।। राजेंद्र तिवारी ।।
(कारपोरेट एडीटर, प्रभात खबर)
भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मारकंडेय काटजू के बयानों से पत्रकारिता को लेकर खासकर हिन्दी पट्टी में एक बहस शुरू हो रही है. बहस शुरू होनी चाहिए, लेकिन बहस आब्जेक्टिव होनी चाहिए, सब्जेक्टिव नहीं. दूसरी बात, सालों से पत्रकारिता में एक सवाल और खड़ा किया जाता रहा है कि पत्रकारिता निष्पक्ष (अनबायस) होनी चाहिए.
राजनीतिक ककहरे में कहें तो सूडो सेकुलर (आडवाणी जी वाले अर्थ में नहीं, बल्कि इसके शाब्दिक अर्थ में). अभी जो बहस यहां-वहां चल रही है, वह सूडो सेकुलर है. अनबायस होने की बात से मैं शुरू से असहमत रहा हं. मुझे इस तरह के सवाल पूंजी के हित में की जाने वाली साजिश लगते हैं.
ये उसी साजिश का हिस्सा हैं, जो राजनीति की खबरों में पाठक की अरुचि की स्थापना देकर पत्रकारिता को सत्ता से लाभ उठाने की सीढ़ी बनाती रही हैं. यह कैसे हो सकता है कि जो राजनीति हमारे जीवन का हर पहलू तय करती हो, उसमें हमारी अरुचि हो.
खैर, हम बात कर रहे हैं पत्रकारिता की. पत्रकारिता किसके लिए है और कौन इसका उपभोक्ता है, इस सवाल का जवाब ही बताता है कि पत्रकारिता में जनपक्षधरता होगी ही. जनपक्षधरता की समझ की दित असली समस्या है. इसकी बात कोई नहीं कर रहा. जनपक्षधरता को इतने संकीर्ण तरीके से परिभाषित किया जाता है और उसी पर बहस की जाती है.
यह समस्या है क्यों? क्योंकि हमारे समाज, हमारे देश में कोई ऐसा प्लेटफ़ार्म नहीं जो पत्रकारों का हो, पत्रकारों के लिए हो और जहा सभी संस्थानों के लोग बात कर सकें पत्रकार के तौर पर. जो संगठन प्रेस के नाम पर हैं भी, वे पत्रकारिता की राजनीति तो करते हैं लेकिन पत्रकारीय कौशल, मानदंडों, संहिता आदि के लिए कुछ नहीं करते. यह मामला सिर्फ़ पत्रकांरों की चिंता का विषय नहीं बल्कि समाज की चिंता का विषय भी होना चाहिए.
अपने मित्र आलोक जोशी ने फ़ेसबुक पर एक अच्छी बहस छेड़ रखी है. आलोक जी सीएनबीसी आवाज चैनल के कार्यकारी संपादक हैं. लखनऊ में अमृत प्रभात, नवभारत टाइम्स और फ़िर दिल्ली में आजतक की टीम में थे. वह बीबीसी में काम कर चुके हैं. उन्होंने जो बात फ़ेसबुक पर छेड़ी है, मुझे लगता है कि यह बात आम आदमी यानी पत्रकारिता के उपभोक्ताओं के बीच भी आनी चाहिए. इसी उद्देश्य के साथ आलोक जी की पोस्ट मैं यहा दे रहा हं..
अंग्रेजी या हिन्दी या किसी भी भारतीय भाषा का अखबार या टीवी चैनल, जो किसी विचारधारा का मुखपत्र नहीं है, उसे निकालने वाला कोई न कोई लक्ष्य लेकर ही बाज़ार में उतरता है. लक्ष्य क्या है, ये शायद हर बार साफ़ न दिखे, लेकिन नीयत किस हद तक साफ़ है, यह तो दिख ही जाता है. कम से कम उन पत्रकारों की तो नीयत दिखती ही रहती है, जो उन में काम करते हैं. अब ये हमें और आपको (पत्रकारों को) तय करना है कि वहां काम करना है तो क्यों और क्या.
नौकरी पर रखे जाते समय आप जिन कागज़ों पर दस्तखत करते हैं, उनपर लिखा होता है कि आप संस्थान की नीतियों के तहत ही काम करेंगे. फ़िर ये सवाल क्यों कि पत्रकारों को निरपेक्ष होना चाहिए या नहीं. सभी सुधीजनों से माफ़ी मागते हए स्वर्गीय प्रभाष जोशी को ही कोट करूंगा.
