अज्ञेय की पत्रकारिता आलोक पांडेय |
व्यक्तित्व उनका सौम्य था। विषय मेरा रूखा सा है। शुरुआत उन्हें चाहने वालों को थोड़ी रूमानी लग सकती है। पर मैं भी क्या करूँ, जब भी मैं अज्ञेय के बारे में या हिंदी साहित्य की पठनीयता के मुद्दे पर सोचना शुरू करता हूँ तो सबसे पहले अज्ञेय याद आ जाते हैं। वृद्ध अज्ञेय, इस वृद्ध अज्ञेय के पीछे और भी कदमों के निशान हैं। मेरे गुरु और वामपंथी मैनेजर पांडेय तक के। मजेदार बात है कि इस दुख ने दोनों को समान रूप से सताया है। दोनों यानी वामपंथी और अवामपंथी। दुख क्या है? आइए सुनते हैं। पहले अज्ञेय। भारत भवन, भोपाल के विश्व कविता सम्मेलन में 76 वर्षीय अज्ञेय ने दुखी मन से कहा था, 'आप मेरा नाम काटना चाहते हैं, काट दें पर जो मैंने लिखा है, एक बार पढ़ तो लें।' (पृष्ठ 14, संपादकीय, दस्तावेज, अप्रैल-जुलाई 1987) यह उनका अंतिम सार्वजनिक व्याख्यान था। इतने बड़े लेखक को अंत में यह भी कहना पड़ता है, यह हिंदी की दुनिया का एक कड़वा सच है। यहाँ विरोध का भी एक फैशन है। यदि ऐसा नहीं है और कोई प्रति तर्क देते हुए उन्हें प्रतिगामी विचारधारा का मानते हुए पढ़ने से ही इनकार का कुतर्क दे तो फिर आप क्या कहेंगे। चलिए मान लिया कि अज्ञेय प्रतिगामी हैं, पर मैनेजर पांडेय? उन्हीं के शब्दों में, 'पिछले साल साहित्य के समाजशास्त्र पर मेरी किताब आई और यह किताब इस उद्देश्य से मैंने लिखी थी कि साहित्य के समाजशास्त्र की कुछ समस्याओं पर हिंदी में बहस हो, कुछ बात आगे बढ़े पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। हिंदी में वैचारिक बहसों का जो हाल है उसका एक प्रमाण यह भी है, मैं यह नहीं कहता कि, किताब में जो कुछ लिखा गया, वह सही ही है, उस पर बहस हो सकती है, उसका खंडन किया जा सकता है, उसके विकल्प के रूप में कोई दूसरी बातें रख सकता है, पर कुछ भी तभी होगा जब ऐसे मुद्दों पर बातचीत हो' (पृष्ठ 72, मेरे साक्षात्कार, मैनेजर पांडेय, किताबघर) देखा जाए तो पांडेय जी हों या अज्ञेय दोनों एक ही बात कह रहे हैं। ऐसी राय रखने वाले और भी बहुत लोग हैं, पांडेय जी की ही याद इसलिए भी आई कि न सिर्फ वे वरिष्ठ और शीर्ष प्रगतिशील आलोचकों में से एक हैं। बल्कि वैचारिक पक्षधरता के बावजूद वही हैं जो मानते हैं कि 'कविता यदि अच्छी है तो वह जनवादी ही होगी।' (पृ. 55, मेरे साक्षात्कार, मैनेजर पांडेय, किताबघर) और वही हैं जो विरोधी विचारधारा के कवि अज्ञेय की विभाजन संबंधी कविताओं के महत्व से हिंदी समाज को पहली बार परिचित कराते हैं, पर हिंदी की इस दुनिया में कितने पाठक और आलोचक ऐसे हैं, यहाँ तो बिना पढ़े ही विचारधारा के नाम पर कूड़ेदान में फेंक देने की कुछ आदत सी है। यहीं से बात शुरू करने की एक और वजह है, वह यह कि प्रस्तुत विषय पर लिखने के सिलसिले में जब मैंने अज्ञेय की पत्रकारीता पर सहायक सामग्रियों की तलाश शुरू की तो निराश हो गया। उनकी पत्रकारिता पर एक किताब न