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रवि अरोड़ा की नजर में

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रिलेशन बनाम इक्वेशन

रवि अरोड़ा

टेलिविज़न पर बच्चों को ऑनलाइन पढ़ाने वाली कम्पनी बाईज़ू’स का विज्ञापन आ रहा था । हैरानी हुई कि भारत जैसे ग़रीब मुल्क में भला एसी कम्पनियों का क्या भविष्य होगा । नेट पर चेक किया तो पता चला कि अरे इस कम्पनी का तो पिछले साल का ही टर्नओवर सवा पाँच लाख मिलियन डालर है । आसपास निगाह दौड़ाता हूँ तो देखता हूँ कि नर्सरी से लेकर बड़ी क्लासेस तक सभी बच्चे लॉकडाउन में ज़ूम एप के माध्यम से अपनी क्लास अटेंड कर रहे हैं । यानि घर से निकले बिना ही सबका स्कूल-कालेज चल रहा है । बेशक बाईज़ू’स नौ साल पुरानी कम्पनी है और इससे मिलती जुलती दर्जनों और कम्पनियाँ भी अब मैदान में आ गई हैं मगर लॉकडाउन से पहले इस ज़ूम एप के बारे में तो सुना भी नहीं था । यह सब देखकर आश्चर्य भी हो रहा है और ख़ुशी भी । तकनीक ने कितना बदल दिया है हमारी दुनिया को ।हालाँकि यह सब देखकर थोड़ा दुःख भी होता है और मन में भाव जगते हैं कि हाय हुसैन हम न हुए मगर साथ ही साथ तसल्ली भी होती है कि चलो हम न सही हमारे बच्चे और उनके बच्चे तो इन सभी सुविधाओं को भोग ही रहे हैं । संतोष यह भी होता है कि चलो हमने एसे दौर में तो जन्म तो लिया जहाँ तख़्ती से लेकर ज़ूम तक यात्रा पूरी की गई । हमारी पीढ़ी के लोग भी तो कहीं न कहीं अब तमाम आधुनिक तकनीक का लाभ ले सकते हैं और कमोवेश ले भी तो रहे हैं ।

आधुनिक पीढ़ी को यदि अपने दौर के क़िस्से सुनायें तो वे सहज विश्वास नहीं कर पाएँगे मगर साठ के लपेटे में आ चुके लोगों के लिए तो यह भोगा हुआ सत्य ही है । पहली से लेकर तीसरी जमात तक मैं भी स्कूल में तख़्ती लेकर गया हूँ । बाँस की लकड़ी का क़लम दिन भर घड़ना , एक पैसे की टिकिया से स्याही बनाना और मुल्तानी मिट्टी से तख़्ती को पोत कर उसे दोबारा लिखने योग्य बनाना हमारी रोज़ की दिनचर्या थी । मुझे पूरी तरह याद नहीं मगर गीली तख़्ती को जल्दी सुखाने के लिए हम लोग एक गीत भी गाते थे । अंतिम लाइन कुछ एसी होती थी जिसकी तख़्ती जल्दी सूखे वो पास बाक़ी सब फ़ेल । फिर आई स्लेट और बत्ती । चॉक तो केवल टीचर्स के लिए होता था । चौथी क्लास में पेंसिल मिली तो उसे दाँत से छील लेने की कला भी आ गई । स्मार्ट बच्चे पेंसिल घड़ने के लिए झोले में शेविंग ब्लेड रखते थे मगर कटर तो केवल उन बच्चों के ही पास होता था जिनके पिताजी सरकारी नौकरी में होते थे । सर्वेक्स का फ़ाउंटेन पेन और चलपार्क की गहरी और हल्की नीली स्याही छठी क्लास में हाथ आई । बेंच के दर्शन भी इसी क्लास में आकर हुए वरना दरी पर बैठकर कर कई साल काम चलाया । ग़नीमत थी कि गली मोहल्ले के स्कूलों के हम बच्चों को दरी तो नसीब हुई थी वरना हमारे साथ के सरकारी स्कूलों के बच्चे तो बैठने के लिए टाट घर से ही ले जाते थे । एक तिहाई दाम में हर साल पुरानी किताबें बेचना और आधे दाम पर नई क्लास की पुरानी किताबें ख़रीदना हमारा सबसे प्रिय काम था । समाज में छोटे-बड़े, अमीर-ग़रीब, उद्योगपति, दुकानदार और यहाँ तक कि रिक्शा ठेली वाले के भी बच्चे सभी एक साथ पढ़ते थे ।

अपनी बातों से मुझे भी लग रहा है कि मैं अब पुरातनपंथियों जैसी बातें कर रहा हूँ । संभवतः एसा हो भी मगर कभी कभी पीछे मुड़ कर देखना अच्छा तो लगता ही है । यूँ भी साफ़ दिखाई दे रहा है कि कुछ भी पा ले मगर आज की पीढ़ी वह सम्बंध शायद हासिल नहीं कर पाएगी जिन्हें हमने जिया है । गर्व होता यह देख कर कि बचपन के दोस्त आज भी उसी बेतकल्लुफ़ी के साथ जुड़े हुए हैं । मेरे ब्याह में अधिकांश गुरुजन शामिल हुए । अब जो गुरु दुनिया से विदा हुए उन्हें कंधा देने वालों में मैं भी था । बेशक हमारा दौर बेहद पिछड़ा था मगर तब की एक बात तो थी जो सीना चौड़ा करती है । दरअसल तब हम लोग रिलेशन बनाते थे आज की तरह इक्वेशन नहीं । कहिये क्या कहते हैं ?

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