प्रस्तुति- स्वामी शरण
पत्रकारिता शायद नहीं बदली, लेकिन तकनीक ने पत्रकारिता करने के तौर-तरीकों में काफी बदलाव ला दिया है.
ये शायद स्वाभाविक भी था क्योंकि तकनीक की वजह से ही समाचारों के साथ लोगों का नाता भी लगातार बदलता रहा है. पहले लोग समाचारों की तलाश में रहते थे लेकिन अब समाचार खुद लोगों को तलाश करके उनके दर तक पहुंचने लगे हैं. उनके बैग में रखा लैपटॉप, टैबलेट हो या फिर जेब में रखा मोबाइल, हर चीज ख़बरें लिए फिरती है.मुझे याद आता है 1989 का लोकसभा चुनाव. राजीव गांधी को चुनौती देते हुए वीपी सिंह भ्रष्टाचार के खिलाफ परिवर्तन की नई लहर पैदा करने का दावा कर रहे थे. मुझे ख़बरें बटोरने के लिए अलग-अलग जगह जाना था. दफ्तर की ओर से मुझे एक टेलीग्राफ कार्ड दिया गया था.
(पढ़िए: मोबाइल इंडियन की अन्य खबरें)
सुविधा यह थी कि मैं ख़बरें लिखने के बाद उस कार्ड के जरिए किसी भी टेलीग्राफ के दफ्तर से बिना भुगतान किए फैक्स कर सकता था. भुगतान बाद में मेरे दफ्तर की ओर से किया जाना था.
उस कार्ड ने तब मेरा जीवन आसान बना दिया था. मैंने 'देशबंधु'अखबार के लिए ढेरों ख़बरें लिखीं और फैक्स से भेजता रहा. किसी पुराने साथी ने कहा कि ये अच्छे दिन आ गए हैं, पहले तो टेलीग्राम भेजना होता था. शब्द गिनकर भुगतान करो.
एक दशक बाद यानी साल 2000 के अंत में जब सहस्त्राब्दी बदल रही थी, मैं कुछ पत्रकारों के साथ अंडमान द्वीप समूह के कछाल द्वीप की ओर यात्रा कर रहा था. वैज्ञानिकों का आकलन था कि भारतीय उपमहाद्वीप में सहस्राब्दी का पहला सूरज उसी टापूनुमा द्वीप से दिखाई देगा. पर्यटन मंत्रालय ने बहुत से कार्यक्रम आयोजित किए थे.
21वीं सदी का पहला सूरज देखा. सरकारी तामझाम देखे. लेकिन अब ख़बरें कैसे भेजें? पोर्ट ब्लेयर पहुंचने तक तो डेडलाइन यानी ख़बरें भेजने का समय खत्म हो जाएगा. हमारे साथ चल रहे एक अधिकारी ने बताया कि जिस जहाज पर हम थे, वहीं से फ़ैक्स किया जा सकता है. और ज़रूरत पड़ने पर फोन भी. हम सभी पत्रकारों ने थोड़े अविश्वास के साथ उस तकनीक का भी प्रयोग किया.
हालांकि, तब तक मोबाइल आ चुका था, लेकिन मुझ जैसे पत्रकारों की पहुंच से यह अब भी बाहर था.
नई तकनीक का कमाल
साल 2005. अफगानिस्तान में संसदीय चुनाव हो रहे थे. मैं अब बीबीसी के लिए काम कर रहा था. अंग्रेजी वेबसाइट के साथी सौतिक बिस्वास के साथ हम काबुल से कोई 70 किलोमीटर दूर असतखेल गांव में थे.न उस गांव में बिजली, न मूलभूत सुविधाएं. लेकिन तैयारी पूरी थी. एक जेनरेटर था, जो हमें बिजली देने वाला था. एक सैटेलाइट डिवाइस था, जो हमें इंटरनेट उपलब्ध करवाने वाला था, दो लैपटॉप थे और हमारे मोबाइल फोन थे. हमने वहां एक स्कूल छात्रा, एक स्कूल टीचर, एक किसान और गृहिणी को इकट्ठा कर रखा था. हमने एक दिन पहले दुनिया भर के बीबीसी के पाठकों को बता दिया था कि हम कल इन सभी लोगों से उनकी सीधी बातचीत करवाएंगे.सवालों का अंबार लगा था. तय समय पर हम 'लाइव'थे. दुनिया भर से लोग अफगानिस्तान के उन नागरिकों से सवाल पूछ रहे थे. बच्ची डॉक्टर बनना चाहती थी और कई लोग उसकी पढ़ाई का खर्च उठाने को तैयार थे. स्कूल टीचर को विदेश यात्राओं के प्रस्ताव मिल रहे थे. लोगों को अफगानिस्तान के जन-जीवन पर अविश्वास था.
मैं अपनी लगभग दो दशक की पत्रकारिता के बाद तकनीक की वजह से पत्रकारिता में हुआ नया परिवर्तन देख रहा था. युद्ध में तबाह एक देश के एक दूरस्थ गांव से दुनिया भर को जोड़े हुए हम काम कर रहे थे.
चलायमान तकनीक
अफगानिस्तान के उस अनुभव की याद अभी बाकी थी. और तकनीक कल्पना से अधिक तेजी से बदल रही थी.बीबीसी हिंदी ने 2010 में एक योजना पर काम शुरू किया. हाइवे हिंदुस्तान. योजना थी कि स्वर्णिम चतुर्भुज पर यात्रा करके देखा जाए कि नई सड़कों ने लोगों के जीवन को किस तरह से प्रभावित किया है.
पांच लोगों की टीम. दो सैटेलाइट डिवाइस. तीन लैपटॉप. एक वीडियो कैमरा, कुछ स्टिल कैमरे. कुछ रेडियो के रिकॉर्डर और दो कारें. ढाई हज़ार किलोमीटर की इस सड़क यात्रा में हमने लंदन और दिल्ली कार्यालय को ढेरों ऑनलाइन स्टोरी भेजीं, तस्वीरें भेजीं, टीवी स्टोरी भेजीं और दर्जनों रेडियो पीस भेजे. जहां ठहरते, वहां उपकरण खुल जाते और घंटे-दो घंटे में सब कुछ प्रकाशन के लिए तैयार.
सब कुछ धराशाई, ख़बरें तैयार
बात यहीं खत्म नहीं हुई. साल 2013 में मैं बीबीसी से 'अमर उजाला'में पहुंच गया. उत्तराखंड में प्रकृति ने तबाही मचा दी. लोगों के पास न सिर छिपाने की जगह थी, न खाने को एक निवाला. सड़कें टूट गई थीं और मकान धराशाई हो चुके थे.क्या हम पत्रकार इसके लिए तैयार हैं?