सोशल मीडिया की जवाबदेही के वास्ते...
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ऋषभ देव शर्मा
आखिर केंद्र सरकार को सोशल मीडिया कंपनियों के लिए नियमों में बदलाव और मध्यस्थ जवाबदेही पर नए दिशानिर्देश घोषित करने ही पड़े। साथ ही ओवर द टॉप (ओटीटी) मंचों के लिए भी नए दिशानिर्देश जारी किए गए हैं।
हालांकि किसी परिपक्व लोकतांत्रिक समाज में इस प्रकार का सरकारी नियंत्रण वांछित नहीं कहा जा सकता, लेकिन अगर सामाजिक कहे जाने वाले माध्यम असामाजिक और अराजक होने लगें, तो कानून और व्यवस्था की रक्षा के लिए सरकार को आगे आना ही पड़ेगा। बेहतर होता कि ये मंच ऐसी स्थिति आने से पहले खुद अपना नियंत्रण तंत्र निर्मित कर लेते और सरकार को ऊपर से सीमाएँ न थोपनी पड़तीं। लेकिन पिछले काफी समय से यह देखने में आ रहा है कि सामाजिक माध्यम निरंकुश और मनमाना आचरण करके अभिव्यक्ति की आज़ादी का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं। यह आचरण ही सरकारी अंकुश का कारण बना।
वैसे एक सच यह भी है कि देर-सबेर ऐसे अंकुश को आना ही था। दरअसल सामाजिक माध्यम सूचना और संचार का ऐसा सार्वजनिक मंच है, जिसके सहारे पलक झपकते किसी विचार की चिंगारी को दावानल बनाया जा सकता है। इस शक्ति के कारण यह सहज ही किसी भी व्यापक जन आंदोलन या क्रांति का वाहक बनने में समर्थ है। ऐसे भस्मासुर को कोई भी सरकार आखिर कब तक खुला छोड़ सकती है? केवल तब तक ही न, जब तक इससे सत्ता का हित सधता हो! लेकिन अगर यह किसी दिन सत्ता को ही हिलाने पर आमादा हो जाए, तो? इसलिए ऐसी स्थिति आने से पहले ही इस मरखने साँड़ को नाथना ज़रूरी था। ये दिशानिर्देश कहीं न कहीं इस ज़रूरत की भी देन कहे जा सकते हैं। तो भी सरकार की इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि सोशल मीडिया पर गलत भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है। कोरोना काल में तेजी से बढ़े ओटीटी मंचों पर जिस सामग्री की बाढ़ आई, उसने सामाजिक भाषा व्यवहार की मर्यादाओं को ध्वस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसी तरह सोशल मीडिया मंच भी विचार विमर्श के स्थान पर जिस तरह गाली गुफ्तार के मंच बनते जा रहे हैं, उसे भद्र या शिष्ट आचरण तो नहीं ही कहा जा सकता। इसलिए अच्छा ही है कि अब ऐसी आपत्तिजनक सामग्री को मंजूरी नहीं दी जाएगी।
बोलचाल के शिष्टाचार को लाँघने से भी ज़्यादा खतरनाक बात यह देखने में आई है कि लोग अब नफ़रत और हिंसा फैलाने के लिए भी सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं। भला कोई सभ्य समाज इसकी इजाज़त कैसे दे सकता है? इसकी जवाबदेही तय करना आज वक़्त की ज़रूरत है। अन्यथा सामाजिक और राष्ट्रीय ताने बाने के तितर बितर हो जाने का खतरा पैदा हो सकता है।
जैसा कि केंद्रीय कानून मंत्री ने स्पष्ट किया है, अब सोशल मीडिया की तीन स्तरीय निगरानी होगी। एक शिकायत निवारण तंत्र रखना होगा और शिकायतों का निपटारा करने वाले अधिकारी का नाम भी रखना होगा। यह अधिकारी 24 घंटे में शिकायत का पंजीकरण करेगा और 15 दिन में उसका निपटारा करेगा। कंपनियों को महिलाओं के खिलाफ आपत्तिजनक पोस्ट 24 घंटे के अंदर हटानी होंगी। कंपनियों को नियमों का पालन करने पर हर महीने सरकार को रिपोर्ट देनी होगी। यह प्रावधान बहुत महत्वपूर्ण है कि जिसने सबसे पहले आपत्तिजनक पोस्ट डाली, उसके बारे में सरकार को बताना पड़ेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे सामाजिक माध्यम के दुरुपयोग और मनमाने आचरण पर अंकुश लग सकेगा।
उम्मीद यह भी कि इस अंकुश का इस्तेमाल व्यवस्था की आलोचना करने या सहमति-असहमति व्यक्त करने के लोकतांत्रिक अधिकार के दमन के लिए नहीं किया जाएगा। अंततः भारत एक विचार-सहिष्णु समाज है और उसका यह उदार चरित्र किसी भी कीमत पर बदला नहीं जा सकता।
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