मिली और न ही एक ढंग का लेख, और तो और साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित, रमेश चंद्र शाह लिखित मोनोग्राफ तक में उनकी पत्रकारिता पर पाँच वाक्य तक नहीं हैं। रमेश जी न सिर्फ बड़े और गंभीर रचनाकार हैं बल्कि अज्ञेय के प्रिय भी। फोन पर अपना यह दुख जब मैंने उनसे जाहिर किया तो उन्होंने बताया कि मोनोग्राफ की सीमित काया के नाते वे अज्ञेय की पत्रकारिता पर लिख न सके। हालाँकि मैं अब भी यह मानने को तैयार नहीं हूँ कि 3-4 पेज के लिए कोई उनका हाथ पकड़ लेता। खैर उनसे यह जानकर प्रसन्न हुआ कि माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के अनुरोध पर अज्ञेय की पत्रकारिता पर एक सीरीज के तहत उन्होंने हाल ही में एक किताब लिखी है। पर देखें कि यह हिंदी की तसवीर है जहाँ इतने वर्षों तक सामान्य और साहित्यिक पत्रकारिता करने वाला एक बड़ा रचनाकार उपेक्षित पड़ा है। अज्ञेय का दुखी होना गलत नहीं था, क्योंकि वे यह नहीं कह रहे थे कि मुझे पढ़ो और मेरे नाम के झंडे गाड़ो। वे सिर्फ यही चाहते थे कि आप उन्हें पढ़ लें फिर गाली दें। जो आदमी खुद कहता है कि 'कसौटी की भी कसौटी होती रहनी चाहीए, जो खरी कसौटी पर खरा है वही मूल्यवान है।' (पृ. 16, संपादकीय, पुनस्तत्रेव वैतालः अज्ञेय, नया प्रतीक, दिसंबर, 1973) वह नकली तारीफ नहीं चाहेगा। क्या यह उपेक्षा भी पहली उपेक्षा का ही विस्तार नहीं है, जैसी स्थिति है उसमें यह असंभव भी नहीं है। आशंकाओं और प्रश्नाकुलता की हल्की से धुंध से घिरे इस परिदृश्य से आइए बाहर निकलें और अपनी नजर से देखें कि अज्ञेय का पत्रकार कर्म कैसा है। कितना मोहनीय है और कितना उपेक्षणीय, पर हम किस कसौटी पर देखें। आलोचना या आलोचक की कसौटी पर, स्वयं अज्ञेय की कसौटी पर या फिर सच की कसौटी पर। पर सच की कसौटी क्या है? मेरे मानना है कि तेरी कसौटी और मेरी कसौटी के बीच में कहीं सच की कसौटी होती है और यह कसौटी लोक के हाथ में होती है। लोक जिसका सबसे बड़ा मूल्य मानव धर्म और जीवन धर्म होता है। मैं इन तीनों पर ही बारी-बारी अज्ञेय के पत्रकार -कर्म को रखने का विनम्र प्रयास करूँगा। विनम्र इसलिए कि कसौटियाँ भी बड़ी हैं और उन पर रखा जाने वाला कर्म भी। बस मेरे हाथ छोटे हैं। इससे पहले कि मैं कसौटियों की तलाश करूँ। बेहतर होगा कि संक्षेप में यह देख लिया जाए कि अज्ञेय की पत्रकारिता यात्रा कैसी रही है। इस यात्रा के सारे विवरण उपलब्ध नहीं हैं। क्यों नहीं हैं? यह भी सवाल ही है, पर जो मील के पत्थर मिलते हैं उनसे पता चलता है कि अज्ञेय ने असम के मोर्चों पर विश्व-युद्ध के समय, जब वह अंग्रेजी सेना में कार्यरत थे, एक पत्र असमिया-रोमन में निकाला था। उसके बाद सैनिक साप्ताहिक, विशाल भारत, आरती, प्रतीक द्वैमासिक, प्रतीक त्रैमासिक, थाट (8 साहित्यिक पृष्ठों का), त्रैमासिक वाक्, संसदीय हिंदी परिषद की त्रैमासिक पत्रिका देवनागर, नया प्रतीक, मैनकाइंड, दिनमान और नवभारत