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30 जनवरी दिल्ली ओर गांधीजी/ विवेक शुक्ला

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 तीस जनवरी मार्ग की उदासी


आप चाहें तो तीस जनवरी मार्ग पर जनपथ या फिर अकबर रोड से पहुंच सकते हैं। हालांकि एक संकरी से गली से रास्ता तो तीस जनवरी लेन से भी है। इधर आते ही आप यहां की उदासी को महसूस करते हैं। दिन के वक्त भी लगभग सन्नाटा सा। जब तीस जनवरी मार्ग के आसपास की सड़कों पर हैवी ट्रैफिक चल रहा होता है,तब इधर नामात्र का ही ट्रैफिक गुजर रहा होता है। लगता है,शोक यहां का स्थायी भाव है। 


आपको बीच-बीच में खादी वस्त्र पहने कुछ लोग गांधी स्मृति (पहले 5 बिड़ला हाउस) की तरफ आते-जाते हुए दिखाई देते हैं। गांधी स्मृति में दाखिल होते ही ‘वैष्णव जन तो तेणे कहिए...’ कानों तक पहुंचता है। यह बापू का प्रिय भजन है और इसकी धुन उनके यहां पर किसी रूप में होने का भ्रम अवश्य पैदा करती है। एक पल तो लगता है कि वे कभी भी सामने आ जाएँगे। ये क्षणिक अहसास सच में बहुत सुखद होता है।

लेकिन तीस जनवरी मार्ग के दोनों तरफ 1931 से कुछ पहले लगे नीम, अर्जुन और जामुन के बुजुर्ग पेड़ों की उदासी बता देती है कि अब बापू स्मृतियों और विचारों में हैं। इन्हें देखकर ईष्या भी होती है। आखिर इन्होंने दर्शन किए हैं उस संत के। इन्होंने सुनी होगी वे आवाजें जब 30 जनवरी 1948 को शाम 5.17 बजे नाथूराम गोडसे नाम के एक राक्षस ने बापू पर एक के बाद एक तीन गोलिया बरसाईं थीं।

आज तीस जनवरी है। तीस जनवरी मार्ग पर सामान्य सी अधिक हलचल है। देश के आम-खास लोग गांधी स्मृति में आने वाले हैं। यहां पर सर्वधर्म प्रार्थना सभा का आयोजन भी होगा। इसकी शुरूआत कात्सू सान जी करेंगी। वह जापानी बुद्ध प्रार्थना करेंगी। वह लगभग आधी सदी से यहां पर 2 अक्तूबर और 30 जनवरी को होने वाली सर्वधर्म प्रार्थना सभाओं में भाग ले रही हैं। मूल रूप से जापानी कात्सू सान अब भारतीय हो चुकी हैं। वे गांधी और बुद्ध को अधिक करीब से जानने के लिए भारत आई तो यहां पर ही बस गईं। 85 साल की कात्सु जी बात कर रही हैं 90 पार कर गए के.डी. मदान साहब से। मदान साहब अब गांधी जी के हत्याकांड के अंतिम चश्मदीद गवाह बचे हैं। लीजिए अब इनके साथ बातचीत में हुमायूं रोड के जूदेह हयम सिनगॉग के रेब्बी एजिकिल आइजेक मलेकर भी शामिल हो गए हैं। मलेकर सर्वधर्म प्रार्थना सभा में यहूदी धर्म की प्रार्थना की जिम्मेदारी को संभालते हैं। ये प्रार्थना हिब्रु भाषा में होती है।


 बिड़ला हाउस से गांधी स्मृति

गांधी जी तीस जनवरी मार्ग के बिड़ला हाउस में 9 सितंबर, 1947 से लेकर 30 जनवरी, 1948 तक रहे थे। यानी कुल 144 दिन। सरकार ने साल 1971 में बिड़ला हाउस का अधिग्रहण कर इसे गांधी स्मृति बनाने का फैसला किया था। बिड़ला हाउस को गांधी स्मृति बनाने के लिए चंद्रशेखर,मोहन धारिया, शशिभूषण जैसे नेताओं और दिल्ली यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों ने संघर्ष किया था। उनमें हिन्दू कॉलेज के शांति दीवान, शुकदेव अवस्थी और डा.ओम प्रकाश शुक्ला भी थे। शुक्ला दलित एक्टिविस्ट हैं।

गांधी जी ने इधर ही अपने जीवन का अंतिम उपवास 13 से 18 जनवरी 1948 तक रखा था ताकि दिल्ली में अमन-चैन की बहाली हो जाए। जिसमें वे सफल रहे थे। जाहिर है, वे उपवास रखने के कारण बहुत कमजोर हो चुके थे। फिर भी वे रोज सर्वधर्म प्रार्थना सभा में अवश्य भाग लेते थे। एम.एस.सुब्बालक्ष्मी ने 29 जनवरी 1948 को हुई प्रार्थना सभा में भजन सुनाए थे। 


