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शहादत रौशन रहेगा रौशन l

 ठाकुर रोशन सिंह जी की जयंती पर कोटि कोटि नमन


इनका जन्म उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जिले में स्थित गांव नबादा में 22 जनवरी, 1892 को हुआ.

इनके पिता जी का नाम ठाकुर जंगी सिंह था और माता जी का नाम कौशल्या देवी था. Roshan Singh कुल पांच भाई बहन थे. जिनमे ये सबसे बड़े थे. इनका परिवार  आर्य समाज से जुड़ा हुआ था. इसी कारण उनके ह्रदय में देश प्रेम की भावना बचपन से ही थी.


असहयोग आन्दोलन 


गाँधी जी द्वारा चलाये जा रहे असहयोग आन्दोलन में रोशन सिंह ने भी बढचढ कर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ़ अपना योगदान दिया जिसमे उन्होंने उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर और बरेली ज़िले के ग्रामीण क्षेत्र में जाकर असहयोग आन्दोलन के प्रति लोगो को जागरूक किया और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ आवाज़ उठाई.


गोली काण्ड में सजा :


उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में उसी दौरान  पुलिस द्वारा हुयी झड़प में उन्होंने पुलिस वाले की रायफल छीन ली और उसी रायफल से उन्ही पुलिस वालो पर जबर्दस्त फायरिंग शुरू कर दी जिसके कारण पुलिस को वह से भागना पड़ा. लेकिन उसके बाद रोशन सिंह जी को गिरफ्तार कर के उनपे बरेली गोली-काण्ड को लेकर मुकदमा चाय गया और उन्हें दो साल की सजा सुना दी गयी. और उसके बाद उन्हें सेण्ट्रल जेल बरेली भेज दिया गया.


चौरी-चौरा कांड :


5 फ़रवरी 1922 को गोरखपुर के पास एक कसबे में भारतीयों ने ब्रिटिश सरकार की एक पुलिस चौकी को आग लगा दी गयी, जिससे उसमें छुपे हुए 22 पुलिस कर्मचारी जिन्दा जल के मर गए थे. तब गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन के दौरान  हिंसा होने के कारण अपने द्वारा चलाये गए  असहयोग आन्दोलन को बंद कर दिया . आन्दोलन के बंद हो जाने के कारण इससे जुड़े क्रांतिकारियों में बहुत निराश हुयी.


सशस्त्र क्रान्ति :


इसी की बाद शाहजहाँपुर  में एक गुप्त बैठक रखी गयी. जिसका उदेश्य  राष्ट्रीय स्तर पर अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित कोई बहुत बडी क्रान्तिकारी पार्टी बनाने का क्युकि वो समझ रहे थे कि अहिंसा के जरिये आज़ादी मिलना मुश्किल हैं. सशस्त्र क्रांति ही भारत को स्वतंत्रता दिला सकती हैं. 


आखिरी पत्र :


ठाकुर साहब ने 6 दिसम्बर 1927 इलाहाबाद स्थित मलाका (नैनी) जेल की काल-कोठरी से अपने एक मित्र को पत्र  लिखा. और इस पत्र को समाप्त करने के बाद आखिरी में अपने एक शेर को लिखा

जिन्दगी जिन्दा-दिली को जान ऐ रोशन, वरना कितने ही यहाँ रोज फना होते हैं.

इलाहाबाद स्थित मलाका (नैनी) जेल में आठ महीने के कारावास के दौरान अंग्रेजो द्वारा तमाम कठनाईयों और उनके अत्याचारों को सहा.


फ़ाँसी की रात :


18 दिसम्बर, 1927 यानि फ़ाँसी से पहली की रात, ठाकुर रोशन सिंह ठीक से सो नहीं पाए और कुछ ही घंटो में जाग गए.  और रात में ही ईश्वर की आराधना में लग गए. और सूर्य की किरण के साथ प्रात: शौच आदि से निवृत्त होकर हमेशा की तरह स्नान किया और ईश्वर को ध्यान किया. और कुछ देर अपना ध्यान गीता के पाठ में लगाया.


सब करने के बाद जेल के पहरेदार को आवाज लगायी चलो अब यह सुन कर पहरेदार Roshan Singh को देखता रह गया. इसे तो मौत का डर ही नहीं हैं ये चेहरा हमेशा की तरह सामान्य था. जेल की सलाखों से बहार निकलते हुए जेल की उस कोठरी को प्रणाम किया और हाथ में "गीता"लेकर फांसी घर की तरफ निकल पड़े.


और खुद ही फांसी के तख्ते पर जा खड़े हुए और फांसी के फंदे को चूमा और शेर की तरह तीन बार "वंदे मातरम्"का उद्घोष किया. और उसके बाद "वेद मंत्र"का जाप करते हुए 19 दिसम्बर, 1927 को  फ़ाँसी के फंदे झूल गए. और सदा सदा के लिए अमर शहीद हो गए...


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