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रवि अरोड़ा की नजर से....

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पहले इनसे निपटो

रवि अरोड़ा

 हम लोग लेह से बौद्ध मठ लामायुरु जा रहे थे । लद्दाख- श्रीनगर राजमार्ग पर सिंधु नदी के साथ साथ इस सुनसान सड़क पर एक आर्मी का ट्रक खड़ा दिखा जिसके नीचे घुसकर एक फ़ौजी कुछ मरम्मत सी कर रहा था । फ़ौज के प्रति हम सभी भारतीयों के मन में सम्मान का ही असर था कि हम लोगों ने अपनी कार रोक ली और फ़ौजी से पूछा कि क्या उसे किसी सहायता की आवश्यकता है ? इस पर फ़ौजी ने बताया कि वह फ़ौज में चालक है और लेह में कुछ सामान उतारकर वापिस कारगिल जा रहा था मगर बीच रास्ते में ट्रक ख़राब हो गया । उसने हमसे कहा कि थोड़ी दूर आगे आबादी है और हम उसे वहाँ छोड़ दें । हमने सहर्ष उसे अपनी गाड़ी में बैठा लिया और उसके सिख व पंजाबी भाषी होने के नाते शीघ्र ही उससे घुलमिल भी गये । लगभग पचास-साठ किलोमीटर के सफ़र में उस फ़ौजी ने हमें फ़ौज की कार्यशैली, सीमा पर होने वाली क्रोस फ़ायरिंग व झड़पों सम्बंधी अनेक एसी बातें बताईं जिससे हम पूरी तरह अनजान थे । उस फ़ौजी के अनुसार पाकिस्तान से हमें कोई ख़तरा नहीं है क्योंकि हम उसे अच्छी तरह समझते हैं । ख़तरा तो इस चीन से रहता है जो कब क्या करेगा इसका अंदाज़ा ही नहीं होता । सन 1962 में चीन द्वारा धोखा दिये जाने से चीनियों के प्रति उस फ़ौजी के मन में नफ़रत का एसा भाव दिखा जो अकल्पनीय था । आवेश में उसने यहाँ तक कह दिया कि मेरे हाथ में बंदूक़ हो और कोई चीनी कहीं दिख जाये तो मैं उसे तुरंत उड़ा दूँ ।

लगभग बीस साल हो गये होंगे जब मैं और मेरे कुछ मित्र लद्दाख घूमने गये थे । चीन सीमा से सटा राज्य का यह सबसे बड़ा शहर लेह पूरी तरह कैंट एरिया ही लगा । हर दो चार मिनट में कोई फ़ौजी हेलिकोप्टर उड़ान भरता था अथवा उतरता था । बाज़ारों में भी फ़ौज की गश्त होती दिखी । दुनिया की सबसे ऊँची सड़क चूँकि वहीं है अतः हम वहाँ भी गये । चीन का इलाक़ा वहीं से शुरू होता है अतः क्षेत्र में फ़ौजी अमले की कोई कमी नहीं थी । बातचीत में इन फ़ौजियों के मन में भी वही नफ़रत चीनियों के प्रति नज़र आई । इत्तफ़ाक़ से उत्तराखंड में बद्रीनाथ धाम के निकट माना और सिक्किम में नाथुला पास भी जा चुका हूँ और वहाँ भी भारतीय फ़ौजी इसी भाव से ओतप्रोत दिखे । साफ़ नज़र आया कि बेशक हम और हमारी सरकारें 1962 की लड़ाई भूल चुकी हों मगर फ़ौज के मन में टीस अब तक बाक़ी है । नाथुला में चीनी फ़ौजियों के साथ हमारे ग़्रुप के कुछ बच्चे तस्वीरें लेने लगे तो एक भारतीय फ़ौजी ने उन्हें डाँटा कि तुम्हें शर्म नहीं आती जो उनके साथ फ़ोटो खिंचवा रहे हो जिन्होंने बासठ में तुम्हारे बाप दादा को मारा था ? इसे संयोग कहूँ अथवा फ़ौज की मनःस्थिति कि तीन भागों में बंटी भारत-चीन सीमा पर तैनात जिस भी फ़ौजी से मैंने बात की उसे बासठ की हार का बदला लेने के भावों में लबरेज़ पाया । सयाने कहते हैं कि लड़ाई में दुश्मन के प्रति नफ़रत की भी बड़ी भूमिका होती है । भारतीय फ़ौज के मन में चीन के प्रति यह नफ़रत कम से कम मुझे तो आश्वस्त करती है कि यदि युद्ध की नौबत आई तो हमारी फ़ौज नफ़रत के अपने अमोघ शस्त्र के बल पर ही दुश्मन को सबक़ सिखा देगी ।

चलिये लगे हाथों यह भी बात कर लेते हैं कि क्या युद्ध ज़रूरी है ? क्या इसके बिना काम नहीं चल सकता ? माना अब हम सन बासठ वाले भारत नहीं हैं और हमारी फ़ौज का आत्मविश्वास भी चरम पर है मगर कोरोना महामारी ने जो आर्थिक तंगी का जाल बुना है उसमें हम युद्ध झेल भी पाएँगे ? बेशक हमारे पास भी वह तमाम आधुनिक हथियार हैं जिनके दम पर चीन दादागिरी कर रहा है मगर फिर भी युद्ध की नौबत ही क्यों आये ? वार्ता से हज़ार रास्ते खुलते हैं । ग़नीमत है बातचीत शुरू भी हुई है । मगर फिर भी पहले सरकार को अपने भीतर बैठे उन उन्मादियों से निपटना चाहिये जो हर क़ीमत पर युद्ध चाहते हैं । लड़ाई चीन से बड़ी युद्धोनुमादियों से है ।



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