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महामानव बनेंगे हमारे बच्चें / कुमार नरेंद्र सिंह

 आज दिनांक 23.8.2020 को राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित मेरा लेख। यह लेख नयी शिक्षा नीति के विरोधाभाषों पर केंद्रित है।


महामानव बनेंगे हमारे बच्चे

कुमार नरेन्द्र सिंह


भारत की नयी शिक्षा नीति 2020 सरकार द्वारा स्वीकृत हो चुकी है और अब वह उड़ान भरने को तैयार है। वैसे इसकी तैयारी बहुत पहले से ही हो रही थी और पिछले साल इसे केवल इसलिए रोका गया था कि दक्षिण भारतीय राज्यों ने हिन्दी थोपे जाने की आशंका से इसका जबर्दस्त विरोध किया था। अब चूंकि नये ड्राफ्ट में राज्यों को शिक्षण की भाषा चुनने का विकल्प दे दिया गया है, इसलिए उनके विरोध का आधार खत्म हो गया। हमें बताया गया है कि इस नयी शिक्षा नीति से भारत शिक्षा का वैश्विक गढ़ बन जाएगा और एक बार फिर विश्वगुरू बनेगा। 

यदि 17 अगस्त को आयोजित वेबिनार में शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक के भाषण पर गौर किया जाए, तो ऐसा लगता है, जैसे शिक्षा नीति का उद्देश्य लोगों को केवल शिक्षित करना नहीं है, बल्कि वैश्विक नागरिक और तत्पश्चात महामानव तैयार करना है। अपने भाषण में नयी शिक्षा नीति की वह भूरी-भूरी प्रशंसा करते हैं। वह हमें बताते हैं कि नयी शिक्षा नीति से देश का कायाकल्प हो जाएगा और जो भारत आज अपनी प्रगति के लिए दूसरे देशों पर निर्भर है, वह इस नयी शिक्षा नीति के बल पर न केवल अपनी किस्मत संवारने में सक्षम होगा, बल्कि पूरी दुनिया को एक नयी राह दिखाएगा। इस शिक्षा के जरिए वैश्विक मानव तैयार होंगे। वह यहीं पर नहीं रुकते हैं, बल्कि बड़ी शान से बताते हैं कि इस नयी शिक्षा नीति के माध्यम से हम महामानव तैयार करेंगे। वह कहते हैं, ‘हम महामानव बनाने के लिए ही पैदा हुए हैं’। वेबिनार में शामिल दर्जनों विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर्स ने उनकी बातों का जमकर स्वागत किया। वेबिनार की बातों से ऐसा महसूस हुआ, जैसे अब भारत जल्दी ही शिक्षा के मामले में विश्व का पथप्रदर्शन करने लगेगा। हमारे कॉलेज और विश्वविद्यालय जल्दी ही अपनी घिसटती चाल को सदा के लिए तिलांजलि दे देंगे और शैक्षणिक विकास के पथ पर इतनी तेजी से दौड़ेंगे कि दुनिया देखती रह जाएगी। इसके अलावा वे यह भी बताते हैं कि इस शिक्षा नीति से स्वच्छ भारत, स्वस्थ्य भारत, आत्मनिर्भर भारत और अंतत: श्रेष्ठ भारत का निर्माण होगा।

नेशनल बोर्ड ऑफ एक्रिडेशन के चैयरमैन के. के. अग्रवाल ने तो यह भी बताया कि हमारे देश के पास एक छठी इंद्रीय है, जिससे हम जान जाते हैं कि आगे क्या होनेवाला है। यह अलग बात है कि इस छठी इंद्रीय के जरिये आज तक हम यह नहीं जान सके कि देश की मौजूदा शिक्षा व्यवस्था इतनी कमजोर क्यों है। वह बताते हैं कि नयी शिक्षा नीति का उद्देश्य समाज में इक्वालिटी (समानता) लाना है। इक्वालिटी की व्याख्या करते हुए वह बताते हैं कि इसका मतलब ई+क्वालिटी है। इक्वालिटी की ऐसी व्याख्या क्या किसी ने सुनी है? शायद नहीं। इसी तरह यूजीसी के चेयरमैन सहस्त्रबुद्धे सभी छात्रों में 14 गुण विकसित करने की बात कहते हैं। इसके अलावा स्वायत्तता पर भी पूरा जोर दिया गया है। बहरहाल, पूरा वेबिनार कल्पना और संकल्पना की उड़ान लेते प्रतीत हो रहा था, जहां ठोस व्यवस्था के लिए कोई जगह नहीं दिखायी दे रही थी।

