बात बे बात (३३) :/ परशुराम शर्मा
हमने बचपन में जितने अधिक आम खाये हैं, उतना फिर कभी नहीं खा सका। मन भर कर आम खाये हैं। केवल पेट भर कर नहीं। गांव के बगीचे से। बचपन में। आज भी मिल जाये तो मन नहीं भरता। पर, वैसे आम मिलते कहां ?
आज सुबह सबेरे जब आम पर पवन सिन्हा का पर्वचन सुना तो उधर अनायास ध्यान चला गया। मैं अखबार देख रहा था, पत्नी टीवी। वे टीवी पर बता रहे थे कि कैसे आम खाना चाहिये, कैसे कितना नहीं खाना चाहिये, कब कितना खाना चाहिये, ज्यादा खाने से पेट में गैस बनता है तो पित्त बनता है, खाली पेट नहीं खाना चाहिये तो पेट भर नहीं खाना चाहिये और ना जाने क्या-क्या ? सुनता रहा। मन ही मन भुनभुनाता रहा। अब इस उमर में उन्हें कुछ कह भी तो नहीं सकता। कहता भी तो किसको कहता? कोई हमारे सामने तो बैठे नहीं थे कि उन पर अपना सवाल दागता।
वे तो टीवी पर दनदना रहे थे। पर, मेरा मन इसी बीच पवन-वेग से बचपन के अपने गांव पहुंच गया। पवन-पुत्र भी शायद ऐसे ही कहीं पहुंचते रहे होंगे। हमारा मन भी बानर-टोली बन गांव के अपने विशाल बगीचे में पहुंच गया। वहां पेड़ों पर चढ़ने-उतरने लगा और मनपसंद मीठे रसीले पके आमों को छांट कर छोटे-छोटे हाथों से तोड़-तोड़ खाने लगा। कुछ तोड़ते तो कुछ ज्यादा पके होने से हिलाते ही और कोई अपने आप गिर जाते।
अगर वहां पवन सिन्हा से मुलाकात हो जाती तो हम बेझिझक कह देते कि आप बकवास कर रहे हैं। जब हमारे बाबा आम खाने से नहीं रोकते तो जनाब, आप किस खेत की मूली हैं। पर, आज उनका क्या कसूर, वे भले के लिए सबको बता रहे थे। आम के बारे में अच्छी-अच्छी बातें बता रहे थे। अब हम बच्चे भी तो नहीं थे। पवन सिन्हा अपनी जगह, पवन-पुत्र और उनकी बानर टोली अपनी जगह।
गांव में तब एक तरह से गर्मियों में हम जी भर आम खाते थे, उस पर सोते थे, उसे ओढ़ते थे, फिर जगते थे और खाते थे। तरस जाते थे कि कुछ और चीज भी खाने को मिले। वह तो तब, जब आम खाते-खाते उब होती। पर प्राय: वैसा चटपटा कुछ नहीं मिलता। तब झक मार कर फिर आम ही खाते। मन से, चाहे बे मन से। एकदम फोकट में। तब न जेब होती थी, और ना जेब में अधन्नी या इकन्नी।
आज बनारस की इस तपती उबाऊ गर्मी में आम खाने को हमें तरसना पड़ता है। पैसा है, लेकिन हमारा वह ताजा मनपसंद आम नहीं। घर तक वैसा कोई ठेले वाला असली मीठे आम लेकर आता नहीं और शाम ढले भी अपना मनपसंद आम ढूढ़ने हम बाजार-बाजार शहर में भटक नहीं पाते। मन मार कर घर में ही दुबके रह जाते। रात में भी लू जो चल रही है। कहीं बाहर निकलने की तबियत नहीं होती। पहले वाला दु:साहस भी नहीं रह गया। बचपन में तो हम घर पर ही नहीं टिकते थे। आम का घना बगीचा ही हमारा गर्मियों का 'हिल स्टेशन'बन जाता था। तरह-तरह के छोटे, बडे़, विशाल पेड़। उस पर नीचे से उपर तक लदे लटके गुच्छेदार आम। जिन्हें हम देख-देख दिवाने होते रहते। जैसे हिल स्टेशन वाला मनमोहक नजारा देख कर कोई होता होगा। वहां तो लोग रंगीन ऊनी परिधानों में ठण्ढ का मजा ले रहे होते। यहां हम गर्मी के मारे मोटे तौर पर लगभग नंग-धड़ंग होते। हम अकेले नही होते। वहां लगभग सारा गांव इकट्ठा होता। दिन-रात। किसी के बदन पर पूरा कपड़ा नहीं होता। सब के सब बगीचे में अपना डेरा जमाये रहते। केवल कुछ बूढ़े और महिलायें घरों में रह जातीं। गांव के दालान खाली पड़े होते। गलियों में सन्नाटा पसरा रहता। धमा चौकड़ी करने वाली बच्चा पार्टी तो पूरी की पूरी बगीचे में चारों ओर फैली रहती। बे रोक टोक। बड़े जनों की ताश पार्टी की मजलिस भी दालान से उठ कर बगीचे में आ जाती। कहां तब किसी पर कोई गर्मी की मार होती? उल्टे कहा जाये तो बहार ही बहार होती। जेठ की गर्मी का पूरा मौसम कुछ इसी तरह मौज-मस्ती में कट जाता। बरसात के आने और आम का मौसम जाने तक।
