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रवि अरोड़ा की नजर में

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इरफ़ान : लाल घास पर नीला घोड़ा

रवि अरोड़ा

शायद सन 1987 की बात रही होगी जब इरफ़ान खान से पहली मुलाक़ात हुई । उन दिनो वे नेशनल स्कूल आफ ड्रामा यानि एनएसडी में थियेटर के हुनर सीख रहे थे और दिल्ली के श्रीराम सेंटर में उनके नाटक ‘ लेनिन का एक दिन ‘ का मंचन था । लगभग सोलो ड्रामा था यानि पूरे समय लेनिन बने पात्र के ही डायलोग थे । सच कहूँ तो लेनिन बने इरफ़ान से मैं ज़रा भी प्रभावित नहीं हुआ । उन दिनो मुझपर भी थियेटर का जुनून था और ख़ुद कई नाटक लिखने, निर्देशित करने के साथ साथ दो तीन नाटकों में अभिनय भी कर चुका था । चूँकि सारा सारा दिन मंडी हाउस की ख़ाक भी छानता था सो बड़े बड़े रंगकर्मियों के पचासों प्रभावशाली नाटक स्वयं देख भी चुका था । नाटक के बाद एनएसडी के ही अपने मित्र दिनेश खन्ना के साथ इरफ़ान से कई चलताऊ सी  मुलाक़ात हुईं । दिनेश खन्ना इरफ़ान के सीनियर थे और इरफ़ान आख़िरी समय तक उन्हें मानते भी बहुत थे । आजकल एनएसडी में ही प्रोफ़ेसर के पद पर आसीन दिनेश खन्ना से आज सुबह जब फ़ोन पर बात हुई तो वे इरफ़ान की यादों से सराबोर नज़र आये । ख़ैर , उन्ही दिनो इरफ़ान का एक और नाटक देखा- लाल घास पर नीला घोड़ा । उस नाटक में इरफ़ान का काम देख कर मैं इतना प्रभावित हुआ कि बाद में जब उन्हें फ़िल्मे मिलनी शुरू हुईं तो उनकी कोई फ़िल्म देखने से चूका नहीं ।

शुरुआती दिनो में इरफ़ान के अभिनय में जो बात मुझे चुभती थी वह थी उनकी खरखराती आवाज़ और सामने वाले पात्र से आई कोंटेक्ट नहीं करना । हैरानी होती थी कि एनएसडी की बेसिक ट्रेनिंग में ही सामने वाले पात्र की आँख में आँख डाल कर देखना शामिल है फिर इरफ़ान एसा क्यों नहीं करते थे ? मगर फ़िल्मों में अभिनय करते हुए अपनी इस कमी को उन्होंने जिस ख़ूबसूरती से अपने ख़ास स्टाइल में बदला , वह कमाल का था । आज बड़े बड़े अभिनेता उनके इस स्टाइल की नक़ल करते हैं । ख़ैर उन्ही दिनो टीवी सीरियल बनने शुरू हुए और एनएसडी के तमाम छोटे बड़े अभिनेताओं को काम मिलने लगा । इरफ़ान के हिस्से भी कई धारावाहिक आये और श्याम बेनेगल के धारावाहिक ‘ भारत एक खोज ‘ से वे नामचीन लोगों की निगाह में भी चढ़ गए और उन्हें फ़िल्मों में भी काम मिलने लगा । बालीवुड पहुँच कर उन्होंने जो झंडे गाड़े उसका एक मात्र श्रेय उनकी जी तोड़ मेहनत को ही जाता है । जहाँ तक मुझे याद है कि एनएसडी के दिनो में इरफ़ान बहुत अच्छी अंग्रेज़ी नहीं बोलते थे मगर पिछले कुछ सालों मे हालीवुड की फ़िल्मों में उन्होंने जो फ़र्राटेदार अंग्रेज़ी बोली वह हैरान कर देने वाली थी । आज जब उनका निधन हुआ वे 54 वर्ष के हो चुके थे । कमाल की बात है कि उन्हें अब तक युवाओं की ही भूमिका मिल रही थीं । ज़ाहिर है इसके लिए उन्होंने अपने स्वास्थ्य पर बहुत मेहनत की होगी मगर अफ़सोस कैंसर जैसी महामारी ने इस बात  भी लिहाज़ नहीं किया । दिनेश खन्ना बता रहे थे कि अपनी इसी बीमारी की वजह से हाल ही इंतक़ाल फ़रमाई अपनी माँ के जनाज़े में भी इरफ़ान शरीक नहीं हो पाये थे । उन्होंने दो साल तक कैंसर को हराने की जी तोड़ कोशिश की मगर कल ख़ुद ही हार मान ली ।
आज सुबह से सोशल मीडिया के तमाम बैनर और टीवी चैनल इरफ़ान के फ़ौत होने से ग़मज़दा हैं । वे भी गमगींन हैं जो मुस्लिम रेहड़ी वालों से सब्ज़ी-फल न ख़रीदने की सलाह देते फिरते हैं । यह सब देख कर मन को थोड़ी सी तसल्ली भी मिली कि हमारे सौहार्द में चलो अभी इतने कीड़े नहीं पड़े हैं , जितने कभी कभी महसूस होते हैं । लाल घास के इस नीले घोड़े के निधन पर सभी का धर्म-जाति से ऊपर उठकर अफ़सोस व्यक्त करना बताता है कि वाक़ई आज कोई बड़ा नुक़सान हुआ है ।

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