: नमस्कार 🙏
: साथियों आज का सत्र लेकर आ रहे हैं वरिष्ठ व्यंग्यकार सुरेश कांत जी...
दोस्तो, सुप्रभात।
व्यंग्य और हास्य के संबंध पर जब भी बातचीत होती है, व्यंग्यकार दो खेमों में बँट जाते हैं। एक मानता है कि व्यंग्य हास्य के बिना हो ही नहीं सकता, तो दूसरा मानता है कि व्यंग्य हास्य के साथ भी नहीं हो सकता।
एक व्यंग्य-लेखक या समीक्षक या पाठक के रूप में आपको क्या लगता है? आपके विचार सादर आमंत्रित हैं।
यह एक बहुचर्चित विषय है, किंतु अभी तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सका है। और सही व्यंग्य- लेखन के लिए किसी निष्कर्ष पर पहुँचना नितांत आवश्यक है।
तो आइए, व्यंग्य के हित में यह कार्य करें।
: शुद्ध हास्य मुश्किल
इसी प्रकार शुद्ध व्यंग्य भी मुश्किल
स्वागत है सर जी
मेरे विचार से व्यंग्य में हास्य का होना कोई जरूरी नहीं। कई व्यंग्य रचनाएँ बगैर हास्य के दुर्व्यवस्था पर चोट करती हैं।
व्यंग्य में हास्य उसकी प्रभावोत्पादकता को बढाने में सहायक सिद्ध होता है। यह भी एक शैली है , हालांकि हास्य के बिना भी आप अपनी बात कह सकते हैं, इसमें कोई शक नहीं। मेरे विचार से मुख्य चीज है कथ्य; मुख्य चीज है विचारों की सम्प्रेषणीयता जो बरकरार रहनी चाहिए। हास्यबोध या चुटीलापन वह हथियार है जो सामने वाले की बोलती बंद कर देता है। सब कुछ इस अंदाज में कहा जाता है कि सामने वाला जो कि तर्क श्रृंखला के तीरों से पहले ही निरुत्तर हो चुका है वह कुतर्कों का भी सहारा नहीं ले सकता। व्यंग्य वह विधा है जो हर उस आवरण को हटाती है जो लोकदृष्टि से बचाने के लिए स्वार्थी तत्त्वों द्वारा डाला जाता है। यह उदारता के आवरण में छुपी अनुदारता और धूर्तता को सामने लाता है। लोकदृष्टि को सजग करते हुए बौद्धिक चेतना के नए छितिज उपलब्ध कराता है।
यह मैं एक पाठक की हैसियत से लिख रहा हूँ जो मैं समझ सका हूँ। यहां आदरणीय सुरेशकांत सर, चंद्रा साहब और दीक्षित जी जैसे प्रखर व्यंग्यकारों की उपस्थिति में इस विषय को निश्चित रूप से बहुत धार मिलेगी🙏🙏
और हास्य की उपस्थिति व्यंग्य को धार देने के साथ सरस तो बनाती ही है
उनके पाजामे का नाड़ा लटक रहा है, इस पर आप हास्य उत्पादित कर सकते हैं । अगर आप उनके लटकते नाड़े को पकड़ कर उनकी लापरवाही युक्त जीवनशैली पर टीका कर उन्हें सोचने को मजबूर करने का प्रयास हल्की-फुल्की भाषा में कर सकें तो वह हास्य-व्यंग्य हो जाता है ।
जो समझ पाया मैं वो मोटे मोटे अकादमिक, पारिभाषिक, अलंकारिक शब्दों के बिना लिख दिया जी ।
मैं समझता हूँ कि व्यंग गम्भीर हास्य है | इसके लेखन में लेखक की शिकायती आंखों के साथ होंठों के एक कोर से कान तक जाती एक हास्य लकीर बनती है वहीं पठन में पाठक के होठों के दोनों कोरों तक हास्य जाता है और लेखक की एक लकीरीय हास्यधार कहीं पाठक के दिल और दिमाग में गम्भीरतापूर्वक चुभती भी है |
अविनाश व्यास, बीकानेर
हाँ, लेकिन किस तरह? विस्तार से बताएँ, तो कुछ बात बने, वरना तो यह गोलमोल बात होकर रह जाएगी।
हास्य व्यंग्य के बिना भी हो सकता है और व्यंग्य हास्य के बिना भी हो सकता है ।
हास्य का शुद्ध हास्य होना कोई अजूबा नहीं है ।
तीर तलवार निकालने हों तो नंगा व्यंग्य कर लो जी, कौन रोकता है ! जैसा द्रौपदी ने किया था ( मिथक या असल से इतर उदाहरण मात्र है ) ।
यदि व्यंग्य में व्यंग्य जिसे लक्ष्य कर लिखा गया है उसे बदलने का प्रयास करने की चाह है तो हास्य घुसाना पड़ेगा । फ़्रिज़ में से निकाल कर मक्खन की टिक्की को काटना हो तो छुरी तनिक गर्म कर लो जी ।
टंकण की समस्या सर
सर आप wtsup पर रिकार्ड kar सकते
कोई बात नहीं, आप अनुभवी व्यंग्यकार हैं, अपनी बात कुछ अशुद्ध भाषा में भी रखेंगे, तो समूह आपके ज्ञान और अनुभव से लाभान्वित ही होगा।
एक शुद्ध हास्य मुश्किल है क्योंकि इसमें व्यंग्य आ जाता है ke पी Saxena ne शुद्ध हाथ से likha इसी प्रकार tyagi जीने का gene ne भीlikha लेकिन इन मैं जाएंगे इनमें पियेंगी आया बोलकर लिखाया है गलती ke लिए kshama
व्यंग्य को हास्य से अलग स्थापित करना व्यंग्य को निखारता नहीं निरीह बनाता है ! कृष्ण चन्दर ( एक गधे की आत्म कथा ), व्यंग्य के बादशाह हरिशंकर परसाई जी ( प्रतिनिधि व्यंग्य संकलन) , के पी सक्सेना ( गाज फुट इंच ) या शरद जोशी से ज्ञान चतुर्वेदी तक नज़ीर है कि हास्य कहीं भी व्यंग्य से अलहदा नहीं है ! हास्य तो व्यंग्य को सुग्रही बनाता है , संकुचित नहीं ! और फिर कोई व्यंग्यकार लिखते वक्त हास्य और व्यंग्य का संतुलन कैसे तय करेगा ! इस विधा को विवेक चाहिए- विवाद नहीं ! ( विद्वान व्यंग्यकारों के बीच काफी कुछ सीखने को मिल रहा है !)
हास्य की chasni में लिपटा व्यंग्य बेहत
मख़मल में लपेट कर मारें
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