उस दिन सुंदरलाल बहुगुणा भी वहां पर मौजूद थे।तीस जनवरी मार्ग के दरख्तों ने 31 जनवरी को बापू की शव यात्रा को यहां से राजघाट निकलते हुए भी देखा था। उस जाड़े की सुबह हजारों लोग बिलख रहे थे। उनमें दिल्ली के मशहूर गांधीवादी लाला रूप नारायण, मीर मुश्ताक अहमद ( वे आगे चलकर दिल्ली के मुख्य कार्यकारी पार्षद भी बने), कांग्रेस नेता लाला देशबंधु गुप्ता, बहन सत्यवती ( जिनके नाम पर सत्यवती कॉलेज है) थे।

कौन था अफांसो अलबुर्कर

तब तक इस सड़क का नाम था अलबुर्कर रोड। देश 1947  में आजाद हुआ तो अलबुर्कर रोड हो गया तीस जनवरी मार्ग। ये राजधानी की पहली सड़क थी जिसका नाम बदला गया था। अफांसो अलबुर्कर ( 1453–1515) गोवा के गवर्नर थे। उन्हीं के नाम पर थी यह सड़क। उनका जन्म पुर्तगाल में हुआ था और निधन गोवा में। 


मतलब ब्रिटिश सरकार ने नई दिल्ली की कुछ सड़कों के नाम कुछ गैर ब्रिटिश और गैर-भारतीय हस्तियों के नामों पर भी रखे।

जब उस ‘गांधी’ की आंखें हुई थीं नम

गांधी जी से प्रेरणा और प्रेरित होने वाले आगे भी तीस जनवरी मार्ग में आकर  रोए या उदास होकर गए। ‘गांधी’ फिल्म के गांधी बेन किंग्सले पहली बार 1980 में जब गांधी स्मृति के उस स्थान पर पहुंचे जहां पर बापू पर गोलिया बरसाईं गई थीं तो वे अपने आंसू रोक नहीं सके थे। एक बार मेरिडियन होटल में खादी का कुर्ता-पायजामा पहने किंग्सले बता रहे थे कि उन्हें समझ नहीं आया था कि उनकी आंखों से क्यों आंसू बहने लगे थे। वे रूक ही नहीं रहे थे। कुछ इसी तरह की स्थिति अमेरिका में अश्वेतों के हकों के लिए जीवन पर्यंत संघर्ष करने वाले मार्टिन लूथर किंग की भी हुई थी गांधी स्मृति में। वे 1959 में सत्नीक राजघाट और गांधी स्मृति  पहुंचे थे। दोनों स्थानों पर पहुंचते ही उनकी और उनकी पत्नी कोरेटा किंग की आंखें नम हुईं थीं। बाद में किंग से पत्रकारों ने पूछा कि ‘आप दोनों कि आंखों से आंसुओं की अविरल धारा क्यों बहने लगी थी?’ मार्टिन लूथर किंग ने जवाब दिया – ‘गांधी उनके मार्गदर्शक हैं। वे गांधी के दिखाए सत्य और अंहिंसा के मार्ग पर चलकर ही अमेरिका में दबे-कुचले अश्वेतों के पक्ष में संघर्ष कर पाते हैं। वे अन्य देशों में एक पर्यटक के रूप में जाते हैं, पर वे भारत को गांधी की वजह से तीर्थ स्थल मानता हूं।’ 


आज भी किंग के देश अमेरिका के कुछ नौजवान नागरिक गांधी स्म़ृति में आए हैं। इनमें एक अश्वेत कन्या मौली वेगमोर भी है। मौली गांधी को अपने कॉलेज के दिनों से पढ़ने लगी थी। उसने एक बार अश्वेत नेता डेसमंड टुटू के गांधी को लेकर विचार पढ़े तो उसकी गांधी को अधिक जानने की जिज्ञासा बढ़तीही चली गई।  

आप कभी गांधी स्मृति के बाहर खड़े हो जाइये। यहां सवेरे घड़ी के दस बजते ही देश-विदेश के तमाम कोनों से लोग पहुंचने लगते हैं। कई नंगे पांव होते हैं। वजह पूछने पर कहते हैं- ‘जहां पर गांधीजी रहे हों, वह तो पवित्र स्थान हो जाता है। वहां जूते-चप्पले पहनकर जाना सही नहीं होगा।’ मणिपुर से हजारों किलोमीटर का सफर तय कर तोंबी सिंह भी गांधीजी को श्रद्धासुमन अर्पित करने यहां पहुंचे हैं। उनके माता-पिता भी आए हैं। पेशे से टीचर तोंबीसिंह ने बताया, 'मैं और माता-पिता लंबे समय से यहां आने चाहते थे। आज मैं यहां आकर खुद को खुशकिस्मत महसूस कर रहा हूं।’

पर तीस जनवरी मार्ग आने वाले जब इधर से निकलते हैं उनके चेहरे के भाव पढ़िए। वे बहुत कुछ कहते हैं। उनके चेहरे पर उदासी छाई होती है। वहां से निकलते हुए इँसान एक बार तो अवश्य सोचता कि ‘अरे, इसे देश ने गांधी को मार दिया था।’ इंसान को अपराध बोध का भाव घेर लेता हैं। हां, तीस जनवरी मार्ग से बाहर निकलते ही आप दिल्ली के कोलाहल में गुम हो जाते हैं। 

Vivek Shukla 

नवभारतटाइम्स मेें 30 जनवरी 2021 को छपे लेख के सम्पादित अंश।


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