भोजनमाताओं की दास्तान / रवि अरोड़ा
हाल ही में नैनीताल जाना हुआ । किसी काम से वहाँ के ज़िला मुख्यालय भी गया । कलेक्ट्रेट परिसर में अनेक महिलायें नारेबाज़ी करती दिखाई दीं । किसी ने बताया कि वे भोजनमाताएँ हैं और अपनी माँगों को लेकर ज़िलाधिकारी को ज्ञापन देने आई हैं । भोजनमाता शब्द जीवन में पहली बार सुना था अतः उत्सुकतावश विस्तार से पूछताछ कर डाली । पता चला कि राज्य के स्कूलों में बच्चों को मिड डे मील उपलब्ध कराने को वर्ष 2002 से लगभग 27 हज़ार महिलाओं को नियुक्त किया हुआ है । बेशक महिमा मंडन को उन्हें भोजन माता नाम दिया गया था मगर उनकी कहानी बेहद पीड़ा दायक है । अब दिल्ली और उसके आसपास के शहरों में रहने वाले हम लोग मुल्क के अंदरूनी हालात केवल उतना ही जानते हैं , जितना कि हमें टीवी और अख़बार बताते हैं अतः हमें सब कुछ हरा ही हरा दिखता है । जो कुछ स्याह है उस पर ऐसा पर्दा पड़ा हुआ है कि उसकी कोई ख़बर ही नहीं होती । भोजन माताएँ व्यवस्था के उसी स्याह रूप सी दिखाई दीं ।
प्रगतिशील भोजनमाता कामगार यूनियन की तुलसी आर्य ने बताया कि पहाड़ी इलाक़ों की बेहद ग़रीब अथवा विधवाएँ ही इस कार्य से जुड़ी हुई हैं और मात्र दो हज़ार रुपये महीने के लिए उन्हें सुबह से लेकर शाम तक खटना पड़ता है । चूँकि स्कूलों में एलपीजी गैस की व्यवस्था नहीं है अतः उन्हें मुँह अंधेरे जाकर जंगल से लकड़ी लानी होती है ताकि स्कूली बच्चों को दोपहर बारह बजे भोजन मिल सके । उनका काम भोजन बनाने भर से ही ख़त्म नहीं होता और उसके बाद स्कूलों की साफ़-सफ़ाई जैसे अन्य काम भी उनसे कराये जाते हैं । हाल ही कोरोना महामारी के दौरान उनकी जान जोखिम में डालकर क्वारंटीन सेंटरों में भी ड्यूटी लगाई गई थी । चूँकि वे स्कूल की स्थाई कर्मचारी नहीं हैं अतः ईएसआई, पीएफ, बोनस और पेंशन जैसी सुविधाओं का तो सवाल ही नहीं , समय पर वेतन भी नहीं मिलता । प्रसूति अवकाश न होने के कारण गर्भावस्था के दौरान ख़र्च बढ़ने के बावजूद उन्हें वेतन नहीं दिया जाता । उनके दुःख यहीं तक सीमित नहीं रहे और अब प्रदेश की भाजपा सरकार उनसे यह रोज़गार भी छीनने पर आमादा है । इसी के तहत अब प्रत्येक भोजनमाता से प्रतिदिन पचास बच्चों का भोजन बनाने के लिये कहा जा रहा है जबकि दो दशक से उन्हें पच्चीस बच्चों का ही भोजन बनाना होता था । उनके अनुसार दो भोजनमाताओं का काम एक से लेकर सरकार आधी भोजनमाताओं की छुट्टी करना चाहती है । सरकार की इसी मनमानी के ख़िलाफ़ ये भोजनमाताएँ प्रदेश भर में आजकल धरने प्रदर्शन कर रही हैं ।
हो सकता है कि आप कहें कि देश-दुनिया के तमाम बड़े मुद्दों को छोड़ कर आज मैं इन महिलाओं का क़िस्सा क्यों ले बैठा ? आपका सवाल बेमानी नहीं है मगर मैं तो बस यह जानने का प्रयास कर रहा हूँ कि न्यूनतम वेतन के नाम पर छोटे-छोटे दुकानदारों से लेकर फैक्टरियों और कारख़ानों की नाक में नकेल कसने वाली हमारी सरकारें ख़ुद इस नियम से बंधी हुई क्यों नहीं हैं ? पाँच करोड़ लोगों को मुफ़्त एलपीजी गैस का कनेक्शन देने के नाम पर हमसे सब्सिडी छोड़ने की बात कहने वाली मोदी सरकार अपनी ही पार्टी की एक राज्य सरकार के सरकारी स्कूलों को अभी तक गैस कनेक्शन क्यों नहीं दे पाई ? फ़ैक्ट्री एक्ट के तहत उद्योगों में ठेकेदारी प्रथा के ख़िलाफ़ अभियान चलाने वाली हमारी सरकारें ख़ुद कैसे अपने कर्मचारियों को बीस बीस साल बाद भी स्थाई नहीं कर रहीं ? ईएसआई और पीएफ विभाग वाले कर्मचारियों की ज़रा सी संख्या बढ़ने पर उद्यमियों को जीने नहीं देते और उधर स्वयं सरकारें अपने ही कर्मचारियों को कैसे इस सुविधा से महरूम रखती हैं ? आख़िरी बात महिला सम्मान का दावा करने वाली सत्तारूढ़ पार्टी के कानों में देश की इन हज़ारों महिलाओं की आवाज़ अब तक क्यों नहीं पहुँची ? क्या माता नाम देने से ये महिलायें माता हो जाएँगी जबकि हम उन्हें नौकरानी का हक़ देने को भी तैयार नहीं ?