नेताजी सुभाष चंद्र बोस की गौरव गाथा
भारतीय स्वतंत्रता इतिहास में परतंत्रता की बेड़ियों से देशवासियों को मुक्ति दिलाने के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपना संपूर्ण जीवन निछावर कर दिया था। नेता जी की जीवनी आत्म - उत्सर्ग की एक ऐसी कहानी है , जो निर्जीव एवं हतोत्साहित व्यक्तियों के हृदय में भी स्फूर्ति, आशा और प्राणों का संचार कर सकती है। स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में नेताजी एकमात्र ऐसे नेता सिद्ध हुए, जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध नव संगठित आजाद हिंद फौज के नेतृत्व में आक्रमण कर ब्रिटिश हुकूमत की ईट से ईट बजा दी थी । देश भक्ति, राष्ट्रीय एकता, संप्रदायिकत सौहार्द की रक्षा और भारत की आजादी ही नेता जी के जीवन का एक मात्र लक्ष्य था ।स्वाधीनता आंदोलन में अपनों द्वारा प्रताड़ित किए जाने के बाद भी नेता जी बिना विचलित हुए तब तक लड़े जब तक जीवित रहे।
अजेय साहस और अपूर्व त्याग के द्वारा कर्म साधना का जो आदर्श उन्होंने उपस्थित किया, उसे कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। उनके बलिदान के कारण जनता ने अपने इस प्रिय लाड़ले को नेताजी की उपाधि से विभूषित किया। सुभाष चंद्र बोस दार्शनिक नहीं एक कर्मयोगी थे । उनकी मान्यता थी कि शक्तिशाली आवाज में ही दम होता है । साहसी व्यक्तियों के कार्य सफल होते हैं । वे गांधी की भांति राजनीति के अध्यात्मिक करण के पक्ष में नहीं थे। वे अंग्रेजों से विनम्रता की भाषा में कदापि बात करने के पक्ष में नहीं थे । वे अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए सशस्त्र संघर्ष के भी पक्षधर थे । सुभाष चंद्र बोस औपनिवेशिक स्वराज्य के विरोधी थे। यद्यपि गांधी के सिद्धांतों से उनका मतभेद बराबर बना रहा परंतु गांधी जी की व्यक्ति के रूप में वे इज्जत करते थे । महायुद्ध के दौरान सुभाष ने स्वाधीनता के लिए संघर्ष किया और कहा हमारी मातृभूमि स्वतंत्रता की खोज में है। तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें स्वतंत्रता देता हूं। यह स्वतंत्रता देवी की मांग है।
नेताजी की पुकार पर सहस्त्र लोगों ने हाथ खड़े किए तब नेताजी बोले ऐसे नहीं अपने रक्त से प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर करने होंगे। यह सुनकर अनगिणत नवयुवक आगे बढ़े और चाकू से अपनी अंगुलियां चीर - चीर कर उन्होंने रक्त से हस्ताक्षर किया था। महिलाएं भी पीछे नहीं रहीं। उन्होंने भी आगे बढ़कर अपने साहस का प्रमाण दिया । अपने रक्त से हस्ताक्षर कर अनेक प्रतिज्ञापत्र भर दिए। यह नेता जी के अदम साहस, देशभक्ति का सोपान था कि उनकी बात को काटने की शक्ति किसी मेँ ना थी । हिटलर , मुसोलिनी और जनरल तोजो जैसे युग पुरुष उनकी हर बात के सामने सिर झुका देते थे। नेताजी सम्राट बहादुर शाह की समाधि पर अपने साथियों से बोले- बंधुओं! आज इस पवित्र स्थान पर सन 18 57 के स्वतंत्रता संग्राम के अंतिम योद्धा के सामने जो सम्राटों का सम्राट था , इस वीर के सामने फिर प्रतिज्ञा करते हैं कि हमें चाहे कितने भी कष्ट क्यों ना उठाने पड़े, कितना ही बड़ा बलिदान क्यों ना देना पड़े, युद्ध चाहे कितना लंबा हो, जब तक हमारा देश पूरी तरह स्वतंत्र नहीं हो जाता , ना सुख से बैठेंगे और ना शत्रु को चैन से बैठने देंगे।
सुभाष चंद्र बोस ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने पूरी कोशिश की कि कांग्रेस समझौता वाद की राह पर ना चले । इससे गांधी वादियों को परेशानी होती थी । गांधीवादी नहीं चाहते थे कि उनके मंत्री परिषद और संसदीय काम में बाधा आए और उस समय किसी राष्ट्रीय संघर्ष के विरुद्ध थे। विचारों में महान अंतर होने के बावजूद भी राष्ट्र की आजादी की खातिर सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए खड़े हुए और उन्हें 1938 में सर्वसम्मति से चुने भी गए थे। 1939 में सुभाष बोस पुण: अपनी उम्मीदवारी घोषित किए। सरदार पटेल, डॉक्टर प्रसाद, जे.बी कृपलानी और गांधी जी ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए पट्टाभिसीतारमैया को अपना उम्मीदवार बनाया। 