इसमें कोई शक नहीं कि स्वायत्तता और इंटर डिसिप्लीन की बात किसी भी उच्च शिक्षा संस्थान की गुणवत्ता और प्रसार में सहायक हो सकती है। लेकिन लगता है कि हमारी सरकार को जमीनी हकीकत का कोई भान नहीं है। दूसरी तरफ स्वयत्तता की बात भी भ्रामक लगती है, क्योंकि यह स्वायत्तता शिक्षण संस्थाओं को स्वाभाविक रूप से या स्वत: प्राप्त नहीं होगी, बल्कि आकलन के आधार पर स्वायत्तता प्रदान की जाएगी। जाहिर है कि इसमें केवल सरकार की चलेगी औऱ स्वायत्तता की बात बेमानी होकर रह जाएगी।

यहां इस बात का जिक्र करना जरूरी लगता है कि शिक्षा नीति को तैयार करने और उसे स्वीकृत किए जाने के क्रम में अनेक जरूरी मुद्दों को छोड़ दिया गया है। इसे तैयार करने में  न तो शिक्षा से जुड़े लोगों या संस्थाओं की राय ली गयी और न संसद में इस पर कोई बहस हुयी। कल्पना करना कठिन नहीं है कि बिना संसद की राय जाने और बिना बहस करने के पीछे सरकार का उद्देश्य क्या रहा होगा। जहां तक स्वयत्तता की बात है, तो यह स्पष्ट नहीं है कि इससे सरकार का क्या आशय है। कुल मिलाकर जो तस्वीर उभरती है, वह यही है कि संस्थाओं को वित्तीय स्वयत्तता प्रदान की जाएगी। इसका मतलब कोई यह न समझे कि शिक्षण संस्थाओं को अपने हिसाब और जरूरतों के हिसाब से सरकारी फंड खर्च करने की स्वायत्तता होगी। वास्तव में इसका अर्थ केवल यह है कि फंड जुटाने के लिए संस्थाएं स्वायत्त होंगी। ऐसे में जाहिर है कि हमारी शिक्षण संस्थाएं वंचित तबके का कोई खयाल नहीं रख पाएंगी, क्योंकि वे उन्हीं छात्रों का एडमिशन लेंगी, जो ज्यादा से ज्यादा पैसे दे सकें।

यह जानने के लिए किसी शोध की आवश्यकता नहीं कि आज देश में शिक्षण संस्थाओं की क्या हालत है। देश के महाविद्यालयों औऱ विश्वविद्यालयों में हजारों पद खाली हैं। स्थायी शिक्षकों का तो अकाल-सा हो गया है। आप कल्पना कीजिए कि पटना विश्वविद्यालय के समाज शास्त्र विभाग में केवल एक स्थायी शिक्षक है। यही हाल देश के अन्य कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का है। दिल्ली विश्वविद्यालय में हजारों शिक्षक अनुबंध पर काम करते हैं, जिन्हें समय पर वेतन तक नहीं मिलता। क्या ऐसे ही अनुबंध शिक्षकों के बल पर हम विश्वगुरू बनेंगे। पिछले एक दशक में देश के 179 पेशेवर शिक्षण संस्थान बंद हो चुके हैं, जबकि सैकड़ों संस्थानों ने नए एडमिशन लेने से इनकार कर दिया है।

स्कूली शिक्षा का हाल तो और भी बेहाल है। एक तो देश में तरह-तरह के विद्यालय हैं। बिहार औऱ उत्तर प्रदेश में तो सरकारी प्राइमरी स्कूलों का पूरी तरह दलीतीकरण हो चुका है। अब इन स्कूलों में केवल दलित और अत्यंत निर्धन घरों के बच्चे ही पढ़ने जाते हैं, वह भी इसलिए कि वहां उन्हें दोपहर का भोजन मिल जाता है। माना कि बच्चों के पास भाषा का विकल्प दिया गया है, लेकिन जिन बच्चों को भरपेट खाना भी नसीब नहीं होता, उन्हें तो इन्ही गए-गुजरो स्कूलों में पढ़ना होगा और हिन्दी में ही पढ़ना होगा। ऐसे में उनका शैक्षणिक विकास कैसा होगा औऱ वे पढ़कर कौन-सा नौकरी पाएंगे, समझना मुश्किल नहीं है। कहा जाए, तो इस नयी शिक्षा नीति में गरीबों, वंचितों के लिए कोई जगह नहीं है। इस तरह हम देखते हैं कि भाषा का विकल्प केवल एक साजिश है, वंचितों को शिक्षा से वंचित रखने की।

हमारे शिक्षा मंत्री निशंक और उनकी हां में हां मिलानेवाले तथाकथित शिक्षाविद, वाइस चांसलर्स और अन्य समर्थक जो कहें, लेकिन सच तो यही है कि यह शिक्षा नीति समाज के एक बड़े हिस्से को अशिक्षित रखने और एक खास यानी धनी तबके को लाभ पहुंचाने के लिए ही बनायी गयी है। यदि सरकार शिक्षा को बेहतर और सबके लिए सुलभ बनाना चाहती है, तो सबसे पहले उसे समान शिक्षा व्यवस्था बनाने की दिशा में काम करना होगा, वरना यह शिक्षा नीति केवल खयाली पुलाव बनकर रह जाएगी।

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