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तिरंगा नेहरू और मोतीलाल का सपना और

 नेहरू झंडे की डोर खींच रहे थे। लाहौर के आकाश में तिरंगा धीरे धीरे ऊपर गया, और फिर खुलकर लहराने लगा। उपस्थित जनसमूह जोश में करतल ध्वनि कर रहा था। 1929 की सर्दियों की उस शाम, रावी के तट पर मौजूद हजारों आंखों में आजादी का सपना भर दिया गया था। 


वहीं भीड़ में एक और नेहरू मौजूद था। एक बूढ़ा नेहरू, जो कुछ दूर झंडा फहराते नेहरू का पिता था। और इस वक्त गर्व से दैदीप्यमान था। मोतीलाल का ये वह क्षण था, जिसे हर पिता अपने बच्चे के लिए चाहता तो है, मगर हासिल किस्मत वालों को होता है। 

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मोतीलाल किस्मत के धनी नही थे। अपने पिता की शक्ल नही देखी थी। बड़े भाई से सुना भर था, की गंगाधर नेहरू दिल्ली के शहर कोतवाल थे। 1857 के ग़दर में सब कुछ खोकर  आगरे चले गए। वहीं प्राण त्याग दिए। उन्हें बचपन की ज्यादातर यादें खेतड़ी की थी। जहां बड़े भाई नन्दलाल ने क्लर्क की नॉकरी कर ली थी। पिता के बाद, बड़े भाई ने घर सम्भाल लिया था। दोनो छोटे भाइयों को पढा रहे थे। मोती सबसे छोटे थे। 


मगर किस्मत का खेल, राजा साहब की मृत्यु हो गई। खेतड़ी के नए राजा ने अपने लोग बिठाए। नंदलाल की सेवा समाप्त हुई, तो परिवार आगरे लौट आया। कोर्ट में अर्जीनवीसी करने लगे, मगर भाइयों को पढ़ाई से विमुख न होने दिया। हाईकोर्ट आगरे से इलाहाबाद गई, तो नेहरू कुनबा भी इलाहाबाद आ गया। बड़े भाइयो ने वकालत शुरू कर दी थी। खेतड़ी के समय के सम्पर्क काम आ रहे थे। जमींदारो और रईसों के जायदाद के मुकदमे खूब मिले। 


नंदलाल और मोतीलाल की उम्र में बड़ा अंतर था। मोतीलाल को बेटे की तरह पालते नंदलाल ने उनकी शिक्षा में कमी न की। नेहरू परिवार के बच्चे उस युग मे पाश्चात्य प्रणाली की शिक्षा पाने वाले सबसे पहले लोगो मे थे। मोतीलाल ने 1883 में वकालत पास की, और वकील बन गए। ऐसे मशहूर और सफल, की यूनाइटेड प्रोविन्स के सबसे बड़े वकील गिने जाने लगे। इंग्लैंड की प्रिवी कौंसिल में पेश होने की योग्यता (लाइसेंस) भारत के कम वकीलों को हासिल थी। 


परिवार ने सिविल लाइन में एक बड़ा मकान खरीदा। नाम रखा-आनंद भवन। शहर में नामचीन थे। कई समितियों कमेटियों के सदस्य, चेयरमैन। कुछ राजनैतिक गतिविधियों में भी आते जाते थे। तिजोरी भरी होती थी। जीवन पाश्चात्य शैली में ढला था। एक बेटा था, जवाहर। उसे इंग्लैंड पढ़ने भेजा। वो भी वकालत पढ़कर आया। एक खूबसूरत लड़की से विवाह हुआ। 


मोतीलाल के पास सब कुछ था, जो एक सेल्फ मेड इंसान अपने संघर्षों के बाद पकी उम्र में अपने पास देखने की ख्वाहिश करता है। वकीलों का ये परिवार सुख से जीता रहता, अगर एक और वकील दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटकर न आता। 

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कांग्रेस नाम की संस्था उस वक्त मरणासन्न थी। कुछ बरस पहले नरम दल-गरम दल के झगड़े थे। अंग्रेज सरकार नरम दल को कांग्रेस की ड्राइविंग सीट पर देखना चाहती थी। गरम दल के नेता, भड़काऊ लेख के आरोप में राजद्रोह की धारा लगाकर देश से बाहर भेज दिए गए। नरम दल का कब्जा हो तो गया, मगर कांग्रेस आधी हो गयी। 


