वीरेंद्र सेंगर साहब् की वाॅल से••••••
कोरोना लाकडाउन के आज तीस दिन पूरे हो गये।बीमारी का खतरा लगभग वहीं खड़ा है।इस बीच करीब पांच लाख लोगों का टेस्ट हुआ है।
पाजटिव लोगों की दर करीब चार प्रतिशत बनी हुई है।अमेरिका जैसे देशों के मुकाबले यह बेहतर स्थिति है।एक हद तक इसका श्रेय मोदी सरकार और मेडिकल सेवा में लगे योद्धाओं को दे सकते हैं ।
लेकिन लाकडाउन के चलते करोड़ों गरीब परिवारों के सामने भुखमरी का खतरा. है ः।शुरुआत हो चुकी.है।आखिर इनकी चीख कब तक दबी रहेगी? देश के सामने यह सबसे. बड़ी चुनौती है।कोरोना से भी बड़ी!शुरुआती दौर में कुछ एनजीओ ने गरीब परिवारों को खाना पहुंचाया।
सरकारी मदद भी आधीअधूरी मिली।कुछ जमा पूंजी थी,वोभी निपट गयी है।उधार मिलने की गुंजाइश नहीं रही।लाकडाउन खुलने के आसार फिलहाल नहीं हैं।मद्यवर्गीय परिवार भी सहमने लगे हैं।ऐसे में उनकी उदारता लगातार कमजोर पड़ रही है।
निजी अनुभव भी यही है।हमारे अपार्टमेंट से करीब चार सौ पैकेट रोज खाना नोएडा प्राधिकरण की गाड़ी शाम चार बजे ले जाती थी।हर पैकेट में दो रोटी और सब्जी होती है।सेक्टर 93Aमें आधा दर्जन बड़े अपार्टमेंट हैं।नोएडा के सृष्टि अपार्टमेंट में मैं रहता हू्ं।यहां का हाल बता रहा हूं।पास के अपार्टमेंट में भी बेरूखी का आलम है।प्राधिकरण का भी जोश ठड़ां पड़ रहा है।उनका भी वाहन टाइमिंग भूल गया है।कभी तो शाम सात बजे खाना कलेक्ट किया जाता है।प्राधिकरण कर्मी आफ रिकार्ड में कुबूल करते हैं कि ये खाना कभी कभी अगले दिन दोपहर तक ठिकाने लगाया जाता है।उसने तो शायद कभी कभी का जुमला लाज बचाने के लिए किया हो।
अब समझ में आया कि क्यों गरीब शिकायत करते हैं कि उन्हें सड़ा खाना मिलता है।भूखे तमाम लोग ये बासी खाना खाकर बीमार हो चुके हैं।सेक्टर आठ की झुग्गी में रहने वाले ऐसे बीमारों को सरकारी अस्पताल से भगा दिया गया।उनसे कहा गया कि जब कोरोना से मरने लगो तब भर्ती करेंगे।सुदेश रायबरेली का रहने वाला है।मोटर मैकेनिक का हेल्पर है।उसने फोन पर आपबीती बताई।हाल सुनकर हकीकत और सरकारी दावों के अंतर का अहसास कहीं भीतर तक चुभ गया। इसी चुभन की भड़ास इस पोस्ट मे ं है।सुबह के अखबार देर से देखता हूं।देखना मैं जानबूझकर लिख रहा हूं।पत्रकार मित्र जरूर इस पीड़ा को अच्छे से समझ सकते हैं।खोजी पत्रकारिता तो इतिहास ही हो गयी है।एक हद तक पत्रकारों की मजबूरी भी समझ मे आती है।
लेकिन हिंदी के कथित राष्ट्रीय अखबारों का हाल भी बुरा है।ये समझ मे ं आता है कि नकेल के चलते आप मोदी और योगी सरकार के खिलाफ कुछ न लिखो।तल्ख सच्चाई की अनदेखी कर दो।इतने से तो वफादारी पूरी हो जाएगी।लेकिन मानवीय पहलू की खबरों मे ं कम से कम कसाई न बनो!आज हिंदी के एक बड़े अखबार की खबर बहुत अखरी।नोएडा की खबर है।खोजी संवाददाता ने लिखा कि फलां जगह झुग्गियों से प्रशासन हल्कान हैं।इनके पास जब पुलिस की गाड़ी आती है तो ये सब अंदर घुस जाते हैं।वर्ना बाहर बैठते हैं।ये तमाम हिदायत के बावजूद सोशल डिस्टेंसिगं नहीं करते।आगे भाव यह कि यही लोग भार बने हैं।प्रशासन की तमाम कोशिशों को पलीता लग सकताहै।
बहुत अच्छे शाबास क्या शानदार जनपक्षीय पत्रकारिता है! अरे संवाददाता जी !कभी इन झुग्गियों में अंदर झांककर देखना।एक एक झुग्गी मे ं दस दस लोग भी रहते हैं।ये सभी अंदर सो भी नहीं पाते।ये बाहर ही बैठते सोते हैं।इनकी ये आवारगी और मस्ती नहीं है।ये इनकी बेचारगी है।भला हो धर्म की अफीम का।जिसके चलते इन्हें लगता है कि पूर्व जन्म के पापों का फल इस जन्म मे भुगत रहे हैं।किसी दिन इस फरेबी अफीम का खुमार उतर गया तो बहुत कुछ बदलेगा।युवा गरीबों के भाव ताव बदल रहे हैं।वे बहुत सवाल भी करने लगे हैं।
कहीं ये सवाल ,वबाल में न बदले ं।हम सब की जिम्मेदारी है।लेकिन इस लाकडाउन में ये आग धधकने लगी है।अपने पास के किसी गरीब से फोन करके ही देखना।जरा कुरदते ही कैसी चिंगारी निकलने लगी है।?उन्हें लगता है कि देश के अमीर विदेशों से कोरोना लाए हैं।इसकी कीमत उन्हें बिना मतलब चुकानी पड़ रही है।भक्त जमात की तमाम कोशिशों के बावजूद पूरा गुस्सा मुस्लिम समाज की ओर नहीं मुड़ा।अब इसमें नया परोसने के लिए भक्त मीडिया के पास कोई नया मसाला नहीं हैं।सो उन्हें भूख ज्यादा गुस्सैल बना रही है।इसके चलते वे सरकार की तमाम अच्छी बातें भी नहीं मान रहे।तो संकट विश्वसनीयता काभी है।मदारी एंकरों के जरिए आप लंबे समय तक सदाव्रत नहीं बांट सकते।करोडों गरीबों की हाय और गुस्से से देश सुखी नहीं रह सकता।
सरकार और अमीर समाज को यह संदेश समय रहते पढ़ लेना चाहिए।कोरोना के बारे मे ं यही खबरें हैं कि इसको काबू करने में लंबा समय लगने वाला है।और लंबा लाकडाउन भारत जैसा बड़ा देश अब और झेल नहीं सकता।सो एतिहात के साथ फिर कामकाज शुरू हो।वर्ना हमें ज्यादा दुश्वारियों को झेलना होगा।ये कोई नहीं चाहेगा।भक्त समाज को भी समझना होगा कि खाली झाल मंजीरा बजाने से अच्छे दिन नहीं लौटने वाले।न आपके, न हमारे और न उनके!
•••••वीरेन्द्र सेंगर