सुभाष चंदर भाई को सप्रेम स्मरण करते-करते।
लेखक के भुगतान का इतिहसवे खराब है
सन् 1010 से आज 2020 आ गया लेकिन कुछ नहीं बदला. वह सन 1010 था जब महमूद गज़नवी ने तय किया कि वह फिरदौसी के 'शाहनामा'के हर शब्द के लिए एक दीनार देगा. ठीक ठाक पेमेंट था. बादशाह ने तय किया था. खैर, बाद में यह हर शब्द पर एक दीनार की बात हर शेर पर आ कर ठहरी. शायद सचिवों ने समझाया होगा.
किस्सा कोताह, शाहनामा लिखा जाने लगा. अब अधिकारियों ने बताया कि बादशाह ने कहा है कि भुगतान पूरा लिखने के बाद ही होगा. हालांकि बादशाह के पास यह सब करने का कहां समय रहा होगा. खैर, संभव है कि फिरदौसी के पास भी कोई दूसरा असाइनमेंट न रहा हो.
तीस बरसों की मेहनत के बाद 6000 शेरों वाला 'शाहनामा'तैयार हुआ. बात भुगतान की आई तो प्रत्येक शब्द के लिए एक दीनार से जो बात हर शेर पर आयी थी वह यहां तक पहुंची कि एकाउंट डिपार्ट्मेंट ने हर एक शेर के लिये एक दीनार के बदले एक दिरहम के हिसाब से भुगतान करा दिया. यह कुछ ऐसा था जैसे प्रति शब्द एक रुपये देने का वचन देकर प्रति दोहा एक पैसा दे दिया जाये.
फिरदौसी भी लेखक था, तिस पर कवि ठहरा, उसने एक दिरहम भी नहीं लिया. फिरदौसी ने गुस्से में महमूद गज़नबी के खिलाफ़ आठ लाइनें लिखीं. जनता में कुछ ऐसे भी थे जो पलटन गद्दी वाले भक्त नहीं थे. उन्होंने इसे नारा बना दिया. एकाध मंत्रियों ने बादशाह से कहा कि हटाइये, फिरदौसी का भुगतान उसी के रेट से उसी के मुंह पर मार कर सुर्खरू हूजिये, बेकार ही लोगों को ऐसी आठ लाइनां सुनने को मिल रही हैं जिससे शर्म आती है.
नोट करने वाली बात यह कि तब कुछ शर्मदार मंत्री भी हुआ करते थे. वे समय समय पर शर्मशार भी होते थे. सम्राट को क्या था, यह तो अधिकारियों, कलर्कों का फैलाया रायता था. महमूद गज़नवी ने ताकीद कर दी कि फिरदौसी को न सिर्फ उस के उस के रेट से भुगतान कर दिया जाये, बल्कि उसे भुगतान पहुंचा दिया जाये. ताकि लोग लोग देखें कि हम लेखक को कितना भुगतान करते हैं. न्याय होने से ज्यादा ज़रूरी उसका दिखना है.
कहते हैं कि दीनारों से भरी गाड़ी जब फिरदौसी के घर पहुंची तो घर के अंदर से फिरदौसी का जनाज़ा निकल रहा था. जैसा कि दरबारी लेखको के अलावा लेखकों के साथ अमूमन होता था, पूरी उम्र गरीबी, तंगदस्ती, ग़ुरबत , मुफ़लिसी में गुजारने के बाद फिरदौसी गुजर चुका था.
. कहते हैं कि फिरदौसी एक बेटी भी थी, उसने भी यह दीनारों का ठेला अपने वहां अनलोड कराने से मना कर दिया. इस तरह बादशाह कवि का ताउम्र कर्जदार कर्जदार रहा, आज भी है. लेखक को इसी बात का बहुत घमंड है और बादशाहों को अपनी परंपरा पर.
(लॉकडाउन में शाहनामा का उल्था टाइप तर्जुमा पढते हुये आया ख्याल)