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रवि अरोड़ा की नजर से

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 अंधे के पीछे अंधे  /  रवि अरोड़ा


आज माँ की सत्रहवीं थी । घर में हवन और ब्राह्मण भोज का आयोजन हुआ । कल पूरा दिन लगा बाज़ार से सामान एकत्र करने में । लगभग पचास तरह की चीज़ें थीं जो पंडित जी ने मँगवाई थीं । पूरे दिन की मेहनत आधे घंटे में अग्नि में स्वाह हो गईं । माँ के निधन से कम कष्टकारी नहीं रहे मृत्यु से जुड़े रीति-रिवाज़ और परम्पराएँ । अभी तो पूरे साल भर चलेंगे ये तमाम दक़ियानूसी तमाशे । ये करो , ये मत करो । ऐसे बैठो, ऐसे सोवो । ये खाओ, ये मत खाओ । अंतिम संस्कार, चौथा, तेरहवीं, उठावनी, रस्म पगड़ी और अब सत्रहवीं तक ढकोसलों की इतनी बड़ी फ़ेहरिस्त झेलनी पड़ी कि मन त्राहिमाम ही कर उठा । इस पर तुर्रा यह कि अभी श्राद्ध, बरसी व गति कराने जैसे कई काम बाक़ी हैं । चार किताबें पढ़ने का सबसे अधिक नुक़सान उम्र के इस पड़ाव में आकर झेलना पड़ा । आँख बंद करके ये सब अब किया नहीं जा पाता और आँख खुली रखो तो बड़े-बूढ़े आँख दिखाते हैं कि माँ के लिये इतना भी नहीं कर सकते ? 


अंत्येष्टि के समय ही पंडित जी ने सामान की इतनी बड़ी फ़ेहरिस्त थमा दी थी कि उन्हें एकत्र करना ही चुनौती जैसा दिखने लगा । अस्थियाँ एकत्र करते समय भी पचास तरह के सामान मँगवाए गये जबकि मेरे सामने ही बंदर और गाय खाने पीने का सामान झपट कर ले गए और बाक़ी सामान नाली में बहा दिया गया । मुझे समझाया गया था कि तेरहवीं तक वह कपड़े ही धारण करने हैं जिन्हें पहन कर अंतिम संस्कार किया था । ब्रह्म भोज और फिर दान-पुण्य  के नाम पर गुरुद्वारे के पाठी और पंडित जी को चप्पल,कपड़े, बिस्तर, चारपाई, बर्तन जैसी बड़ी बड़ी चीज़ें ही नहीं टॉर्च जैसी वह छोटी वस्तुएँ भी दान करनी पड़ीं जिनकी स्वर्ग के रास्ते में माँ को ज़रूरत पड़ सकती है । अस्थि विसर्जन के समय माँ के लिए साल भर का भोजन और गौ दान की भी फ़रमाइश हरिद्वार के पुरोहित ने की तो प्रेमचंद का उपन्यास गोदान स्मृतियों में लौट आया । कमाल है हमारे समाज में मरना जीने से भी अधिक महँगा है ? 


मैं जानता हूँ कि ये सब ढकोसले पंडों-पुरोहितों   के बिज़नेस मोडयूल का हिस्सा हैं मगर हैरानी की बात तो यह है कि इन दक़ियानूसी परम्पराओं को वे लोग धर्म के नाम पर कैसे बेच लेते हैं ? मजबूरी देखिये कि डरा इंसान हर वो काम करता है जो उसे करने के लिए कहा जाता है । इस प्रपंच की सॉफ़्ट टार्गेट घर की महिलायें होती हैं । ये पंडे-पुरोहित जानते हैं कि बात परम्परा की आएगी तो वही होगा जो घर की महिलायें चाहेंगी । इस लिए ही अधिकांश दिशा निर्देश भी उन्ही के लिये होते हैं । घर का मंदिर कब तक बंद रहेगा , रसोई में क्या क्या बनेगा अथवा क्या क्या नहीं बनेगा, कपड़े कब कब नहीं धोने हैं, मृतक के कमरे में कब कब दिया जलाना है यह सब बातें महिलाओं को ही समझाई जाती हैं । मुझे मालूम है कि ये सारे दिशा निर्देश किसी धर्म ग्रंथ में नहीं हैं मगर भेड़चाल ऐसी है कि लोकलाज में कोई नहीं पूछता कि ये काम मुझसे क्यों करवाया जा रहा है ?  हर जगह पैसा ही सर्वोपरि है । पुरोहितों का ज़ोर कर्म काण्ड पर कम और ‘संकल्प’ यानि दक्षिणा पर ही अधिक है । गंगा में अस्थियाँ विसर्जित करते समय पंडे ने पूछा कितना संकल्प करोगे ? ग्यारह सौ अथवा इक्कीस सौ ? पहले से ही खीजा हुआ मैं बोल बैठा- दस रुपये । बस फिर क्या था , इतनी कम फ़ीस सुनते ही पंडा मंत्र अधूरा छोड़ कर ही उठ गया । 


माँ की अंतिम यात्रा के समय कई विद्वान पंडित घर पर मौजूद थे और उनमे इस बात पर विवाद था कि मुझे जनेयु किस हाथ में पहनना है ।माँ के पाँव किस दिशा में होने चाहिये , यह भी विद्वान पंडित तय करने से पहले उलझ पड़े । हरिद्वार जाकर कितने पिंड भरने हैं , विवाद इस पर भी था । एक पंडित ने तेरहवीं के लिए हमें हरिद्वार भेज दिया तो दूसरे ने हमें हरिद्वार से यह कह कर वापिस बुला लिया कि अभी तेरह दिन नहीं हुए हैं । नया साल चढ़ते ही माँ चली गई ।जाते जाते यह भी बता गई कि हमारा कुछ नहीं हो सकता । अंधे के पीछे अंधे जैसे पंक्तिबद्ध हुए हम किसी मंज़िल पर नहीं पहुँचेंगे । कम से कम मेरी पीढ़ी के रहते तो नहीं जो सब कुछ समझते हुए भी इसका विरोध नहीं कर पाती ।


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