गाँधी युग
गाँधी युग | |
विवरण | 'राष्ट्रपिता'की उपाधि से सम्मानित महात्मा गाँधी भारतीय राजनीतिक मंच पर 1919 ई. से 1948 ई. तक छाए रहे। गाँधीजी के इस कार्यकाल को 'भारतीय इतिहास'में 'गाँधी युग'के नाम से जाना जाता है। |
मुख्य आन्दोलन | ख़िलाफ़त आन्दोलन, असहयोग आन्दोलन, बारदोली सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा आन्दोलन, भारत छोड़ो आन्दोलन |
मुख्य घटनाएँ | काकोरी काण्ड, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत, साइमन कमीशन का आगमन, दांडी मार्च, जलियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड, गाँधी-इरविन समझौता, साम्प्रदायिक निर्णय, अगस्त प्रस्ताव, शिमला सम्मेलन, माउन्टबेटन योजना। |
सम्बन्धित लेख | साबरमती आश्रम, कस्तूरबा गाँधी, गाँधी भवन, डाक टिकटों में महात्मा गाँधी, महात्मा गाँधी के अनमोल वचन। |
अन्य जानकारी | भारत की आज़ादी के लिए सदा संघर्षरत रहने वाले महात्मा गाँधी इंग्लैण्ड से बैरिस्टरी की पढ़ाई समाप्त करने के बाद भारत आये थे। यहाँ से 1893 ई. में अफ़्रीका गये ओर वहाँ पर अपने 20 वर्ष के प्रवास के दौरान ब्रिटिश सरकार की रंग-भेद की निति के विरुद्ध लड़ाई लड़ते रहे। |
'बापू'एवं 'राष्ट्रपिता'की उपाधियों से सम्मानित महात्मा गाँधी अपने सत्य, अहिंसा एवं सत्याग्रह के साधनों से भारतीय राजनीतिक मंच पर 1919 ई. से 1948 ई. तक छाए रहे। गाँधी जी के इस कार्यकाल को भारतीय इतिहास में गाँधी युग के नाम से जाना जाता है। जे. एच. होम्स ने गाँधी जी के बारे में कहा कि- "गाँधी जी की गणना विगत युगों के महान् व्यक्तियों में की जा सकती है। वे अल्फ़्रेड, वाशिंगटन तथा लैफ़्टे की तरह एक महान् राष्ट्र निर्माता थे। उन्होंने बिलबर फ़ोर्स, गैरिसन और लिंकन की भांति भारत को दासता से मुक्त कराने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। वे सेंट फ़्राँसिस एवं टॉलस्टाय की अहिंसा के उपदेशक और बुद्ध, ईसा तथा जरथ्रुस्त की तरह आध्यात्मिक नेता थे।"गाँधी जी भारत के उन कुछ चमकते हुए सितारों में से एक थे, जिन्होंने देश की स्वतंत्रता एवं राष्ट्रीय एकता के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। इंग्लैण्ड से बैरिस्टरी की पढ़ाई समाप्त करने के बाद गाँधी जी भारत आये थे। यहाँ से 1893 ई. में अफ़्रीका गये ओर वहाँ पर अपने 20 वर्ष के प्रवास के दौरान ब्रिटिश सरकार की रंग-भेद की निति के विरुद्ध लड़ाई लड़ते रहे। यहीं पर गाँधी जी ने सर्वप्रथम 'सत्याग्रह आंदोलन'चलाया था।
गाँधी-गोखले भेंट
जनवरी, 1915 ई. में गाँधी जी भारत आये और यहाँ पर उनका सम्पर्क गोपाल कृष्ण गोखले से हुआ, जिन्हें उन्होंने अपना राजनितिक गुरु बनाया। गोखले के प्रभाव में आकर ही गाँधी जी ने अपने को भारत की सक्रिय राजनीति से जोड़ लिया। गाँधी जी के भारतीय राजनीति में प्रवेश के समय ब्रिटिश सरकार प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918 ई.) में फंसी थी। गाँधी जी ने सरकार को पूर्ण सहयोग दिया, क्योंकि वह यह मानकर चल रहे थे कि ब्रिटिश सरकार युद्ध की समाप्ति पर भारतीयों को सहयोग के प्रतिफल के रूप में स्वराज्य दे देगी। गाँधी जी ने लोगों को सेना में भर्ती होने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके फलस्वरूप कुछ लोग उन्हें "भर्ती करने वाला सार्जेन्ट"भी कहने लगे थे।
नील की खेती
1916 ई. में गाँधी जी ने अहमदाबाद के पास 'साबरमती आश्रम'की स्थापना की और अप्रैल, 1917 में बिहार में स्थित चम्पारन ज़िले में किसानों पर किये जा रहे अत्याचार के ख़िलाफ़ आन्दोलन चलाया। दक्षिण अफ़्रीका में गाँधी जी के संघर्ष की कहानी सुनकर चम्पारन (बिहार) के अनेक किसानों, जिनमें रामचन्द्र शुक्ल प्रमुख थे, ने गाँधी जी को आमंत्रित किया। यहाँ नील के खेतों में कार्य करने वाले किसानों पर यूरोपीय निलहे बहुत अधिक अत्याचार कर रहे थे। उन्हें ज़मीन के कम से कम 3/20 भाग पर नील की खेती करना तथा निलहों द्वारा तय दामों पर उसे बेचना पड़ता था। इसी तरह की परिस्थितियों से 1859-1860 ई. के नील आंदोलन में बंगाल के किसानों ने यूरोपीय बागान मालिकों से मुक्ति पायी थी। गाँधी जी, बाबू राजेन्द्र प्रसाद, मजहरूल-हक, जे. बी. कृपलानी, नरहरि पारिख और महादेव देसाई के साथ 1917 ई. में चम्पारन पहुँचे और किसानों की स्थिति की जांच करने लगे। विवश होकर सरकार को एक जांच समिति नियुक्त करनी पड़ी, जिसके एक सदस्य स्वंय गाँधी जी थे। गाँधी जी के प्रयत्नों से किसानों की समस्याओं में कमी आयी। 1918 ई. में गुजरात के खेड़ा ज़िला में 'कर नहीं आन्दोलन'चलाया गया। इसी वर्ष गाँधी जी ने अहमदाबाद के मज़दूरों और मिल मालिकों के विवाद में हस्तक्षेप कर मज़दूरों की मज़दूरी में 35% की वृद्धि करायी। अपनी राजनीति के प्रारम्भिक दिनों में गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार के संवैधानिक सुधारों की प्रक्रिया की प्रशंसा की, पर 1919 ई. के जलियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड के बाद सरकार के संदर्भ में गाँधी जी का पूरा दृष्टिकोण बदल गया।