1915 तक तिलक और गोखले वापस मिल चुके थे, मगर उम्र से लाचार थे। मोहनदास गांधी जब भारत आये, तो कांग्रेस शायद उनकी बाट जोह रही थी। गांधी ने असहयोग आंदोलन की हुंकार भरी। सत्याग्रह का मार्ग दिखाया। विदेशी कपड़ों की होली जलाना, विरोध प्रदर्शन का तरीका हो गया। गांधी की उग्रता ने कांग्रेस में उबाल लाया, जनता में भी, और युवाओं की तो बात ही क्या। गांधी से आकर्षित होने वालों में मोतीलाल का युवा पुत्र भी था। उसने कॉंग्रेस जॉइन कर ली। विदेशी कपडे जला दिए, खद्दर पहनने लगा। 


इकलौते बेटे को मोतीलाल वकील देखना चाहते थे। बेटा नेतागिरी की ओर बढ़ रहा था। उन्होंने गांधी से बात की। आजादीपरस्त गांधी ने बेटे को को उसकी राह चुनने देने की सलाह दी। मोतीलाल खुद गांधी से प्रभावित हुए। खुद भी पाश्चात्य चोला उतार फेंका। खद्दर डाल ली। 


बाप बेटे दोनो ने कांग्रेस में खुद को झोंक दिया। गांधी ने अचानक असहयोग आंदोलन रोका, तो मोतीलाल बड़े खफा हुए। कॉंग्रेस छोड़ स्वराज पार्टी में चले गए। चुनाव लड़ा, सदन में विपक्ष के नेता हो गए। मगर अहमक बेटे ने न गांधी को छोड़ा न कांग्रेस को। वो यूपी कांग्रेस का जनरल सेकेट्री हो गया था। बंगाल से उसका एक दोस्त सुभाष, और जवाहर गांधी के दो जवान हाथ बन गए थे। 


मोतीलाल भी कॉन्ग्रेस में लौटे। कांग्रेस ने पूरा सम्मान दिया, जिम्मेदारी दी। उन्हें एक प्रारूप सम्विधान बनाने का काम दिया गया। सुभाष, जवाहर और दूसरे कुछ दलों के नेताओ के साथ उन्होंने "नेहरू रिपोर्ट"दी। इसमे डोमिनियन स्टेट के रूप में भारत का संभावित प्रशासनिक ढांचा था। स्टेट के कर्तव्य और नागरिकों के अधिकार पर भी लिखा था। मुस्लिम लीग ने इस पर सहमति देने से इनकार कर दिया। लिहाजा अंग्रेजो ने इसे स्वीकार करने से मना कर दिया। 


1928 में मोतीलाल कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे। साइमन कमीशन के विरोध में आयोजित प्रदर्शन में पंजाब के बड़े नेता लाला लाजपत राय शहीद हो चुके थे। कांग्रेस ने रुख कड़ा किया। अब होमरूल नहीं, डोमिनियन स्टेट नही, पूर्ण स्वराज की मांग की। सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य का प्रस्ताव हुआ। 


ये ब्रिटिश सत्ता को सीधे चुनोती थी। रावी के तट पर तिरंगा झंडा लहरा रहा रहा था। झंडा फहराता बेटा, आज ही कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया था। वो इस चुनोती को लन्दन की सरकार तक पहुँचा रहा था। आंदोलन तेज होने को था। जल्द ही सरकार का कहर उस पर टूटना लाजमी था। मगर उस पर मोहनदास कर्मचंद गांधी की सरपरस्ती भी थी। बेटा सुरक्षित हाथों में था। 


जवाहर को देखती हजारो जोड़ी आंखों में, दो आंखे बूढ़े मोतीलाल की थी। दो साल बाद वो आंखें सदा के लिए बन्द होने वाली थी। मगर इस वक्त गर्व से दैदीप्यमान थी। ये वह क्षण था, जिसे हर पिता अपने बच्चे के लिए देखता तो है, मगर हासिल किस्मत वालों को होता है।


साभार जन विचार संवाद ग्रुप से


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