रूह की हद तक
*रूह की हद*
रूह की हद तक प्यार करते है हम उनको ...
दिल का दर्द बयां हम
करे अब किससे
क्योंकि रूह की हद तक
प्यार करते है हम उनसे
दर्द और भी दर्दनाक हो जाता है
जब वह कहते है हमसे
प्यार पा लो तुम किसी से
फिर भी प्यार करते है हम उनसे
हम तो डूबे है प्यार में
इस कदर उनके
तरसता है पपीहा
स्वाति बूंद को जैसे
परेशा हो जाते हैं हम
जब देखते तक नही
है वह हमको
मगर फिर भी
रूह की हद तक
प्यार करते हैं हम ।
*साधना*
मै कल्पना करती हूं ,
ऐसे जीवन की जो।
सहज हो, सरल हो,
निश्चल हो और सुखमय हो।
मै कामना करती हूं
एसे जगत की
जो वास्तविकता से परे हो
अतीत से अनभिज्ञ हो।
मै वर्तमान की उपेक्षा करके
स्वप्नलोक में विचरण करने लगती हूं।
किसी के सुंदर भवन को देखकर
उसकी छवि को अंतर मे बैठा लेती हूं
और जब कोई वस्तु पसंद आ जाती है
तो उसे उस भवन में लाकर सजा देती हूं।
आहिस्ता आहिस्ता भवन मै
भीड़ इकट्ठी हो जाती है
और मै स्वयं को विस्मृत कर बैठती हूं।
फिर सोचने लगती हूं
की शायद उस विस्मृति को
खोजने का नाम ही साधना है
वक्त
क़्त वक़्त की बात है
वक्त बदलते वक़्त नहीं लगता है
कल की ही तो बात है जब
प्रेम का प्रतीक होती थी निजता
लेकिन अब मायने बदल चुके हैं
सोच बदल चुकी है
अब तो रहना है यदि जिंदा
तो"दूरियाँ"से नाता जोड़ना होगा।
यही प्रेम का प्रतीक होगा
प्रेम का परिचायक होगा
सब मानवता कंपित है,
भय का वितान है छाया।
तम सभी ओर दिखता है,
यह कैसी तेरी माया।
तुमने अपने हाथो से,
हम सबकी मूर्ति बनाई।
फिर क्यों हम सब के उर में,
विभुवर भयता आई।
क्या कमी रही सृजन में,
उद्दंड हुए हम सारे।
क्यों एक पिता के होकर
मति भ्रमित हुए हम सारे
जग में कुत्सितता ज्वाला,
है धधक रही विभु आओ।
इस कंटक को मारो तुम,
हम सबको सुखी बानाओ।
कोरोना बना है बेड़ी,
बंदी मानवता काया।
इस कोरोना ने आज अनोखा,
रूप सभी को दिखलाया।
जिस स्नेह सदन में रहते थे हम,
उसका विध्वंस किया इसने।
अब डरे डरे से रहते हम,
सब दूर दूर ही रहते।
अब धैर्य हमारा टूटा,
हे उद्धारक तुम आओ।
इस कोरोना को मारो तुम,
खुशियों के विटप उगाओ।
गरम सोते यूं पर्वत पर
है गिरती बर्फ पहाड़ों पर
झरने देते हैं शीतल जल।
फिर क्यों फूटते कभी कभी
है गरम सोते यूं पर्वत पर।
शायद पर्वत के भीतर भी
होगी गंधक की परत कहीं।
लगता मुझको है यही उष्णता
देती है जलधार वहीं।
फिर लगता पर्वत में शायद
है शीतलता अक्षुण्ण अनंत।
इसीलिए गंधक जैसी
परत को देता है फ़ेक तुरंत।
शायद वह भी है यही जानता
दुर्गुण होना है बड़ी बात।
पर उन्हें छीपाना और बुरा
लगता उसको यह बार बार।
काश ! मानव यह जान पाता
शालीनता में ही आनंद है।
फेक देता दुर्व्यसन सभी
जो छीपे हुए है अंतर में।
वो खड़ी शून्य में निहारती
वो खड़ शूशून्य में निहारती
दूर उस पथ को निर्मिमेश.....
अंबर की छाया गहरी है
पूनम का चंदा प्रहरी है।
मंथर मंथर तरणी चल रही,
ये प्रशांत सागर लहरी है।
नहीं है कोई सहारा
कितनी दूर है गांव हमारा
कोरोना अभिशाप बना है,
पर चलने का प्रण किया है।
चले कभी ना थके राह में,
झंझाओ ने खेल किया है।
नहीं है कोई सहारा
कितनी दूर है गांव हमारा
दिखता बहुत दूर तक रस्ता,
मंजिल भी लगती निश्चल है।
कैसे पहुंचे घर अपने हम,
उनका यह लघु प्राण विकल है।
वो खड़ी शून्य में निहारती
दूर उस पथ को निर्मिमेश....
*प्रिय फिर भी तू क्यों ना आया*
मै खड़ी शून्य में
निहारती उस पथ को
जहां दूर दूर तक
तू नजर नहीं आया।
प्रिय फिर भी तू क्यों ना आया.....
अब रुदन के सिवा है क्या
वक्ष से आओ लगा लू।
क्रूर आतप पवन ने झुलसा
दिया पर तू ना आया।
प्रिय फिर भी तू क्यों ना आया.....
वियोग में तेरे
देखकर मेरी दशा
हर शख्स का
हृदय तड़फड़ाता
प्रिय फिर भी तू क्यों ना आया
मै तुम्हारी याद में हूं
रो रही दिन रात
हाय विधाता फिर भी तुझे
तनिक भी नजर ना आया।
मै खड़ी शून्य में निहारती दूर
उस पथ को जहां
दूर दूर तक
तू ना नजर आया
डॉ कविता रायजादा
।।।।।।।
।।।