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मनुष्य की शक्ति / विनोद विमल बलिया

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 पूरे ब्रह्मांड में मनुष्य ही एक मात्र प्राणी है जिसके पास सोचने और उसपर अमल करने की कला किसी ईश्वरीय शक्ति ने प्रदान किया है मनुष्य किसी भी परिस्थिति को देखता, सुनता,सोचता और समझता है अर्थात विचारों के समंदर में गोता लगाने या ख्वाबो के आसमा में करतब बाजी दिखाने में मनुष्य के समान पूरे ब्रह्मांड में कोई दूसरा प्राणी नही है।


इसी विशेष गुण के कारण मनुष्य ने शायद पढने लिखने की कला का भी सृजन किया होगा ताकि विचारों को लिपिबद्ध कर उसे संरक्षित किया जाय और उसे अधिकाधिक उपयोगिक किया जाय ।

लिखना और उसे उपयोगी बनाना वास्तव में एक लोक कल्याणकारी विधा है समय के साथ यह कला निरंतर अपने स्वरूप को भी बदलने में भी महारत हासिल किया है लिखने का भी कई अभिप्राय और और प्रयोजन समय के अनुसार बनता चला गया । आज के दौर की बात करें तो इस कला का सानी शायद ही कोई दूसरी विधा हो सकती है । लिखने के विधा में भी समयानुरूप वर्गीकरण होने लगा है जैसे-


कुछ भी लिख दिया जैसा कि मैं कुछ भी लिखते चला जा रहा हूँ।न इसका कोई आरम्भ न ही कोई औचित्य , मन मे कुछ विचारों का आना और लेखनी लेकर बेकद्री से कुछ भी बस लिखते जाना ये तो शायद पागलपन या उससे भी आगे हो सकता है।

अब लिखने का अगला स्वरूप शायद लिखे के ऊपर लिख देना ,उल जूलूल लिखना,बेबाक लिखना, लिखे को मिटा कर सुविधाजनक लिख देना , लिखे के पीछे या आगे कुछ जोड़ कर लिख देना, लिखे को घुमा कर लिख देना , लिखे में तड़का लगा के लिखना, लिखे में कुछ गायब कर लिखना,और सबसे अजीब लिखाई तो वह है जो पढ़ने वाले के अनुरूप ही लिखते रहना, मतलब पाठक ही लेखक बन बैठा और लेखक महाशय बीन के धुन पर अपने अनमोल मोती रूपी शब्दो को उगलते चले गये।

ये तो हुआ लिखने की विधा।

अब चलते है पढ़ने की कला को निहारते है इस कला ने अपने अब तक के किये गए यात्रा में क्या-क्या मुकाम हासिल किया है ।

पढना भी कुछ कम कलाबाजी की विधा नही रही है ये भी समय के साथ अपने स्वरूप में कुछ कम करतब नही दिखाया है जैसा कि पढ़े हुए सारांश को ही पढना, पढते हुए सारांश को ही न पढना, पढ़ते पढ़ते सुविधानुसार पढना , जो मन मे आया बस उसी को पढ़ना। पढना कम समझना ज्यादा, ज्यादा पढना और कुछ भी न समझना, पढ़ पढ़ कर अनपढ़ होना।


पढ़ने की विधा भी लिखने के समाननन्तर ही दूरी तय किया है आज के दौर की बात करें तो लिखने वाला पढ़ने वालों के समानांतर न हो कर पढने वालों का ही बन कर रह चुका है इसका मूल कारण इन दोनों विधाओं का पूंजीवादी होना भी मुख्य कारण हो सकता है। क्योंकि अब यह विधा कम और आर्थिक सुधा ज्यादा बन चुका है।

 आज के दौर से कुछ पहले की बात करें जब हम संचार क्रांति से उन्मुक्त थे उस दौर में अंतर्देशीय पत्रों व पोस्टकार्ड के जमाने में पढने और लिखने का दौर आज के दौर से भिन्न था । उस पढ़ाई और लिखाई दोनों में ही भावना के प्रधानता का समावेश था। और अंत मे एक छोटे से वाक्य मे ही बहुत कुछ लिख और पढ़ लिया जाता था और वो था।


"कम लिखे को ज्यादा समझना और ज्यादा लिखे को कम"

इस लेख का भी शायद सामयिक उद्देश्य ये हो सकता है कि-जो मन मे आया उसे लिख दिया अब आपके मन मे जो उमड़े घुमड़े उसे पढ़ ले क्योंकि ऐसे भी तो पढना लिखना अब कोई विधा तो रहा नही।


                                         विनोद विमल बलिया।


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