टाइम्स आदि का संपादन किया। यह अवधि लगभग चालीस वर्षों की है। कालावधि कम नहीं है और न ही कार्य की मात्रा। इस विपुल कार्य की गुणवत्ता और मूल्यवत्ता कैसी है। अब हम यह देखने का प्रयास करेंगे और यह भी जानने-समझने की कोशिश करेंगे कि अज्ञेय का यह कैसा व्यक्तित्व है जो विरोधी दिखते या दो छोरों पर खड़े पत्रकार कर्म को कैसे और क्यों साधता है। अब कसौटियों की जरूरत है। सबसे पहले मैं दो साहित्यकारों-पत्रकारों की अज्ञेय के पत्रकार कर्म पर राय रखता हूँ। इसी में आलोचकों की कसौटियाँ भी छिपी होंगी। सबसे पहले प्रभाकर माचवे, 'उनके (अज्ञेय) हिमायतियों और उन्हें हिकारत से दिखने वाले सभी से एक बात की प्रशंसा सदा सुनी कि अज्ञेय एक कुशल संपादक रहे हैं ...मैंने वात्स्यायन जी की अद्भुत जीवट्, सहिष्णुता, कठिन परिश्रम करने की आदत, आत्म नियमन और भाषा के विषय में साग्रह अनुशासनबद्धता का बड़े समीप से परिचय पाया ...एक-एक लेख मनोनुकूल जुटाने में वे बड़ा परिश्रम करते। संपादक के नाते वे निम्न बातों का ध्यान रखते थे जो शायद महावीर प्रसाद द्विवेदी के बाद बहुत कम संपादकों ने रखे हैं।' (पृ. 235, संपादक अज्ञेय, प्रभाकर माचवे, अज्ञेय, स. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी) इसके बाद माचवे जी उन गुणों की एक सूची प्रस्तुत करते हैं जो इस प्रकार हैं '1. प्रत्येक अंक में सामग्री की विविधता के साथ चमत्कार पैदा करना, स्तर बनाए रखना। 2. मित्रों के भी लेख या रचनाएँ बेमुरौव्वत लौटाना। 3. नए-नए लेखकों से लिखवाना, उन्हें प्रोत्साहित करना। 4. एक-दो कालम स्वयं लिखना, छद्म नाम से गोपन रूप से ही सही पर वह सर्वथा अनूठे रखना। 5. लेखानुकुल सजावट, रेखाचित्र कवर, फोटो आदि में वैभिन्य का ध्यान रखना।' (वही) माचवे जी अपनी बात समाप्त करते हुए कहते हैं कि, 'अज्ञेय हिंदी के सर्वाधिक आधुनिक ज्ञान-विज्ञान युक्त, सुसंस्कारशील, अनेक भाषाविद, वेल इक्टिव संपादक हैं। हिंदी में इतनी प्रामाणिकता, सूझ-बूझ और परिश्रम के साथ-साथ सौंदर्य-संस्कारयुक्त बहुत कम संपादक हैं। (पृ. 239, शेष वही) यह थे प्रभाकर माचवे। आइए अब रघुवीर सहाय की सुनते हैं। प्रगतिशील रघुवीर सहाय परंपरावादी कहलाने वाले अज्ञेय के बारे में आइए देखें क्या कह रहे हैं। 'अज्ञेय एक ऐसे भारतीय साहित्यकार का नाम है जिसके लेखन की भाषा हिंदी थी, परंतु अनुभव की भाषा मानवीयता और भारतीयता थी। उनका नाम बीसवीं शताब्दी के भारत की मर्यादाएँ स्थापित करने वाले इतिहास निर्माताओं की सूची में अमर रहेगा। उनके कार्य का क्षेत्र साहित्य माना जाएगा। परंतु साहित्य की बड़ी सतही समझ रखने वाले ही कहेंगे कि वह निरे साहित्यकार थे। सभ्यता और संस्कृति की खोज और उसकी निरंतर पहचान वात्स्यायन जी की चिंता थी, साहित्य उनकी इस खोज का माध्यम था और समाज निर्माण के जो साधन मनुष्य ने विकसित किए हैं उनमें से एक को अर्थात भाषा को उन्होंने अपना केंद्रीय साधन चुना था।' (पृ. 