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मिन्टो ब्रिज से पुराने लोहे के पुल तक
नई दिल्ली-करीब 90 साल पहले 1931 में बने मिन्टो ब्रिज में एक इंसान की डूबने से मौत हो गई। अब बुजुर्ग हो चुके मिन्टो ब्रिज का नाम भारत के सन 1905-1910 के बीच वायसराय रहे लॉर्ड मिन्टो के नाम पर रखा गया था।मिन्टो ब्रिज के साथ एक त्रासदी ये रही ही इसकी दोनों तरफ की टूट रही सीढ़ियों को भी रेलवे ने ठीक-ठाक करवाने की कोशिश नहीं की। सीढ़ियों पर जंगली पेड़ उगते रहे । ये एतिहासिक पुल बिना देख-रेख के जर्जर होता रहा। अब मिन्टो ब्रिज रेलवे स्टेशन पर कुछ और लाइन बिछाई जा रही हैं।
हालांकि कागजों पर मिन्टो ब्रिज का नाम शिवाजी ब्रिज हुए एक अरसा गुजर चुका है, पर ये अब भी कहलाता मिन्टो ब्रिज ही है। ये निश्चित रूप से पुरानी दिल्ली को नई दिल्ली से जोड़ने वाला पहला पुल था। हालांकि 1982 में राजधानी में आयोजित एशियाई खेलों के दौरान रंजीत सिंह फ्लाईओवर के बनने के बाद मिन्टो ब्रिज का पहले वाला महत्व तो नहीं रहा। लाल ईंटों से बना मिन्टो ब्रिज लंबे समय तक बड़ी कंपनियों को अपने उत्पादों का प्रचार करने के लिहाज से सबसे उपयुक्त स्थान नजर आता था। वे इसके मत्थे से लेकर दायें-बायें अपने उत्पादों के बोर्ड लगाती रहीं। अब तो तिलक ब्रिज ( पहले हार्डिग ब्रिज) के सामने सब फेल हैं। ये भी मिन्टो ब्रिज के साथ ही बना था।
इस बीच, आज से बीसेक साल पहले तक इससे सटा था ‘ब्लू स्टार’ नाम का एक रेस्तरां । उसमें बड़े-बड़े सीमेंट के प्याले बने हुए थे। उसके भीतर सीमेंट की कुर्सियां बनी थी। वहां पर लोग बैठकर गपशप करते थे। इधर कुछ समय तक कैबरे डांस भी होता था। अब उस दौर को गुजरे हुए एक अरसा सा हो गया है।
मिन्टो ब्रिज पर मिलते दो कथाकार
हिन्दी के दो वरिष्ठ कथाकारों की जिंदगी से मिन्टो ब्रिज जुड़ा रहा । ‘तमस’ वाले भीष्म साहनी जी अपने अजमेरी गेट स्थित दिल्ली जाकिर हुसैन कॉलेज ( जवाहरलाल नेहरु मार्ग) से पैदल ही कनॉट प्लेस के कॉफी हाउस में मिन्टो ब्रिज को पार करते हुए आते-जाते थे। इस दौरान, उन्हें कई बार अवारा मसीहा के रचयिता विष्णु प्रभाकर का साथ भी मिल जाया करता था। वे अजमेरी गेट की गली कुंडेवालान के अपने घर से कॉफी हाउस जा रहे होते थे। कई बार दोनों मिन्टो ब्रिज के नीचे भुट्टा लेकर अपनी मंजिल की तरफ बढ़ते । कभी-कभी दोनों मिन्टो ब्रिज के नीचे ही किसी रचना पर बहस भी करने लगते ।
दिल्ली का लैंडमार्क लोहे का पुल
दिल्ली के रेलवे पुलों की बात करते हुए यमुना नदी पर बने लोहे के पुल की बात कैसी नहीं होगी। ये शुरू में सिंगल लाइन था। इसे 1934 में डबल लाइन किया गया था। 850 मीटर लंबे पुल को हेरिटेज पुल का दर्जा प्राप्त है। यह दिल्ली के सबसे शानदार लैंडमार्ड में से एक माना जाएगा। आप जरूर दिल्ली आते-जाते वक्त इसके ऊपर रेल से गुजरे होंगे। जब रेल इसके ऊपर से निकलती है,तब जिस तरह की आवाजें आती हैं, वो कही न कहीं भयभीत भी करती हैं।
ये 1863 में बनना चालू हुआ था और 1866 में बनकर तैयार हो गया। यानी चचा गालिब के जीवनकाल में यह बन गया था। ये जब बनने लगा उससे पांच साल पहले ही मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को रंगून कैद में भेज दिया गया था। इसपुल की खास बात है कि यह दिल्ली के एक दूसरे लैंडमार्क लालकिला से सटा हुआ ही है। रेलवे बोर्ड के पूर्व सदस्य डा. रविन्द्र कुमार कहते हैं कि लोहे के पुल के बनने से पहले कलकता और लाहौर से दिल्ली आने वाले नदी मार्ग से पहुंचते थे। जरा कल्पना करें उस दौर की दिल्ली की। ये भी ध्यान रखा जाए कि ब्रिटेन में ट्यूब रेल सेवा 1860 के आसपास चालू हो गई थी। यमुना नदी के एक ओर पूर्वी दिल्ली और दूसरी ओर बसी पुरानी दिल्ली को आपस में जोड़ने के लिए रेलवे के लिए कलकता की ब्रेलवाइथ एंड कंपनी इंडिया लिमिटेड ने इसका निर्माण किया था।
इस पुल में लगी लोहे के गार्डरों को प्री-कास्ट कर इंग्लैंड से लाकर यहां जोड़कर पुल बनाया गया था। ये दो मंजिला ब्रिज है। इसके नीचे सड़क मार्ग है और ऊपर रेलें चलती हैं।इसके निर्माण में लगभग सवा सोलह लाख रुपये की कुल लागत आई थी।
पुराने दिल्ली वालों को याद होगा जब 1978 में यमुना पर बाढ़ आई तो पानी लोहे के पुल के ऊपर से बहने लगा था। इसके आसपास की तमाम बस्तियां डूब गई थीं। तब दिल्ली वाले बाढ़ को देखने इसके आसपास पहुंच गए थे। आखिर दिल्ली वाले पहली बार बाढ़ को देख रहे थे।
लुथियन ब्रिज से कौड़िया ब्रिज तक
इस बीच, लुथियन ब्रिज का कमोबेश मूल स्वरूप बरकरार है। ये 1867 में बना था। इसका नाम रखा गया था एक गोरे अंग्रेज कर्नल सर जॉन कॉर लुथियन के नाम पर। वो ब्रिटेन की इंजीनियरिंग सेवा में थे।लुथियन ब्रिज के ठीक पीछे लुथियन कब्रिस्तान है। उधर कई गोरे चिरनिद्रा में है। इसके आगे ही कश्मीरी गेट का जनरल पोस्ट आफिस (जीपीओ) है। लुथियन ब्रिज से कुछ ही फांसले पर कौड़िया ब्रिज है।
Vivek Shukla 20 July 2020