29 जनवरी 1940 को 1377 के मुकाबले 1580 मतों से सुभाष चंद्र बोस विजय हुए। सीतारामैया की हार को गांधी ने अपनी हार मानी । सुभाष बाबू के अध्यक्ष निर्वाचित होने के पश्चात भी दक्षिणपंथी कांग्रेसियों ने उनसे खुलकर असहयोग किया । सुभाष को इससे इतनी मर्मान्तक पीड़ा हुई । अंत में जब समझौता की कोई सूरत ना दिखाई पड़ी तो उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। उनके स्थान पर राजेंद्र प्रसाद अध्यक्ष बनाए गए। इस प्रकार अलग होकर नेताजी ने कांग्रेस के भीतर ही एक अग्रगामी दल फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की। इस दल का प्रमुख उद्देश्य कांग्रेस की वैधानिकता की भावना को तिलांजलि देना था। नेताजी कांग्रेस की दक्षिणपंथी नीति से सदैव असंतुष्ट रहते थे। अग्रगामी दल की स्थापना बोस की पराजय का फल नहीं था ।वे अपने संगठन को सदैव वामपंथी रखना चाहते थे।
ध्यातव्य है कि सुभाष चंद्र बोस एवं गांधीजी का वैचारिक मतभेद बना रहा । सुभाष बोस तर्कशील एवं बौद्धिक थे। जबकि गांधीजी की आत्मशक्ति की प्रेरणा से कार्य करने वाले । गांधीजी की कार्य पद्धति से सुभाष बोस को सदा ही निराशा होती थी, किंतु सुभाष बोस की संगठन क्षमता अद्वितीय थी। जिसका लोहा अंग्रेज भी मानते थे । उन्हें समझौतावाद से घृणा थी । व्यक्तित्व के मामले में तिलक के अतिरिक्त किसी और से उनकी तुलना नहीं की जा सकती है। सुभाष बोस भारत की आजादी समझौतावादी नीति से नहीं चलते थे । उनके अंदर छिपे अदम्य सैन्य संगठन क्षमता ने आखिर आजाद हिंद फौज बनाने के लिए बाध्य कर दिया। भारत को आजाद कराने के लिए सुभाष बोस ने जापान की मदद से भारत पर आक्रमण करने के लिए आजाद हिंद फौज का संगठन किया । उनके नेतृत्व में 2 जुलाई 1943 को आजाद हिंद फौज सिंगापुर चली गई और 31 अक्टूबर 1943 को स्वाधीन भारत की सरकार गठित की । जर्मनी और जापान ने इस मान्यता दी। आजाद हिंद फौज का मुख्यालय रंगून और सिंगापुर में खोला गया। रानी झांसी रेजीमेंट नाम से स्त्री सैनिकों का भी दल बनाया। 6 जनवरी 1944 को सुभाष बाबू ने आजाद हिंद रेडियो पर बोलते हुए कहा भारत की स्वाधीनता का आखिरी युद्ध शुरू हो चुका है । राष्ट्रपिता! भारत की मुक्ति के इस पवित्र युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभकामनाएं चाहते हैं । देश की 40 करोड़ जनता ने उसके इस जयघोष को सर आंखों पर लिया, लेकिन दक्षिणपंथी कांग्रेसियों के बड़े नेताओं की चुप्पी आज भी सवाल पूछती है। क्या उन्हें आजादी का सच्चा सिपाही कहलाने का अधिकार है?
सुभाष बाबू ने भारत की स्वाधीनता के लिए आजाद हिंद फौज के सेनानियों के समक्ष प्रतिज्ञा कि मैं सदा भारत का नम्र सेवक रहूंगा और अपने 40 करोड़ भाइयों की स्वतंत्रता के लिए लड़ता रहूंगा। यह मेरा परम कर्तव्य होगा। दिन और रात स्वतंत्रता की परीपूर्ति के लिए जूझते हुए 24 अप्रैल 1945 को सुभाष बाबू रंगून से बैंकॉक चले गए ।बैंकॉक से सिंगापुर के 16 अगस्त के दिन वायुयान द्वारा सिंगापुर से टोक्यो चले ।18 अगस्त के दिन 2:00 बजे यह वायुयानताई होक हवाई अड्डे पर गिर पड़ा। नेताजी का शरीर झुलस गया। उन्हें पास के अस्पताल में पहुंचाया गया। जहां उनका देहांत हो गया । यह समाचार जापान के रेडियो ने 23 अगस्त 1945 को दिया था।... परंतु आज तक लोग इस समाचार को सत्य नहीं मानते। उनका विश्वास है कि नेता जी अभी भी जीवित है। आज उनके जन्मदिन पर हम लोगों को यह विचार करने की जरूरत है कि देश आंतरिक दुश्वारियों से जूझता नजर आ रहा है ।देश की स्वाधीनता, एकता और अखंडता के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान करने वाले नेताजी की आत्मा आज देशवासियों से सवाल करती है कि आज देश में किस तरह के नारे गूंज रहे हैं? हमें चाहिए जिंदा वाली आजादी, देश के टुकड़े टुकड़े और हमें चाहिए आजादी। इन नारों का इस देश में क्या जरूरत है? हम सब मिलजुल कर स्वाधीनता की रक्षा के लिए यह कसम खाए कि देश की एकता और अखंडता के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर देंगे । मित्रों हम सबों को यह संकल्प लेने की जरूरत है- देश में जो एक साजिश रची जा रही है, देश को तोड़ने की। उस साजिश को बेनकाब करना है । हम लोगों को मिलजुल और एक होकर एक साथ रहना है और देश की रक्षा करनी है।