228, अज्ञेय - ऊर्जा का प्रवाह और खोजने की चुनौती थे, रघुवीर सहाय, आजकल, स्वर्ण जयंती अंक,1994) यह तो बात हुई रचनाकार अज्ञेय के बारे में। जब पत्रकार अज्ञेय के बारे में सहाय जी को सुनते हैं, 'अत्यंत विश्वास और आत्मीयता से उन्होंने प्रारंभिक साहित्यिक जीवन में ही मुझे सहायक संपादक बनाकर प्रतीक में स्थान में दिया था। आकाशवाणी में उनके साथ भाषा संबंधी सुधार के प्रयत्नों में हाथ बँटाने से लेकर दिनमान में उनके उत्तराधिकारी का पद सँभालने तक वे मेरे संबल रहे। वह सिखाने और सिखाकर स्वतंत्र करने वाले अपूर्व गुरु, सहयोगी, सखा और मित्र थे। ऐसे पुरुष बिरले ही होते हैं।' (पृ. 229, शेष वही) आप कह सकते हैं कि यहाँ अज्ञेय की पत्रकारिता के बारे में कहाँ कुछ है, जो रघुवीर सहाय को पत्रकारिता के कौशल के बारे में कुछ कहने को बचता है। प्रतीक रूप में हिंदी की दुनिया से ये दो महत्वपूर्ण लोग थे जो अज्ञेय की पत्रकारिता के बारे में अपने विचार प्रकट कर रहे थे। कहा जा सकता है कि मैंने चुनकर दो प्रशंसात्मक टिप्पणियाँ ही यहाँ दी हैं तो मैं पुनः निवेदन करूँ कि जैसा प्रभाकर माचवे ने शुरू में कहा था कि उनके विरोधी भी उनकी पत्रकारिता की प्रशंसा करते हैं इसलिए मुझे भी उनके पत्रकार रूप के खिलाफ कहीं कुछ न मिला। कमी मेरी खोज में भी हो सकती है और उनके चाहने वालों की उस प्रवृत्ति में भी कि पढ़ने या फिर उन पर लिखने की जरूरत ही क्या है। खैर इन दो गुणीजनों के बाद और उनसे मिली कसौटियों के बाद अब स्वयं अज्ञेय से मिलते है और देखते है कि हिंदी की दोनों, साहित्यिक और सामान्य पत्रकारिता के बारे में, उसकी भाषा के बारे में, पत्रकारों के बारे में और इन सारे बिंदुओं पर खुद अपने बारे में उनके विचार क्या हैं, उनके विचारों को जान लेने के बाद हमारे पास दोनों तरह के प्रतिमान होंगे। एक, उनके लिए दूसरों के बनाए हुए दो, उनके खुद के बनाए हुए। इन दोनों पर हम उनके पत्रकार को रखकर देखेंगे। अज्ञेय जानते हैं कि विचारधारा को लेकर वे लगातार घिरे हुए हैं। इसलिए वे जहाँ कहीं अवसर पाते हैं अपनी पक्षधरता स्पष्ट करते चलते हैं। वे कहते हैं, 'मैं अपने को साहित्य के प्रति मानता हूँ।' (पृ. 90, हिंदी पाठक के नाम, अज्ञेय, आत्मपरक) इस स्पष्टीकरण के बाद वे अपने लेखन और संपादन की सार्थकता के बारे में कहते हैं, 'बरसों से आप (पाठकों) के लिए लिखता आया हूँ और दूसरों का लिखा भी नाना प्रकार से आप के सम्मुख लाता रहा हूँ, और मानता रहा हूँ कि यह परिश्रम व्यर्थ नहीं है। असमय नहीं है और अपात्र नहीं है।' (पृ. 91, शेष वही) भाषा के बारे में उनके विचार स्पष्ट हैं, 'मैं उन व्यक्तियों में से हूँ जो भाषा का सम्मान करते है और अच्छी भाषा को अपने आप में एक सिद्धि मानते हैं,' (पृ. 