किताब गली / घूमो मगर प्यार से
कई बार गंभीर व्यंग्य की तीक्ष्णता से आम पाठक उचटने लगते हैं, जबकि बाज दफा हास्य की अधिक मात्रा विषय को ही हल्का कर देती है। इस चुनौती के बीच, अर्चना चतुर्वेदी के व्यंग्य ‘मध्यमार्गी’ हैं और धीमी रफ्तार से जोर का झटका लगा देते हैं...
घूरो मगर प्यार से
व्यंग्यकार : अर्चना चतुर्वेदी
प्रकाशक : भावना प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य : 195 रुपए
व्यंग्य में साफ नज़र आते किरदार
भवानी प्रसाद मिश्र ‘कलम अपनी साध’ का आह्वान करते हुए लिखते हैं – ‘जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख / और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख’। इस तरह वे लेखन में सहज और ईमानदार होने की सीख देते हैं। व्यंग्यकार अर्चना चतुर्वेदी के जीवन और सृजन पर ये बात अलहदा तरीके से लागू होती है। वे स्वयं स्पष्ट और बिंदास हैं और उनका लेखन भी इसका प्रतिबिंब है।
अर्चना ने नए व्यंग्य संग्रह ‘घूरो मगर प्यार से’ में धारदार शैली बरकररार रखी है और सामाजिक विसंगतियों पर मीठी चुटकी भी ली है। गौरतलब है कि व्यंग्य में जब हास्य समाहित होता है, तब उसकी तीक्ष्णता कम हो जाती है। बावजूद इसके समकालीन व्यंग्य लेखन अधिकतर जगह हंसगुल्ले बन गया है। इस स्थिति से निराशा होती है, लेकिन अर्चना की सफलता कहेंगे कि वे मध्यमार्ग का निर्माण कर पाई हैं। उनका व्यंग्य एकबारगी तो घायल नहीं करता, लेकिन ऐसे निशान ज़रूर बना देता है, जिससे देर में, देर तक दर्द होता रहता है।
अर्चना हास्य की चाशनी में मिर्च के पकौड़े डुबाकर रखने के कौशल से लैस हैं। ये कला उन्हें अलग स्तर तक पहुंचाती है। 49 व्यंग्य आलेखों के संग्रह में एक रचना ‘कविवर, कैब और कन्या’ याद आती है। इसमें कैब यात्रा के दौरान लोलुप कविवर ‘हनी ट्रैप’ का शिकार हो जाते हैं। ये देखना मनोरंजक है और साहित्य जगत में आई गिरावट भी बयां करता है।
पिछले एक दशक से व्यंग्य की दुनिया में सक्रिय अर्चना चतुर्वेदी ने लेखक समाज की कुरीतियों और कृत्रिमता पर बेधड़क कलम चलाई है। ‘जंग बहादुर की पहली किताब’, ‘लेखक की आत्मा’, ‘साहित्यिक दिगम्बर’, ‘हिंदी की व्यथा’ जैसी रचनाएं इसका नायाब उदाहरण हैं। दृश्य-श्रव्य माध्यमों से जुड़ाव के चलते उनके व्यंग्य में भरपूर चित्रात्मकता है, जो अर्चना के लेखक को लाभ पहुंचाती है। दरअसल, राजनीति पर व्यंग्य लिखना कदरन सरल है, क्योंकि वहां वर्णित पात्रों की देह भाषा और चरित्र की बुनावट पाठक के जेहन में पहले से छपी होती है, लेकिन सामाजिक मुद्दों पर लिखा व्यंग्य पढ़ते समय ‘इमेजिनेशन’ का सहारा लेना पड़ता है। अर्चना की बिंबात्मकता यहीं पर कारगर सिद्ध होती है। वे हमारे आसपास के लोगों, रिश्तों, चाल-बनावट और व्यवहार को व्यंग्य का विषय बनाती हैं, फिर भी उनके किरदार साफ नज़र आते हैं।
- चण्डीदत्त शुक्ल