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रवि अरोड़ा की नजर से...

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 ना मैं गिनाँ ते ना मेरे घटण


रवि अरोड़ा

बीस-पच्चीस साल पहले जब फ़ील्ड रिपोर्टिंग करता था , उन दिनो पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी फ़रवरी माह में एक वार्षिक प्रेस मीट करते थे और बीते साल में हुए अपराधों के आँकड़े अख़बारों के प्रतिनिधियों को उपलब्ध करवाते थे । दरअसल उस दिया गया पुलिस का प्रेस नोट झूठ का पुलिंदा और आँकड़ों की बाज़ीगिरी भर होता था और अधिकारियों की उम्मीद के विपरीत उसे यथावत कोई भी अख़बार नहीं छापता था । रिपोटर्स की थानेवार मुंशियों से सेटिंग और डिस्ट्रिक्ट कंट्रोल रूम में भी जुगाड़ के चलते कोई ख़बर उनसे छुपती न थी । साल भर बाद पुलिस अधिकारी जब दावा करते कि उनके कार्यकाल में फ़लाँ अपराध केवल इतने हुए तो रिपोर्टर लिखते कि नहीं, सही आँकड़ा यह है। अनाड़ी से अनाड़ी क्राइम रिपोर्टर भी सारे अख़बार खँगालता था और प्रतिदिन हो रहे अपराधों को अपनी डायरी में लिखता जाता था । अब पुलिस कुछ भी बताये मगर हर रिपोर्टर को पता होता था कि अपराध का असली आँकड़ा क्या है ? अब जब केंद्र सरकार कह रही है कि लॉक़डाउन में कितने श्रमिक मरे, यह जानने का कोई साधन उसके पास नहीं है । तब मेरी तुच्छ बुद्धि में यह सवाल आता है कि क्यों नहीं देश भर में जिले वार अख़बारों की कटिंग मँगवा ली जातीं ? दूध-पानी सामने आ जाएगा । वैसे दुर्घटना हुई होगी तो पोस्टमार्टम भी अवश्य हुआ होगा । तमाम मोर्चरी से भी उस दौरान के आँकड़े मँगाये जा सकते हैं । मार्च से जून तक जब सख़्त लॉक़डाउन था और परिंदा भी पर नहीं मार पा रहा था, ज़ाहिर है ऐसे में दुर्घटना में मरा व्यक्ति श्रमिक ही रहा होगा । सरकार की मुआवज़ा देने की नीयत हो तो इससे बेहतर तरीक़ा और भला क्या होगा ? माना कि इससे दो चार फ़ीसदी ग़ैर श्रमिकों को भी शायद मुआवज़ा मिल जाये , तब भी इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है ? 


ग़ैर सरकारी सूत्र कहते हैं कि लॉक़डाउन में छः सौ प्रवासी श्रमिकों की विभिन्न दुर्घटनाओं में मौत हुई । सबसे कम आँकड़ा सेव लाइफ़ फ़ाउंडेशन का है और उसके अनुसार भी 198 श्रमिकों की उस दौरान मौत हुई । 30 मई तक 82 मज़दूरों के स्पेशल ट्रेनों में मरने की बात स्वयं रेलवे ने स्वीकारी थी । 16 मई को औरेया में सड़क दुर्घटना में 24 प्रवासी श्रमिकों , 8 मई को महाराष्ट्र के ओरंगाबाद में 16 श्रमिकों की ट्रेन से कुचल कर और 14 मई को गूना में ट्रक-बस की टक्कर में 8 श्रमिकों की मौत तो राष्ट्रीय सुर्ख़ियों में भी थीं । अब और किस तरह का आँकड़ा सरकार को चाहिये ? कैसे उसने बेशर्मी से संसद में कह दिया कि लॉक़डाउन में मरे श्रमिकों का कोई आँकड़ा उसके पास नहीं है ? अजब सरकार है । उसकी मूर्खता से कितने लोग बेरोज़गार हुए, कितनो की मौत हुई और कितने अब भूखे मर रहे हैं , उसके पास कोई आँकड़ा ही नहीं है ? बूचड़खाने में शाम तक कितने जानवर कटे यह आँकड़ा भी जब रखा जाता है तो क्या ये श्रमिक जानवरों से भी गये गुज़रे थे ? जानवरों की तरह सड़कों पर भूखे-प्यासे मरे मज़दूरों के परिवारों को मुआवज़ा नहीं देना तो मत दो । कोई आपके पास माँगने तो नहीं आ रहा मगर यह कहना कि मारे गए मज़दूरों की गिनती करने का कोई साधन आपके पास नहीं है , यह तो बेहद ही शर्मनाक है । वैसे आप अपने उन नेताओं को इस काम पर लगाओ न जो गिन लेते हैं कि कितने आदमियों का इस साल धर्मांतरण हुआ, इतनो का लव जेहाद हुआ अथवा फ़लाँ क़ौम की कितनी आबादी बढ़ रही है । उन लोगों को लगाओ जिन्होंने जेएनयू में सिगरेट के टोटे, शराब की बोतलें और इस्तेमाल किये हुए कंडोम गिने थे । अजी नीयत हो तो क्या नहीं हो सकता ? सच कहूँ तो  किसी मामूली से क्राइम रिपोर्टर के ज़िम्मे भी यह काम लगाओगे तो वह भी हफ़्ते भर में अख़बारों से टोटल करके दे देगा । हाँ पंजाबी व्यापारियों की तरह आपने भी तय कर लिया है कि न मैं गिनाँ न मेरे घटण तो बात दूसरी है ।


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