160, जो लिख न सका, अज्ञेय, आत्मपरक) पत्रिकाओं के बारे में भी उनकी मान्यता साफ है। साहित्यिक पत्रिकाओं के महत्व को रेखांकित करते हुए वे लिखते हैं, 'पत्रिकाओं का स्थानापन्न कोई और नहीं है। क्योंकि वे उन समकालीन साहित्यिक प्रवृत्तियों को प्रतिबिंबित करती हैं जो अन्यथा ओझल ही रहतीं। इसके अलावा वे स्वाधीन चेता, रुचि विरोधी लेखकों को अपनी बात कहने का अवसर देती हैं। संक्षेप में कहूँ तो पत्र-पत्रिकाएँ साहित्यिक चेतना की मुक्त अभिव्यक्ति का साधन हैं।' (पृ. 83, पत्र साहित्य और पुस्तक साहित्य, अज्ञेय, आत्मपरक) आज जो समस्या विकराल हो चुकी है वह उनके जमाने में भी थी पर इतनी नहीं थी। वह समस्या है हिंदी पत्रकारिता के दोयम दर्जे का होने की। मुख्यतः हिंदी की सामान्य पत्रिकाएँ और समाचार पत्र, दोयमपन जो उनकी सामग्री की स्तरीयता से लेकर पृष्ठों की संख्या से होते हुए भाषा तक में फैली हुई है। अज्ञेय इस स्थिति को ठीक से समझते हैं। वे कहते हैं, 'जो पूँजी, प्रतिभा, प्रोत्साहन और विज्ञापन भारतीय भाषाओं के पत्रों को मिलना चाहिए वह सबका सब पहले ही अंग्रेजी को दिया जा चुका है। भारतीय भाषाओं के पत्रों को अंग्रेजी की उतरन छोड़कर और कुछ दिया नही!' (पृ. 225, सर्जक का काम कूड़ेदान उलटना नहीं है, अज्ञेय, आजकल, स्वर्ण जयंती अंक 1984) उपर्युक्त पंक्तियों में जैसे उन्होंने सब कुछ कह दिया है। अब देखना यह है कि बीमारी के कारणों को जानने वाले अज्ञेय कैसे वह चमक पैदा करते हैं जो उन्हें हिंदी पत्रों में नहीं दिखती, अपने पत्रकार खासकर सामान्य पत्रकार रूप पर वे कहते हैं, 'मैं सहज प्रवृत्ति से पत्रकार नहीं हूँ, इसलिए दैनिक पत्र के संपादन में मुझ पर कुछ अधिक जोर पड़ता है।' (वहीं) यह बात उन दिनों की है जब वे नव भारत टाइम्स के संपादक थे। अंत में उनका एक वक्तव्य देखें तो उनके लेखकीय, पत्रकारीय और संपादकीय आदि सभी उद्देश्य की घोषणा करता है, 'यह मेरा सहज विवेक मुझे आश्वस्त करता है कि ये मूल्य उस पूरे समाज के जीवन को अधिक गहरा, समर्थ और अर्थवान बना सकते हैं' (पृ. 376, साहित्यकार और सामाजिक प्रतिबद्धता, अज्ञेय, सर्जना और संदर्भ) तो हमारे पास अब दो प्रकार के प्रतिमान हैं। आइए अब इन पर अज्ञेय कि पत्रकारिता को रखकर देखें, उनके विपुल पत्रकार कर्म को इस लेख की सीमित काया में समेटना संभव नहीं है। इसलिए मैं अपने विवेक से दिनमान और नया प्रतीक को सामने रखते हुए विचार करना चाहूँगा, दिनमान में उनकी सामान्य पत्रकारिता का सर्वश्रेष्ठ रूप प्रकट है और नया प्रतीक में उनकी साहित्यिक पत्रकारिता का। मैं सामान्य पत्रकारिता के लिए असाहित्यिक पत्रकारिता को शब्द का प्रयोग जान बूझ कर नहीं कर रहा हूँ क्योंकि कोई कैसे दिनमान की पत्रकारिता को असाहित्यिक कह सकता हैं। साहित्यिक संस्पर्श ही उसे वह अद्धितीयता देता है जिसके लिए वह हमारी स्मृति में है। सबसे पहले दिनमान, दिनमान नाम अज्ञेय का ही दिया हुआ है। अभिधा में देखें तो इसका अर्थ हुआ सूर्य और व्यंजना में देखें तो इसका तात्पर्य है दिन का मान यानी गौरव। अपने समय का गौरव, 1965 