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प्यार औऱ सम्मान की अपेक्षा

 बुर्जुगवारों को दया नहीं, दुलार चाहिए   मनोज कुमार


आप देश की राजधानी दिल्ली में रहते हों, या मायानगरी मुंबई में, आप इंदौर में रहते हैं, मैं भोपाल में रहता हूं. कोई किसी शहर में रहता हो लेकिन अपने अपने शहर से गुजरते हुए किसी वृद्धाश्रम से आपकी मुलाकात जरूर होती होगी. किसी शहर में दो-एक तो किसी शहर में आबादी के मान से कुछेक और बड़ी संख्या में वृद्धाश्रम. वैसे ही जैसे आपके-मेरे शहर में मंदिर-मस्जिद-गुरुद्धारा-चर्च आदि-इत्यादि हुआ करते हैं. वृद्धाश्रम और धार्मिक स्थलों में एक बारीक सा फर्क है. धार्मिक स्थलों के पास से गुजरते हुए मत्था टेक लेते हैं अपने लाभ-शुभ की कामना के साथ लेकिन दो मिनट के लिए भी हमारे पांव वृद्धाश्रम पर नहीं ठिठकते हैं. टिके भी तो क्यों? जिन्हें हमने बेकार और बेकाम बनाकर घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया है, वो हमारे किस काम के? उनसे कौन सी लाभ-शुभ की कामना करें? ऊपरवाले का एक अनजाना सा जो भय हमारे दिलो-दिमाग में है, वह डर अपने बूढ़े मां-बाप से कब का खत्म हो चुका है. यह एक हकीकत है हमारे उस भारतीय समाज की जहां हम ‘वसुधै कुटुम्कम्ब’ की बातें करते नहीं थकते हैं लेकिन अपने ही घर के कुटुम्ब को बिखरने से रोक नहीं पाते हैं. 


यह कड़़ुआ सच है और इस सच को जाहिर करने के लिए हमारे पास एक तिथि है 1 अक्टूबर. हालांकि पश्चिमी मिजाज ने जो और भी तारीखें तय कर रखी हैं डे के नाम पर उनमें से एक डे अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस भी है. हालांकि यूरोपियन के लिए ये डे होते हैं और भारतीय समाज के लिए तिथि. तिथि अर्थात वह कड़े दिन जब हम अपने स्वर्गवासी लोगों का स्मरण करते हैं. याद नहीं करते तो उन लोगों को जिन्हें हमने वृद्धाश्रम भेज दिया है. संयुक्त राष्ट्रसंघ चिंता करके अलग अलग तारीखों पर ऐसे दिन तय कर देता है. अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस भी उसने कोई दो दशक पहले इस उम्मीद से तय किया था कि वृद्धजनों के साथ अन्याय एवं दुव्र्यवहार के खिलाफ लोगों में जागरूकता आएगी. यूरोप के लोगों में कितनी जागरूकता आयी, कह पाना मुश्किल है लेकिन यूरोप से भारतीय समाज ने वृद्धाश्रम का कांसेप्ट ले आए. अब बुर्जुगवार घर में ही नहीं होंगे तो ना अन्याय होगा और ना दुव्र्यवहार. शायद इस तरह हम भारतीयों ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के मोटो को सच कर दिखाया है.


वृद्धाश्रम भारतीय संस्कृति के खाने में कहीं फीट नहीं बैठता है. आज बच्चों और युवाओं में जो तनाव आ रहा है, उसका एक बड़ा कारण वृद्धों से दूरी बनाना है. भोपाल की हालिया घटना इस बात की गवाही देती है कि एक बेटी लूडो के खेल में पिता से हार जाती है. उसे लगता है कि पिता उसे प्यार नहीं करता और वह परामर्श केन्द्र पहुंच जाती है. बेटी का यह दुख जायज है कि मां होती तो शायद ऐसा नहीं होता. लेकिन ऐसे असंख्य बच्चे हैं जो अपने दादा-दादी, नाना-नानी की परछायी में ना केवल सुकून में रहते हैं बल्कि उन्हें इस बात का हौसला भी होता था कि उनकी सुरक्षा के लिए ये हैं ना. अब वे किससे कहें कि उनकी सुरक्षा का हौसला कौन दे? उन्हें संस्कार कौन दे? पहले सामूहिक परिवारों का टुकड़ा-टुकड़ा हुआ और अब एकल परिवार में मां-बाप के होने के बाद भी बच्चे भयभीत हैं. परियों की कहानी सुनाने वाला कोई नहीं है. ऊंच-नीच की बातें सिखाने वाला गुरुकुल टूट गया है. दूसरी तरफ अपने नन्हें बच्चों से विलग होकर वृद्धाश्रम में रोज आंसू बहाते, सांसों को गिनते समय काट रहे हैं. यह सब बदलाव और बदनीयती का यह समय कोई दो दशकों में पसरने लगा है. ऐसा भी नहीं है कि यह बीमारी पूरे समाज में फैल गई है. बहुतेरे लोग हैं जो अपने माता-पिता के साथ रहते हैं. दोनों को किसी से शिकायत नहीं.


