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अँसुवन जल सींच 'आंदोलन'बेल बोई!/ ऋषभदेव शर्मा

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अँसुवन जल सींच 'आंदोलन'बेल बोई!/ ऋषभदेव शर्मा 


सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह बयान एक खुले न्यौते जैसा है कि वे किसानों से एक टेलिफोन कॉल ही दूर हैं। उन्होंने विवादास्पद कृषि कानूनों को डेढ़ साल रोकने के कृषि मंत्री के वादे को भी दोहराया है। इसके बाद तेजी से बदला घटनाक्रम किसानों और केंद्र सरकार के रिश्तों को नई दिशा में ले जा सकता है। इस बदले घटनाचक्र के कारण अचानक पश्चिमी उत्तर प्रदेश आगे आ गया दिखता है। 


सयानों को दूर की कौड़ी जल्दी सूझती है। सो, अचरज नहीं कि उन्हें रातोंरात यह इलहाम हो गया कि पंजाब से उठे किसान आंदोलन का केंद्र वहाँ से खिसक कर पश्चिमी उत्तर प्रदेश होने जा रहा है। आखिर अपने चौधरी को भावुक होकर फूट पड़ते देख संवेदनशील बिरादरी हाथ पर हाथ धरे बैठी कैसे रह सकती है! कभी मीराँबाई ने कहा था, "अँसुवन जल सींच सींच, प्रेम बेल बोई/ अब तो बेल फैल गई, आनंद फल होई।"लगता है, अपने पीछे नए सिरे से आ खड़े हुए हज़ारों समर्थकों ही नहीं अवसरवादी राजनीतिक दलों को भी खड़े देख कुछ ऐसा ही राकेश टिकैत भी कह रहे होंगे। उन्होंने अपने आँसुओं के जल से सींच कर मरणासन्न समझे जा रहे आंदोलन की बेल को पुनर्जीवित कर दिया। अब सुंदर आनंद फल की उम्मीद भी की जा सकती है, क्योंकि केंद्र सरकार पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इन किसानों को उस तरह हलके में नहीं ले सकती, जिस तरह पंजाब के किसानों को लेती रही। कारण यह है कि पंजाब में भारतीय जनता पार्टी को वोट की उम्मीद न पहले थी, न अब है। लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान अगर नाराज़ हो गए, तो भाजपा के वोट बुरी तरह प्रभावित होंगे। यों सरकार नहीं चाहेगी कि यह तनातनी और ज़्यादा लंबी खिंचे। इसलिए प्रधानमंत्री का नरेंद्र सिंह तोमर के प्रस्ताव को दोहराना विशेष अर्थ रखता है। सरकार अगर  हर वक़्त बातचीत को तैयार है , तो नवजीवन प्राप्त आंदोलन में नए सिरे से उभरे टिकैत बंधुओं पर यह जिम्मेदारी है कि वे राजनीति के खिलाड़ियों की अखाड़ेबाजी से पहले अपने किसान भाइयों को  समझौते पर राजी कर लें। 


सयाने याद दिला रहे हैं कि उत्तर प्रदेश के जाटलैंड अर्थात पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने 2014 से लेकर 2019 तक भारी जन समर्थन प्राप्त किया है। अगर समय रहते कोई समाधान नहीं निकला, तो डर है कि कहीं जाटलैंड ही भाजपा के हाथ से न निकल जाए। यही वजह है कि सरकार यहाँ की घटनाओं के प्रति ज़्यादा संवेदनशील होने के लिए मजबूर है। याद रहे कि जाट बिरादरी के समर्थन के ज़ोर पर भाजपा को रालोद के दिग्गजों तक को उनके अपने गढ़ों में हराने का श्रेय मिल चुका है। इसलिए यह खटका स्वाभाविक है कि राकेश टिकैत को गिरफ्तार करने के असफल प्रयास के बाद अगर जाट बिरादरी नाराज़ हो गई, तो उसे दोबारा भाजपा के पाले में ला पाना टेढ़ी खीर साबित हो सकता है। इसलिए  सरकार टिकैत बंधुओं को किसी भी कीमत पर रूठने देना नहीं चाहेगी। संतोष का विषय है कि वे भी सरकार से उस तरह खार खाए हुए नहीं हैं, जिस तरह पंजाब के किसान नेता। इस लिहाज से नरेश टिकैत के इस बयान को सकारात्मक और संभावनापूर्ण माना जा सकता है कि, "हम प्रधानमंत्री की गरिमा का सम्मान करेंगे। किसान नहीं चाहते कि सरकार या संसद उनके आगे झुके। हम यह भी सुनिश्चित करेंगे कि किसानों के आत्म-सम्मान की रक्षा हो। बीच का कोई रास्ता खोजा जाना चाहिए। वार्ता होनी चाहिए।" 


उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्दी ही यह बीच का रास्ता मिल जाएगा और गतिरोध टूट पाएगा। 000


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