एक बार मैं भी गया था जनसत्ता का टेस्ट देने. एक मैराथन टेस्ट हआ था चंडीगढ़ में. और उसके बाद उन्होंने मुझे इंटरव्यू में बुलाने लायक भी समझ लिया. मिल जाती तो यह मेरी पहली नौकरी होती. भीतर प्रभाष जी, एनके सिंह और व्यास जी (हरिशंकर व्यास) बैठे हए थे. सवाल जो होता है..पत्रकार क्यों बनना चाहते हो? मैंने क्या कहा, याद भी नहीं और प्रासंगिक भी नहीं, कोई फ़ालतू-सा जवाब दिया होगा. लेकिन प्रभाष जी अचानक जैसे मुझे भूल गये.
एनके सिंह और व्यास जी की तरफ़ मुड़े. इसका सबसे अच्छा जवाब क्या है? वे दोनों भी औचक. अब जोशी जी उवाच.. अरे मैं पत्रकार बनने के लिए पत्रकार बनना चाहता हूं. इसके आगे सफ़ाई देने की क्या जरूरत कि मैं क्या-क्या बनने के लिए पत्रकार बनना चाहता हूं? फ़िर माफ़ी चाहता हूं, लेकिन क्या ये प्रोफ़ेशनल पत्रकार बनने की पहली सीढ़ी नहीं है कि वो पत्रकारिता के प्रति हलस कर पत्रकार बना है और पत्रकारिता ही करना चाहता है.
- और अंत में
पिछले हफ्ते भवानी प्रसाद मिश्र का जन्मदिन था. मिश्र को पहली बार मैंने उप्र बोर्ड के कोर्स में पढ़ा था. कविता थी गीतफ़रोश जो इस तरह शुरू होती थी .. जी हा हजूर, मैं गीत बेचता हं. लेकिन यहा मैं उनकी दूसरी कविता प्रस्तुत कर रहा हं. पढ़िए..
- चार कौए
बहत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले,
उन्होंने तय किया कि सारे उड़ने वाले
उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खायें और गायें
वे जिसको त्योहार कहें, सब उसे मनायें
कभी-कभी जादू हो जाता है दुनिया में
दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में
ये औगुनिये चार बड़े सरताज हो गये
इनके नौकर चील, गरुड़ और बाज हो गये
हंस, मोर, चातक, गौरैया किस गिनती में
हाथ बाध कर खड़े हो गये सब विनती में
हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगायें
पीऊ-पीऊ को छोड़ें कौए-कौए गायें
बीस तरह के काम दे दिये गौरैयों को
खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को
कौओं की ऐसी बन आयी पांचों घी में
बड़े-बड़े मनसूबे आये उनके जी में
(कारपोरेट एडीटर, प्रभात खबर)
भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मारकंडेय काटजू के बयानों से पत्रकारिता को लेकर खासकर हिन्दी पट्टी में एक बहस शुरू हो रही है. बहस शुरू होनी चाहिए, लेकिन बहस आब्जेक्टिव होनी चाहिए, सब्जेक्टिव नहीं. दूसरी बात, सालों से पत्रकारिता में एक सवाल और खड़ा किया जाता रहा है कि पत्रकारिता निष्पक्ष (अनबायस) होनी चाहिए.
राजनीतिक ककहरे में कहें तो सूडो सेकुलर (आडवाणी जी वाले अर्थ में नहीं, बल्कि इसके शाब्दिक अर्थ में). अभी जो बहस यहां-वहां चल रही है, वह सूडो सेकुलर है. अनबायस होने की बात से मैं शुरू से असहमत रहा हं. मुझे इस तरह के सवाल पूंजी के हित में की जाने वाली साजिश लगते हैं.
ये उसी साजिश का हिस्सा हैं, जो राजनीति की खबरों में पाठक की अरुचि की स्थापना देकर पत्रकारिता को सत्ता से लाभ उठाने की सीढ़ी बनाती रही हैं. यह कैसे हो सकता है कि जो राजनीति हमारे जीवन का हर पहलू तय करती हो, उसमें हमारी अरुचि हो.
खैर, हम बात कर रहे हैं पत्रकारिता की. पत्रकारिता किसके लिए है और कौन इसका उपभोक्ता है, इस सवाल का जवाब ही बताता है कि पत्रकारिता में जनपक्षधरता होगी ही. जनपक्षधरता की समझ की दित असली समस्या है. इसकी बात कोई नहीं कर रहा. जनपक्षधरता को इतने संकीर्ण तरीके से परिभाषित किया जाता है और उसी पर बहस की जाती है.
यह समस्या है क्यों? क्योंकि हमारे समाज, हमारे देश में कोई ऐसा प्लेटफ़ार्म नहीं जो पत्रकारों का हो, पत्रकारों के लिए हो और जहा सभी संस्थानों के लोग बात कर सकें पत्रकार के तौर पर. जो संगठन प्रेस के नाम पर हैं भी, वे पत्रकारिता की राजनीति तो करते हैं लेकिन पत्रकारीय कौशल, मानदंडों, संहिता आदि के लिए कुछ नहीं करते. यह मामला सिर्फ़ पत्रकांरों की चिंता का विषय नहीं बल्कि समाज की चिंता का विषय भी होना चाहिए.