जब भारतीय समाज में पहला वृद्धाश्रम बना तो हमने विरोध नहीं किया. विरोध नहीं करने का कारण भी नाजायज रहा होगा. मन में एक सोच तो यह रही होगी कि इन वृद्धों से छुटकारा पाने का यह सुगम रास्ता है. लोग क्या कहेंगे कि लोक-लाज में थोड़े समय तो बूढ़े मां-बाप को वृद्धाश्रम भेजने से रोकते रहे लेकिन निर्जल्लता जब मन में घर कर गई तो वृृद्धाश्रम उनके सामने विकल्प था. बहाना भी ऐसा कि थके-हारे घर में आओ तो पत्नी की शिकायतों से तंग हो जाते थे. ऐसा करने वाले भूल गए कि बचपन में यही मां-बाप उनकी शिकायतों का हल ढूंढते थे. आप भी दिलासा दे सकते हैं कि घर में जिल्लत की जिंदगी जीने से बेहतर वे वृद्धाश्रम में हैं. यह सब उस टोटके की तरह है जब आप किसी बीमारी के वशीभूत हो जाते हैं. 


वृद्धाश्रम आश्रय नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति में एक रोग की तरह स्थायी जगह बना लिया है. परिजनों ने उन्हें निकाल बाहर किया है तो क्या पूरा समाज भी उन्हें बहिष्कृत मान बैठा है? मेरे बच्चे का जन्मदिन होगा तो मैं कुछ कपड़े और मिठाई, शायद दवा जैसी और कुछ जरूरी सामान लेकर पहुंच जाऊंगा. कोई खुशी मुझे मिली तो एक बार फिर मुझे वृद्धाश्रम में जिंदगी के दिन गिनते बुर्जुगवार याद आएंगे. सालाना जलसे की तरह इन वृद्धजनों का स्मरण करने के बजाय बहुत ज्यादा नहीं तो सप्ताह में एक बार उनके साथ समय बिताएं. उन्हें उनके होने का अहसास दिला तो सकते हैं. किसी बेटे-बहू का रवैया उनके लिए निर्दयी है तो आप उन्हें चाचा-चाची, मौसी, मामा और ऐसे ही रिश्तों के ताने-बाने में गुंथ कर उन्हें अकेलेपन से निजात दिला सकते हैं. उनके मन के भीतर का घाव भर सकते हैं लेकिन हम ठहरे उत्सवी लोग. ये लोग हमारे लिए टाइमपास हैं और हमारे मन में दान का भाव है. हम अभिभूत हो जाते हैं उन्हें कुछ देकर.


वृद्धाश्रम में जिन बुर्जुगवारों को पनाह मिली हुई है, वे सब अपने अपने फन के माहिर हैं. पता करेंगे तो कोई अकाउंट का मास्टरपीस है तो किसी के पास इंजीनियरिंग का लम्बा अनुभव है. कोई हिन्दी-अंग्रेजी में माहिर है तो किसी के पास गणित और विज्ञान का अनुभव अकूत है. इनके अपनों ने तो इन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया है. अब समाज की बारी है कि इन्हें दुबारा जीने का हौसला दें. सरकार और प्रशासन से गुजारिश करें कि इन लोगों की सेवाएं स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने में ली जाए. महंगे कोचिंग कक्षाओं से मुक्ति दिलाकर आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों की क्लास वृद्धाश्रम में लगायी जाए. इसमें सम्पन्न घरों के बच्चे भी पढऩे जा सकते हैं लेकिन उन्हें इसकी फीस अदा करने की शर्त भी रखी जाए. बुर्जुग महिलाओं मेें कोई सिलाई-बुनाई में दक्ष हैं तो किसी के पास लजीज खाना बनाने का गुण है. इनके अनुभव का लाभ भी लेने का कोई इंतजाम किया जाए. ऐसा करने से उनका अकेलापन ना केवल दूर होगा बल्कि ये लोग दुगुने उत्साह से जीवन जीने लगेंगे. उम्र के इस पड़ाव में इन्हें पैसों की बहुत जरूरत नहीं है. उन्हें अपनापन चाहिए. उन्हें हौसला चाहिए. क्यों ना इस बार अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस पर वृद्धाश्रम को गुरुकुल का चेहरा दें. बुर्जुगों के प्रति अन्याय और दुव्र्यवहार के प्रति जागरूकता की संयुक्त राष्ट्रसंघ की मंशा को सच कर दिखाएं. ध्यान रखिए हमारे बुर्जुगवार को दया नहीं, दुलार चाहिए. हमने मिलकर संकल्प लेकर ऐसा कर लिया तो भारतीय समाज से वृद्धाश्रम का यह कलंक आहिस्ता आहिस्ता दूर हो सकेगा. ध्यान रखिए हमारे बुर्जुगवार को दया नहीं, दुलार चाहिए.    


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