में बेनट एंड कोलमन से प्रकाशित यह पत्रिका साहू जैन का सामना थी। टाइम और न्यूजवीक का भारतीय रूप, 65 से 69 तक अज्ञेय इस सपने में रंग भरते रहे और साहित्यकार-पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी को भविष्य के लिए तैयार भी करते रहे, जिनके लिए आज भी यह कहना मुश्किल है कि वे लोग पत्रकार अच्छे हैं या साहित्यकार, दिनमान थी तो राजनीतिक समाचार पत्रिका पर उसमें कहीं कोई कोना ऐसा नहीं मिलेगा जहाँ से साहित्य की सुगंध न आती हो, उनके उत्तराधिकारी और दिनमान के सबसे ऊर्जस्वी और दीर्घकालिक संपादक रघुवीर सहाय अज्ञेय के संपादन पर कहते हैं, 'वात्स्यायन जी ने जो नींव डाली थी वह मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण थी।' (पृ. 200, रघुवीर सहाय, स. विष्णु नागर, असद जैदी) यही वह नींव है जिस पर दिनमान खड़ा हुआ है। 'राष्ट्रभाषा में राष्ट्र का आह्वान'करने वाले दिनमान की चेतना, स्वरूप, भाषा, विषय लगभग सब कुछ अज्ञेय की उसी सोच, समझ और परिश्रम के परिणाम थे, जिनके बारे में उन्हें पीछे उद्धृत किया गया है। राम मनोहर लोहिया जैसे चिंतक-राजनेता संपादक को पत्र लिखते थे। 65 की फरवरी के अंक में'देखू और लेखू'शीर्षक के पत्र के स्तंभ में प्रकाशित पत्र में लोहिया लिखते है, 'मैं तो इतना सब इसलिए लिख गया कि एक असंभव स्थिति में भी आप से आशा थी।'संपादक अज्ञेय टिप्पणी करते हैं 'या तो स्थिति असंभव नहीं है या आशा नहीं हो सकती... दिनमान देसी भाषा देशी चिंतन करेगा, न हिंदुस्तान कि नासमझ पूजा और न हिंदुस्तान की किसी भी भाषा का कम समझ मलीदा।'अज्ञेय संपादित पहला अंक हो या अंतिम अंक या उनके उत्तराधिकारी रघुवीर सहाय के लंबे संपादन काल का कोई भी अंक, ये सभी अज्ञेय की इस बात की हामी भरते हैं। अज्ञेय ने दिनमान में जो किया रघुवीर सहाय उसका लगभग अस्सी प्रतिशत अपनाए रहे। शेष बीस प्रतिशत उनका अपना था, पर यह अस्सी हो या शेष बीस सभी दिनमान की मूल भावना से सदैव जुड़े रहे, क्या नहीं था जो अज्ञेय ने दिनमान में नहीं किया, पाठकों को प्रश्न चर्चाओं के माध्यम से अपने और परिवेश के साथ जोड़ते कि मुहिम हो या जीवन और जगत के किसी भी मूल्यवान पक्ष को समेट कर पाठकों तक पहुँचाने की बेचैनी, दिनमान ने पत्रकारिता की दुनिया में जो प्रतिमान स्थापित किए, वह आज भी बहुतों की स्मृति में ताजा हैं। संग्रहालयों की आवश्यकता और स्थिति पर लेख हो या सड़क पर चल रही कला प्रदर्शनी की रपट, खेती, किसानों की समस्याएँ हो या अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का आँखों देखा हाल, गांधी मूर्तियों की दुर्दशा का वर्णन हो या स्कूलों में होने वाली प्रार्थनाओं की समीक्षा, दिनमान ने एक ऐसी पत्रकारिता को जन्म दिया जिसे पढ़ने के लिए लोग प्रतीक्षा करते थे। मीलों साइकिल चलाकर खरीदने जाते थे। उसमें किसी का पत्र भी छप जाता था तो वह अपने समुदाय में साहित्यकार माना जाने लगता था। रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, मनोहर श्याम जोशी और प्रयाग शुक्ल जैसे अनेक महत्वपूर्ण लोग हैं जो अपने होने और बनने में दिनमान के ऋण स्वीकारी हैं पर ऐसे भी लोगों की संख्या सैकड़ों में है जिनके नाम हम नहीं जानते पर वे अपने साहित्यिक और पत्रकारीय गुणों का श्रेय दिनमान को देते हैं। विज्ञान से लेकर सिनेमा और राजनीति से लेकर साहित्य तक विस्तृत दिनमान की दुनिया में विषयगत विविधता लोकप्रियता या पठनीयता के नाते किसी किस्म का हल्कापन पैदा करती हो, ऐसा कतई नहीं था। उसमें गंभीर वैचारिकता तो थी पर पांडित्य प्रदर्शन नहीं था, चमत्कृत कर देने वाली सर्जनात्मक भाषा तो थी पर भाषा का मदारीपन नहीं था। पूरी दुनिया से पूरेपन में सरोकारों के साथ, समाचार हो या लेख सभी मानवीय प्रगति और भारतीय आत्मा की परिधि में रहती थी। यह दिनमान अज्ञेय ने बनाया था। एक ऐसी पत्रिका जिसको बनाने में लगे हाथ भी उसे उतनी ही शिद्दत से आज भी याद करते हैं जितना उसे पढ़ने वाली आँखें, इस मतलब परस्त दुनिया में किसी पत्रिका के प्रति यह भाव यूँ ही तो नहीं उपजा होगा। अब मैं साहित्यिक पत्रकारिता की तरफ आप को ले चलता हूँ और नया प्रतीक से मिलाता हूँ। नया प्रतीक के 1973 के प्रथम अंक में जिसका नाम पूर्वाक है, के आवरण पर पत्रिका का उद्देश्य वाक्य लिखा हुआ है - 'सर्जन और चिंतन का प्रतिनिधि मासिक, 'नया प्रतीक'किन मूल्यों का वाहक होगा इसे अज्ञेय संपादकीय 'पुनस्तत्रेव वैतालः में स्पष्ट करते हैं, 'लोक रुचि का अनुकरण करने और हर किसी की पीठ और मौका पड़ने तलुवे सहलाने की रजामंदी का जो निहित आश्वाशन हो सकता है उसके लिए प्रतीक तैयार नहीं है और न होगा, प्रतीक व्यवसायी पत्र नहीं होगा, लोकरुचि का अनुचारी नहीं होगा, बल्कि इसके विपरीत वह यह सिद्ध करके दिखाना चाहेगा कि व्यवसाय या लोकरुचि के सामने आत्मसमर्पण किए बिना भी समकालीन साहित्य को सामने लाने का कार्य किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में नया प्रतीक इस आस्था की आवृत्ति करेगा कि साहित्यिक मूल्य अपना आत्यंतिक महत्व रखते हैं और उस पर आधारित साहित्य ही टिका रहता है ...हम प्रतीक के लिए विशुद्ध साहित्यिक विषयों से आगे बढ़कर साहित्य के भौतिक, दार्शनिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक आदि परिपार्श्वों से संबंध रखने वाली सामग्री भी प्राप्त करेंगे और इनसे तथा लौकिक जीवन से मिलने वाली प्रेरणाओं का अभिनंदन करेंगे।' (पृ. 14-15, शेष वही) दरअसल ये सभी घोषणाएँ उनकी साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता संबंधी दृष्टि को प्रकट करती हैं। नया प्रतीक तो प्रयोगशाला है। कहना न होगा कि प्रतीक के लगभग अंक अज्ञेय की इसी साहित्य दृष्टि के दायरे में हैं। वह 'बोलचाल और संप्रेषण'पर राम स्वरूप चतुर्वेदी का लेख हो या पियेर तेइमार द शार्दे का 'प्रेम : मूल मानवीय ऊर्जा'पर। 