डीयू,दलितऔर संस्कृत / विवेक शुक्ला
हर रोज की तरह उस दिन भी आईएसबीटी में चौतरफा अव्यवस्था फैली हुई थी। दिन था 12 अप्रैल 2003। गर्मी से सबका हाल-बेहाल था। दिन के करीब एक बजे हरियाणा रोडवेज की कैथल से आई खटारा बस से उतरी कौशल पंवार। उनके पास एक छोटी सी अटैची में कुछ कपड़े,रुपए और बहुत सारी डिग्रियां थीं।
कौशल को दिल्ली में अपनी एक नई इबारत लिखनी थी। हालांकि उसका भरोसा बीच-बीच में विचलित भी होता था। मन आशंकित होता था कि क्या ये समाज किसी वाल्मिकी परिवार की कन्या को संस्कृत में पीएचडी करने और फिर पढ़ाने का मौका देगा। कौशल जाति से ही वाल्मिकी नहीं थी।
वह तो अपने शहर कैथल में रहते हुए सफाईकर्मी का काम कर चुकी थीं। उनकी बहुत सी सहेलियों ने उनसे इसलिए बात करना छोड़ दिया था क्योंकि वह झुग्गी में रहती थीं।
कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से एमए और रोहतक की महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी से एमफिल करने के दौरान कौशल को बार-बार संकेतों में या फिर स्पष्ट रूप से कहा गया था कि वह वाल्मीकि होने पर भी संस्कृत विषय में शोध क्यों करना चाहती है? इन व्यंग्य बाणों से कौशल निराश या हत्तोत्साहित नहीं हुईं। उनके इरादे मजबूत ही हुए।
आईएसबीटी पर उतरने के बाद कौशल सराए काले खान होते हुए डीटीसी बस से मुनीरका पहुंची। मुनीरका से फिर जेएनयू। यहां उसे पीएचडी में दाखिला लेना था। जेएनयू में दाखिले के बाद उन्हें लगा कि चलो अब जिंदगी में धक्के खाने और अपमानित होने का दौर खत्म हो जाएगा। आखिर जेएनयू की एक प्रगतिशील यूनिवर्सिटी की छवि थी। उनका पीएचडी में शोध का विषय था ‘धर्म शास्त्रों में शुद्र’।
पर कौशल को जेएनयू ने बार-बार निराश किया। उनकी जेएनयू को लेकर बनी इमेज तार-तार होती रही। कौशल जेएनयू के जिस हॉस्टल में रहती थी वहां की वार्डन की हमेशा यही चाहत रही कि वह यहां से चली जाए। वह उन्हें हर तरह से प्रताड़ित ही करती रही।
पर कौशल ने पीएचडी पूरी की। तब तक कौशल पंवार मोतीलाल नेहरु कॉलेज में संस्कृत पढ़ाने भी लगीं। किसी वाल्मिकी परिवार से संबंध रखने वाली महिला का डीयू के किसी कॉलेज में संस्कृत पढ़ाने का संभवत: यह पहला उदाहरण था। इस तरह से कौशल ने बहुत सारी सड़ी हुई मान्यताओं को ध्वस्त कर दिया।
उनकी जिद्ध और जज्बे ने सिद्ध कर दिया कि कोई भाषा या विषय किसी धर्म या जाति की बपौती नहीं हो सकती। कौशल पंवार के अंदर गुस्सा है। गुस्सा उस अन्याय के विरूद्ध है जिसे दलित अब भी झेलते हैं। उन्हें भी सीधे या घुमा-फिराकर अपमानित करने की चेष्टा की जाती है। उनके अपने कॉलेज के कुछ सहयोगी भी करते रहे हैं। कौशल पंवार जब स्टाफ रूम में बैठी होती हैं तो कुछ साथी अध्यापक कॉलेज के वाशरूम और वहां के सफाई कर्मियों का मसला उठाने लगते हैं।
ये सब वे लोग हैं जो अपने को प्रोगेसिव कहते हैं। कौशल पंवार तमाम विरोधों-अवरोधों को पार करते हुए आगे बढ़ रही हैं। अब कौशल दलित लेखन और आंदोलन का सशक्त नाम बन चुकी हैं। उनकी समाज से कई वाजिब शिकायतें हैं। पर इतना तो कहना होगा कि दिल्ली ने उन्हें अपना आकाश छूने का भरपूर अवसर दिया है। दिल्ली और देश को चाहिए हजारों-लाखों कौशल पंवार।
Vivek Shukla
लेख 4 मार्च 2021 को नवभारतटाइम्स में छपा।
Picture Dr Kaushal