर हुआ घोटाला आदि कारपोरेट घोटाले के उदाहरण हैं।
विविध भ्रष्टाचार
- समय-समय पर समाचार आते हैं कि राज्य सभाकी सदस्यता १ करोड़ में खरीदी जा सकती है।
- मंत्रियों, सांसदों, विधायकों की सम्पत्ति एक-दो वर्ष में ही दीन-चार गुनी हो जा रही है।
- समय-समय पर विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षाओं में लाखों रूपए लेकर परीक्षा में नकल कराकर मेरिट सूची में लाने के समाचार आ रहे हैं।
- संसद में प्रश्न पूछने के लिए पैसे लेना
- पैसे लेकर विश्वास-मत का समर्थन करना
- राज्यपालों, मंत्रियों आदि द्वारा विवेकाधिकार का दुरुपयोग
- शिक्षा में भ्रष्टाचार : रूपये लेकर स्कूलों/कॉलेजों में प्रवेश देना, विद्यालयों द्वारा सामूहिक नकल कराना, प्रश्नपत्र आउट करना, पैसे लेकर पास कराना और बहुत अधिक अंक दिलाना, जाली प्रमाणपत्र और मार्कशीट बनाना
- चिकित्सकों का भ्रष्टाचार : आनावश्यक जाँच लिखना, जेनेरिक दवायें न लिखना, भ्रूण की जाँच करना और लिंग परीक्षण करना,
- वकीलों द्वारा भ्रष्टाचार : , फर्जी डिग्री य बिना डिग्री के प्रैक्टिस करना, अपने विरोधी को रहस्य बता देना, तारीख पर तारीख डालना, मुकदमे को कमाई का साधन बना देना
- अवैध गृहनिर्माण (हाउसिंग) :
- बूथ कब्जा करना (booth capturing) :
भ्रष्टाचार और स्विस बैंक
भारतीय गरीब है लेकिन भारत देश कभी गरीब नहीं रहा" - ये कहना है स्विस बैंक के डाइरेक्टर का. स्विस बैंक के डाइरेक्टर ने यह भी कहा है कि भारत का लगभग 280 लाख करोड़ रुपये उनके स्विस बैंक में जमा है। ये रकम इतनी है कि भारत का आने वाले 30 सालों का बजट बिना टैक्स के बनाया जा सकता है।या यूँ कहें कि 60 करोड़ रोजगार के अवसर दिए जा सकते है। या यूँ भी कह सकते है कि भारत के किसी भी गाँव से दिल्ली तक 4 लेन रोड बनाया जा सकता है।
ऐसा भी कह सकते है कि 500 से ज्यादा सामाजिक प्रोजेक्ट पूर्ण किये जा सकते है। ये रकम इतनी ज्यादा है कि अगर हर भारतीय को 2000 रुपये हर महीने भी दिए जाये तो 60 साल तक ख़त्म ना हो. यानी भारत को किसी वर्ल्ड बैंक से लोन लेने कि कोई जरुरत नहीं है। जरा सोचिये ... हमारे भ्रष्ट राजनेताओं और नोकरशाहों ने कैसे देश को लूटा है और ये लूट का सिलसिला अभी तक 2011 तक जारी है।
इस सिलसिले को अब रोकना बहुत ज्यादा जरूरी हो गया है। अंग्रेजो ने हमारे भारत पर करीब 200 सालो तक राज करके करीब 1 लाख करोड़ रुपये लूटा.
मगर आजादी के केवल 64 सालों में हमारे भ्रस्टाचार ने 280 लाख करोड़ लूटा है। एक तरफ 200 साल में 1 लाख करोड़ है और दूसरी तरफ केवल 64 सालों में 280 लाख करोड़ है। यानि हर साल लगभग 4.37 लाख करोड़, या हर महीने करीब 36 हजार करोड़ भारतीय मुद्रा स्विस बैंक में इन भ्रष्ट लोगों द्वारा जमा करवाई गई है।
भारत को किसी वर्ल्ड बैंक के लोन की कोई दरकार नहीं है। सोचो की कितना पैसा हमारे भ्रष्ट राजनेताओं और उच्च अधिकारीयों ने ब्लाक करके रखा हुआ है!
