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कौन जिम्मेदार? / ऋषभ देव शर्मा

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 महिला बेरोजगार : कोरोना ज़िम्मेदार!/ ऋषभ देव शर्मा 

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परिवर्तन और विकास के तमाम दावों के बावजूद भारतीय समाज का स्त्रियों के प्रति सोच और व्यवहार अब भी बड़ी हद तक दकियानूसी ही बना हुआ है। समाज में बढ़ते यौन अपराध तो इस बात की गवाही देते ही हैं,  समय समय पर रोजगार और आर्थिक स्थिति के सर्वेक्षण भी इसकी पुष्टि करते हैं। हाल ही में सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई)  का यह खुलासा चौंकाने वाला है कि भारत में केवल 7 प्रतिशत शहरी महिलाएँ ऐसी हैं, जिनके पास रोजगार है या वे उसकी तलाश कर रही हैं। इस समूह का मानना है कि महिलाओं को रोजगार देने के मामले में हमारा देश इंडोनेशिया और सऊदी अरब से भी पीछे है! 


इसमें संदेह नहीं कि कोरोना महामारी ने महिला बेरोजगारी की समस्या को और गहरा बनाया है।  समाज के रूढ़िवादी सोच के साथ ही सरकार की नीतियों को भी इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। इससे हमारे यहाँ स्त्री सशक्तीकरण की पोल भी खुलती है। क्योंकि महिलाओं को रोजगार मिलना बड़ी हद तक स्त्री सशक्तीकरण  का एक महत्वपूर्ण उपकरण ही नहीं, सामाजिक परिवर्तन का भी सूचक है। इसीलिए  भारत में इतनी कम संख्या में शहरी औरतों का रोजगार में होना सयानों को चिंताजनक प्रतीत हो रहा है।  'द इकोनॉमिस्ट'पत्रिका ने यह समझाया है कि “वैश्विक महामारी कोरोना से उन कार्यक्षेत्रों पर सबसे ज्यादा असर पड़ा, जिन पर महिलाएँ सीधे तौर पर रोजगार के लिए निर्भर हैं।  चाहें डोमेस्टिक हेल्प हो, स्कूलिंग सेक्टर हो, या टूरिज्म और कैटरिंग से जुड़ा सेक्टर।” यह तो सबकी देखी-बूझी सच्चाई है कि कोरोना संकट काल में भारी संख्या में महिलाओं को इन सभी कार्यक्षेत्रों से निकाला गया। एक ओर तो स्त्रियाँ बेरोजगार हो  गईं। दूसरी ओर  बच्चों के स्कूल बंद हो जाने से उनकी देखरेख का अतिरिक्त बोझ भी स्त्रियों पर आ पड़ा। इस कारण भी इस दौरान काफी महिलाओं को अपनी लगी-लगाई नौकरी छोड़नी पड़ी।  


सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के विशेषज्ञों की राय है कि भारत में लगभग 10 करोड़ महिलाएँ  पारंपरिक आर्थिक क्षेत्र  में काम कर सकती हैं, लेकिन उन्हें काम नहीं मिल रहा। अगर इन सबको समुचित रोजगार मिल जाए, तो इससे भारत की अर्थव्यवस्था में  अभूतपूर्व तेजी आ सकती है, क्योंकि  यह  संख्या इतनी बड़ी है कि  फ्रांस, जर्मनी और इटली की कुल 'वर्कफोर्स'भी शायद इससे कम ही हो! लेकिन अफसोस कि महिला बेरोजगारी को दूर करने के लिए सोचने की हमारे यहाँ  किसी को फुरसत ही नहीं है! अब इसे क्या कहिएगा कि कोरोना महामारी के दौरान  शहरी महिला कामगारों की संख्या 6.9 प्रतिशत रह गई, जो  2019 में 9.7 प्रतिशत थी?


इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन (आईएलओ) के  सर्वेक्षण में भी यह पाया गया बताते हैं कि कोरोना से पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के रोजगार पर ज्यादा बुरा असर पड़ा।  मुंबई में किए गए सर्वेक्षण से पता चला है कि इस दौरान 75 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 90 प्रतिशत महिलाओं ने अपना रोजगार गँवाया। इसी अध्ययन से अगली सच्चाई यह भी खुली कि  पुरुषों के लिए नया रोजगार पाना महिलाओं के मुकाबले आठ गुना आसान रहा! इसकी एक वजह हमारा सामाजिक ढाँचा भी रहा, जिसमें कुछ कार्यक्षेत्र केवल पुरुषों के लिए आरक्षित जैसे हैं। जैसे सामान डिलीवर करने का काम स्त्रियों की तुलना में पुरुषों को आसानी से मिल जाता है। 

 

वैसे सारा दोष कोरोना के सिर मढ़ना भी शायद उचित नहीं होगा। क्योंकि कोरोना के विस्फोट से पहले भी भारत में कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत घट रहा था। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन का कहना है कि 2010 में भारत की 'लेबर फोर्स'में महिलाओं का हिस्सा 26 प्रतिशत था, जो 2019 में घटकर 21 प्रतिशत हो गया।  इसी तरह सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनमी की मानें तो 2016 में महिलाओं की श्रम भागीदारी 16 प्रतिशत थी, जो 2019  में घटकर 11 प्रतिशत  पर आ गई थी। तब तक कोरोना का कहीं नाम-निशान न था। यानी, कोरोना के अलावा भी देश की परिस्थितियाँ और लैंगिक भेदभाव की रूढ़ियाँ स्त्रियों को रोजगार से दूर रखने के लिए ज़िम्मेदार हैं। 

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