अपने मित्र आलोक जोशी ने फ़ेसबुक पर एक अच्छी बहस छेड़ रखी है. आलोक जी सीएनबीसी आवाज चैनल के कार्यकारी संपादक हैं. लखनऊ में अमृत प्रभात, नवभारत टाइम्स और फ़िर दिल्ली में आजतक की टीम में थे. वह बीबीसी में काम कर चुके हैं. उन्होंने जो बात फ़ेसबुक पर छेड़ी है, मुझे लगता है कि यह बात आम आदमी यानी पत्रकारिता के उपभोक्ताओं के बीच भी आनी चाहिए. इसी उद्देश्य के साथ आलोक जी की पोस्ट मैं यहा दे रहा हं..
अंग्रेजी या हिन्दी या किसी भी भारतीय भाषा का अखबार या टीवी चैनल, जो किसी विचारधारा का मुखपत्र नहीं है, उसे निकालने वाला कोई न कोई लक्ष्य लेकर ही बाज़ार में उतरता है. लक्ष्य क्या है, ये शायद हर बार साफ़ न दिखे, लेकिन नीयत किस हद तक साफ़ है, यह तो दिख ही जाता है. कम से कम उन पत्रकारों की तो नीयत दिखती ही रहती है, जो उन में काम करते हैं. अब ये हमें और आपको (पत्रकारों को) तय करना है कि वहां काम करना है तो क्यों और क्या.
नौकरी पर रखे जाते समय आप जिन कागज़ों पर दस्तखत करते हैं, उनपर लिखा होता है कि आप संस्थान की नीतियों के तहत ही काम करेंगे. फ़िर ये सवाल क्यों कि पत्रकारों को निरपेक्ष होना चाहिए या नहीं. सभी सुधीजनों से माफ़ी मागते हए स्वर्गीय प्रभाष जोशी को ही कोट करूंगा.
एक बार मैं भी गया था जनसत्ता का टेस्ट देने. एक मैराथन टेस्ट हआ था चंडीगढ़ में. और उसके बाद उन्होंने मुझे इंटरव्यू में बुलाने लायक भी समझ लिया. मिल जाती तो यह मेरी पहली नौकरी होती. भीतर प्रभाष जी, एनके सिंह और व्यास जी (हरिशंकर व्यास) बैठे हए थे. सवाल जो होता है..पत्रकार क्यों बनना चाहते हो? मैंने क्या कहा, याद भी नहीं और प्रासंगिक भी नहीं, कोई फ़ालतू-सा जवाब दिया होगा. लेकिन प्रभाष जी अचानक जैसे मुझे भूल गये.
एनके सिंह और व्यास जी की तरफ़ मुड़े. इसका सबसे अच्छा जवाब क्या है? वे दोनों भी औचक. अब जोशी जी उवाच.. अरे मैं पत्रकार बनने के लिए पत्रकार बनना चाहता हूं. इसके आगे सफ़ाई देने की क्या जरूरत कि मैं क्या-क्या बनने के लिए पत्रकार बनना चाहता हूं? फ़िर माफ़ी चाहता हूं, लेकिन क्या ये प्रोफ़ेशनल पत्रकार बनने की पहली सीढ़ी नहीं है कि वो पत्रकारिता के प्रति हलस कर पत्रकार बना है और पत्रकारिता ही करना चाहता है.
- और अंत में
पिछले हफ्ते भवानी प्रसाद मिश्र का जन्मदिन था. मिश्र को पहली बार मैंने उप्र बोर्ड के कोर्स में पढ़ा था. कविता थी गीतफ़रोश जो इस तरह शुरू होती थी .. जी हा हजूर, मैं गीत बेचता हं. लेकिन यहा मैं उनकी दूसरी कविता प्रस्तुत कर रहा हं. पढ़िए..
- चार कौए
बहत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले,
उन्होंने तय किया कि सारे उड़ने वाले
उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खायें और गायें
वे जिसको त्योहार कहें, सब उसे मनायें
कभी-कभी जादू हो जाता है दुनिया में
दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में
ये औगुनिये चार बड़े सरताज हो गये
इनके नौकर चील, गरुड़ और बाज हो गये
हंस, मोर, चातक, गौरैया किस गिनती में
हाथ बाध कर खड़े हो गये सब विनती में
हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगायें
पीऊ-पीऊ को छोड़ें कौए-कौए गायें
बीस तरह के काम दे दिये गौरैयों को
खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को
कौओं की ऐसी बन आयी पांचों घी में
बड़े-बड़े मनसूबे आये उनके जी में