भारत का भ्रष्टाचार बोध सूचकांक
भ्रष्टाचार बोध सूचकांकभी देखें।वर्ष २०१५ में भारत की भ्रष्टाचार रैंकिंग ७६था जो इससे पहले के वर्षों से अच्छा है। २०१४ में यह रैंकिंग ८५था।[9]२०१२ में भारत की भ्रष्टाचार रैंकिंग ९४ थी।[10]
वैज्ञानिक समाधान
भारत में भ्रष्टाचार रोकने के लिए बहुत से कदम उठाने की सलाह दी जाती है। उनमें से कुछ प्रमुख हैं-- सभी कर्मचारियों को वेतन आदि नकद न दिया जाय बल्कि यह पैसा उनके बैंक खाते में डाल दिया जाय.
- कोई अपने बैंक खाते से एक बार में दस हजार तथा एक माह में पचास हजार से अधिक न निकाल पाए. अधिकाधिक लेना-देन इलेक्ट्रोनिक रूप में की जाय.
- बड़े नोटों (१०००, ५०० आदि) का प्रचालन बंद किया जाय.
- जनता के प्रमुख कार्यों को पूरा करने एवं शिकायतों पर कार्यवाही करने के लिए समय सीमा निर्धारित हो. लोकसेवकों द्वारा इसे पूरा न करने पर वे दंड के भागी बने.
- विशेषाधिकारऔर विवेकाधिकार कम किये जाँय या हटा दिए जांय.
- सभी 'लोकसेवक' (मंत्री, सांसद, विधायक, ब्यूरोक्रेट, अधिकारी, कर्मचारी) अपनी संपत्ति की हर वर्ष घोषणा करें.
- भ्रष्टाचार करने वालों के लिए कठोर दंड का प्रावधान किया जाय. भ्रष्टाचार की कमाई को राजसात (सरकार द्वारा जब्त) करने का प्रावधान हो.
- चुनाव सुधार किये जांय और भ्रष्ट तथा अपराधी तत्वों को चुनाव लड़ने पर पाबंदी हो.
- विदेशी बैंकों में जमा भारतीयों का काला धन भारत लाया जाय और उससे सार्वजनिक हित के कार्य किये जांय.
भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष और आन्दोलन
- जयप्रकाश नारायणद्वारा सन १९७४ में सम्पूर्ण क्रान्ति
- विश्वनाथ प्रताप सिंहद्वारा सन १९८९ में आन्दोलन (बोफोर्स काण्डके विरुद्ध)
- स्वामी रामदेवद्वारा विदेशों में जमा काला धनवापस लाने हेतु आन्दोलन (जून २०११)
- अन्ना हजारेद्वारा जनलोकपाल विधेयकपारित कराये जाने हेतु आन्दोलन (अगस्त २०११)
- 500 और 1000 के नोटों की नोटबंदी ( ८ नवम्बर, २०१६)
सन्दर्भ
इन्हे भी देखें
- भ्रष्टाचार बोध सूचकांक
- भ्रष्टाचार (आचरण)
- पारदर्शिता
- केन्द्रीय सतर्कता आयोग
- सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005
- भारत के प्रमुख घोटाले
- इंडिया अगेंस्ट करप्शन
- 500 और 1000 के नोटों की नोटबंदी
बाहरी कड़ियाँ
- केन्द्रीय सतर्कता आयोग, भारत
- केन्द्रीय सूचना आयोग, भारत
- THE PREVENTION OF CORRUPTION ACT, 1988
- ट्रान्स्पैरेन्सी इन्टरनेशनल (Transparency International)
- कर्मयोगकी भ्रष्टाचार विरोधी कडियाँ
- RTI India homepage
- सूचना का अधिकार ब्लाग
- Fight Corruption Now - भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्षरत श्रीमती जे एन जयश्रीका अंग्रेजी ब्लाग
- भ्रष्टाचार पर मारिए मुक्का - आज का मुद्दा
- DoPT– The Department of Personnel and Training, Ministry of Personnel, Public Grievances, and Pensions, is charged with being the nodal agency for the Right to Information Act, 2005. It has the powers to make rules regarding appeals, fees, etc.
- अवश्यकता है भस्मासूरी भ्रष्टाचार को भस्म करने की
- इण्डिया ऐज सुपरपॉवर
- India Corruption score since 1948 (भारतकल्याण)
- भारत में कम हो रहा भ्रष्टाचार, रैंकिंग में हुआ सुधार (२६ जनवरी, २०१७)