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चुनांचे / रवि अरोड़ा की नजर में

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गमछा पुराण

रवि अरोड़ा


दिल्ली का बहादुर शाह ज़फ़र मार्ग स्थित डॉल म्यूज़ियम आप लोगों ने अवश्य देखा होगा । मेरा भी दो बार जाना हुआ । पहली बार तब जब बच्चा था और स्कूल वाले दिखाने ले गए थे और दूसरी बार तब जब ख़ुद के बच्चे हो गये और मैं उन्हें दुनियाभर की गुड़ियाओं से मिलवाने वहाँ ले गया था । बताते हैं कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु की प्रेरणा से जाने माने कार्टूनिस्ट के शंकर पिल्लई ने इसे बनवाया था । दरअसल शंकर को गुड़िया एकत्र करने का बहुत शौक़ था और चूँकि प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं में पत्रकारों के साथ वे भी जाते थे अतः जिस भी देश जाते वहाँ की गुड़िया ज़रूर निशानी के तौर पर साथ ले आते। अपनी इन्हीं गुड़ियाओं की उन्होंने एक बार प्रदर्शनी लगाई और पंडित नेहरु भी उसे देखने आये थे । उन्ही की सलाह पर देश के इस पहले गुड़िया घर की नींव पड़ी । गुड़ियाओं के संसार के बारे में एक बात कही जाती है कि वे ही अपने क्षेत्र के वस्त्रों का सही मायनों में प्रतिनिधित्व करती हैं । यानि जिस जगह के परम्परागत वस्त्रों को जानना हो , वहाँ की गुड़ियाओं को देख लो । दिल्ली का यह डॉल म्यूज़ियम इस बात को बख़ूबी बयान करता है । यहाँ पिच्चासी देशों की साढ़े छः हज़ार गुड़ियाँ हैं और भारतीय गुड़ियाओं का भी बहुत बड़ा कलेक्शन यहाँ है । इस गुड़िया घर में भारतीय पुरुषों को पहचानना बेहद आसान है । जी हाँ यह होता है उनके पहनावे यानि धोती-कुर्ता और कंधे पर एक गमछे से ।

कोरोना महामारी के दौर में जब आज पूरी दुनिया अपनी जड़ें ढूँढती नज़र आ रही है तब हम भारतीयों के लिए भी उन्हें टटोलने का वक़्त है । लॉकडाउन की वजह से मजबूरी में ही सही मगर अब हम अपने परम्परागत खान-पीन की ओर लौटते दिख रहे हैं । आने वाला समय चूँकि कष्टकारी है अतः हमें अपनी उन तमाम आदतों को भी छोड़ना ही पड़ेगा जो हमारी सेहत और जेब दोनो पर हमला करती हैं । जहाँ तक पहनाने की बात है , बेशक शहरी जीवन में पुनः अपने परम्परागत धोती कुर्ते की ओर लौटना हमारे लिए संभव नहीं है मगर कंधे पर रखा गमछा तो वापिस आता दिख ही रहा है ।

अब इस गमछे की भी अजब कहानी है । देश के हर क्षेत्र में अपनी मौजूदगी के बावजूद इसके अलग अलग नाम और अलग अलग रूप हैं । इसके इस्तेमाल की विधि और ज़रूरत भी भिन्न भिन्न है । कहीं इसे गमछा कहा गया तो कहीं परना । कहीं इसका नाम साफ़ा हो गया तो कहीं मुंडी । अमीर आदमी इसे कंधे पर लटका ले तो अंगवस्त्र या अंगारखी हो गया और ग़रीब आदमी पसीना पौंछने को कंधे पर रख ले तो गमछा । इज़्ज़तदार के सिर पर पहुँचे तो यह कपड़ा पगड़ी या साफ़ा हो जाए और ग़रीब आदमी लू से बचने को सिर अथवा मुँह पर लपेट ले तो यह परना हो जाये । नाम अथवा रूप कोई भी रहा हो मगर सदियों तक यह गमछा हर अमीर ग़रीब हिंदुस्तानी का अच्छे-बुरे वक़्त का साथी रहा है ।

आज सरकार और दुनिया भर के तमाम स्वास्थ्य संघटन घर से बाहर निकलते समय मास्क पहनना पहली ज़रूरत बता रहे हैं । अब भारत ठहरा ग़रीब देश । फिलवक्त आधे मुल्क की यूँ ही लॉकडाउन की वजह से जेब ख़ाली है । एक तिहाई के सामने तो दो वक़्त की रोटी का भी संकट है । एसे में हर कोई अपने पूरे परिवार के लिए कहाँ से ख़रीदे ये महँगे मास्क ? शुक्र है कि प्रधानमंत्री मोदी जी ने भी गमछे की वकालत कर दी है । बक़ौल उनके मास्क नहीं है तो कोई बात नहीं गमछा तो है, घर से बाहर निकलो तो नाक मुँह उसी से अच्छी तरह ढक लो । डाक्टर और वैज्ञानिक भी कह रहे हैं कि साधारण कपड़ा यानि हमारा गमछा भी वही काम करेगा जो मास्क कर रहा है । तो भाई जी अपना भी यही कहना है कि छोड़ो मास्क-वास्क और पुराने गमछे को ही संदूक से निकाल लो तथा शुक्रिया अदा करो अपने बुज़ुर्गों का जिन्होंने हर अच्छे बुरे वक़्त के लिए कुछ न कुछ चीज़ें हमें विरासत में दी हैं ।

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