'कुआनो नदी : खतरे का निशान'पर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता हो या सोमा जेतली का नृत्य के उद्यम पर लेख। कुँवर नारायण की कविता 'खोज'हो या गौरी पंत की कहानी 'देवकी, मणि मधुकर की कहानी 'जख्म के चारों ओर'हो या आनंद कुमार स्वामी का लेख 'साक्षरता धर्म', विद्यानिवास मिश्र का ललित निबंध 'राधा माधव हो गई'हो या खुद अज्ञेय की कविता 'नंदा देवी'। मई 1974 के नया प्रतीक में प्रकाशित नंदा देवी कविता का एक अंश देखिए, 'बीस-तीस-पचास वर्षों में, तुम्हारी वन राजियों की लुगदी बनाकर, हम उस पर अखबार छाप चुके होंगे' (पृ. 24) इसी अंक में 'दूर शहर में'शीर्षक से अज्ञेय की ही एक अन्य कविता का अंश देखें, 'वहाँ दूर शहर में बड़ी भारी सरकार है, कला की समृद्धि की योजना का फैला कारोबार है, और यहाँ इस पार्वती गाँव में छोटी चीज की भी दरकार है, आज भी भूख-बेबसी की बेमुरोवत मार है।' (पृ. 13) यह एक झलक अज्ञेय संपादित नया प्रतीक की। इसमें कोई दो मत नहीं है कि एक प्रकार का व्यक्तिवादी टोन दिनमान से लेकर नया प्रतीक तक में मिलता है। व्यक्तिवादी से मेरा आशय संपादकीय व्यक्तित्व के छाए होने से है। अज्ञेय का प्रभाव हर जगह महसूस किया जा सकता है। उनका कद और निष्ठा दोनों ही बड़े थे तो यह होना ही था। हर बड़ा और समर्थ संपादक अपनी पत्रिका के हर पन्ने पर झाँकता है, यह स्वाभाविक है, यह उसका पत्र में होना है, लेकिन तभी तक जब तक ऐसा दूसरे के लेखकीय व्यक्तित्व की कीमत पर न हो। क्या अज्ञेय के साथ यह संकट था? लगता नहीं है। अभिजात भाषा के प्रयोग कर्त्ता होने के आरोपी अज्ञेय के बारे में प्रभाकर माचवे लिखते हैं, 'उन्हें भाषा के प्रति मेरा जनतांत्रिक रवैया बहुत पसंद था।' (पृ. 237, संपादक अज्ञेय प्रभाकर माचवे, अज्ञेय, स. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी) अब यहाँ मेरे पास कुछ सवाल हैं। जैसे अज्ञेय जिस प्रकार की पत्रकारिता और मूल्यों की बात करते हैं क्या उन्होंने अपने संपादन और तत्संबंधित लेखन कर्म में उनका पालन किया? अँग्रेजी के प्रभाव और उसकी तुलना में हिंदी की जमीन के छोटा और सख्त होने के बावजूद हिंदी पत्रकारिता में क्या वे वह चमक पैदा कर सके जिसकी कमी वो महसूस करते थे। और सहज ढंग से खुद के पत्रकार न होने की बात करने वाले अज्ञेय ने कैसी और क्यों पत्रकारिता की इतनी लंबी पारी खेली। 'विशाल भारत'से लेकर नेहरू ग्रंथावली और मैनकाइंड से लेकर थाट तक का संपादन किया? बुद्धिजीवी और लेखक के साहसी होने, अपने विचारों के लिए जोखिम उठाने के लिए तैयार रहने को जरूरी मानने वाले अज्ञेय स्वयं इस कसौटी पर कितने उतर सके? क्या वे सत्ता के विरुद्ध अपने विचारों के समर्थन में कागज की जमीन से उतर सचमुच की खुरदरी धरती पर कभी चल सके? चलिए जवाब ढूँढ़ें। दिनमान से |
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दिनमान की पत्रकारिता
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