ग्वालियर किला: -यहां इत्र में नहाती थीं रानियां, फांसी पर लटके थे बाग़ी /
ग्वालियर। मैं गढ़ गोपाचल हूं, आज लोग मुझे पूर्व के जिब्राल्टर और ग्वालियर किले के रूप में पहचानते हैं। दुनिया भर की धरोहरों को सहेजने के क्रम में मुझे यूनेस्को ने सम्मानित किया है। सम्मानों / सराहनाओं से अब मैं बहुत खुश नहीं होता। निर्विकार भाव से मैं पहले भी अपमान और सम्मान को पचा लेता था, अब भी वैसे ही आत्मसात करता हूं।
मुझे भारत या पूर्व का जिब्राल्टर कहा गया, क्योंकि जिस तरह भूमध्य सागर की छाती पर उग आई इस मजबूत चट्टान ने यूरोप को अफ्रीका के रास्ते अरब हमलों से महफूज रखा, उसी तरह मैंने भी हिंदुस्तान की उत्तरी सीमाओं से देश की दहलीज दिल्ली तक घुस आए आक्रमणकारियों
को बस वहीं तक रुके रहने को मजबूर कर दिया था। कोई भी सूरमा मुझे ललकार कर सीधे पराजित करते हुए इस रास्ते से देश के पश्चिमी और दक्षिणी प्रदेशों में नहीं घुस सका।
ऐसा नहीं है कि मैं कभी हारा नहीं...थका नहीं या परेशान नहीं हुआ, लेकिन जब-जब मैं हारा, वजह अपनों के दिए घाव ही रहे। अपनी ही संतानों के भितरघातों ने मुझे अपमान के वो दंश दिए कि अब किसी सम्मान का अमृत उस विष के असर को खत्म नहीं कर सकता। आज भी ढेरों टूरिस्ट आते हैं। मेरे कोने-कोने को कौतूहल से ताकते हैं और अलग-अलग व्याख्या करते हैं।
किसी को वो जगह आकर्षित करती है, जहां बंदियों को फांसी दी जाती थी, तो कोई उस जगह को देखकर मुग्ध होता है, जहां रनिवास था। जहां रानियां गुलाब जल और तरह-तरह के इत्र और फूलों की खुशबू से भरे पानी में स्नान करती थीं. तो कोई उस एकांत की छांव को पसंद करता है, जहां बुर्ज में बैठकर मेरा मुखिया अपनी प्रजा को दर्शन देता था.कोई गदगद हो जाता है तोप के मुहाने पर बैठकर...यहां शोर है बच्चों की मस्ती का, यहां नाद हैं सुरों का, यहां का मौन, सन्नाटा भी आवाज़ करता है..आइए ज़रूर एक बार मुझसे मिलने..मुझे क्यूं हर साल बेहतरी का सरकारी प्रमाण पत्र मिलता है, ये खुद आपके कान में बुदबुदा कर मैं ही बताऊंगा. मैं ग्वालियर का क़िला बोल रहा हूं...
( दैनिक भास्कर से अनुसरण )