-- परशुराम शर्मा।
बात बे बात (३४) : हम बचपन में गांव के बगीचे से बहुत सारा जी भर और छक कर आम खाने की बात कर रहे थे। ऐसा इसलिए मौका नहीं मिला था कि हम कोई बड़े घर के बेटे थे। जी नहीं, हम एकदम खाते-पीते साधारण परिवार से जुड़े थे। बगीचा भी अकेले हमारा नहीं था। केवल सबके वहां अपने पेड़ होते थे, जो हमारे पूर्वजों ने लगाये थे। उन्हीं पेड़ों पर हमारा कब्जा होता। बाकी गांव के दूसरों के पेड़ थे। मीलों फैला बेहद घना
बगीचा आसपास के तीन गांवों- बनाही या बगही, रुद्रनगर और गौडाढ़- के सम्मिलित अधिकार में बंटा था। आप समझ सकते हैं कि अपने हिस्से के ऐसे रइस थे हम। आमों की कोई कमी नहीं थी।
इसलिए नहीं कि किसी रइस खानदान या सामंती परिवार से हमारा कोई ताल्लुकात था। या हमारा कोई बड़ा सा अपना खास बगीचा था। हम सब तो बहुत ही साधारण परिवार के सपूत थे। एक- दो पक्के मकान छोड़ कर गांव में प्राय: सबके मिट्टी के मकान और दालान थे। सभी मकानों के छत खपरैल होते थे। इसी तरह का बाबा का हमारा घर पांच कट्ठे में फैला था। कम से कम आठ कोठरी अन्दर और बड़ा सा दालान बाहर। उससे सटे सामने खुले में लम्बी-चौड़ी जमीन इतनी कि वहां बाराती ठहर जाये। घर, दालान और द्वार के सारे फर्श मिट्टी के ही थे। जिनकी गोबर मिले पानी की घोल से लिपाई होती। हरदम साफ सुथरे रहते। गोबर के लिए कहीं बाहर नहीं जाना होता। द्वार पर बैलों की एकाध जोड़ी के साथ भैंस, गाय और उसके बच्चे हमेशा नजर आये। इनसे हमारा भी मनोरंजन होता रहता।
मवेशियों का सारा सुखा व हरा चारा भी अपने ही खेतों से मिल जाता था। कभी खाने-पीने की कोई कमी हमने नहीं महसूस की। कहा जाये तो दूध की नदिया बहती थी। तब कोई टेबुल कुर्सी पर नहीं, हम सब जमीन पर पीढ़ा लेकर खाने बैठते। खाना भरपूर रहता। कभी किसी चीज का अभाव महसूस नहीं हुआ। भले हमारे पास दो-चार जोड़ी कपड़े भी नहीं होते। बस, स्कूल जाने के लिए एक कुर्ता-पैजामा या हाफ पैंट और कमीज होती। एकदम साधारण सूती कपड़ों वाला। जाड़े में बामुश्किल एक हाफ स्वेटर या सूती चादर। बाबा को सुबेदारी का पेंशन मिलता था। बड़का बाबूजी, हमारे बाबूजी और दो चाचा बाहर नौकरी करते थे। साधारण नौकरी। दो पुलिस में और दो रेलवे में थे। छोटे बाबूजी पूरे घर और खेतीबारी की देखभाल करते। रामराज चाचा खेतीबारी में साथ देने के अलावा मवेशियों की देखभाल की पूरी जिम्मेदारी संभालते। इस तरह हमारा घर मजे से चल रहा था। किसी को परेशान या बेचैन होते हमने कभी नहीं देखा। सब अपने काम में लगे होते और जबतब भरपूर मनोरंजन में भी भाग लेते। चैता, फाग, रामायण का सस्वर पाठ या जो भी होता, उसमें ढोल,मजीरा और झाल ले कर बैठ जाते। हम तो उसमें रहते ही, जबतक मन करता। फिर, चुपचाप हम खिसक जाते।
आम के दिनों की बात छोड़ भी दी जाये, तो बाकी मौसम भी हमारे लिए कुछ ऐसा ही सुहाना रहता था। जैसे, ईख के मौसम में महीनों गन्ना चूसने, रस पीने और तवे पर बन रहे गरम-गरम गुड़ खाने से जी भर जाता था। जब चना-मटर के फसल की शुरुआत होती, तो सारा दिन अपने खेतों से हरे चने के पौधे उखाड़ कर खाने की होड़ होती। रोज हम नदी किनारे इकट्ठे होते। खेतों से चने के ढेर सारे पौधे उखाड़ते और नदी के पानी में अच्छी तरह धो और उसे झाड़ कर एक-एक दाना खाते। पौधों को ना धोने से उसका नोनी मुंह में नमकीन और तीखा लगता। नदी के साफ पानी से धो लेने के बाद हरे चने का स्वाद मिठास लिये हो जाता। हम उसे तबतक खाते, जबतक जी न भर जाता। कम पड़ने पर पास के दूसरों के खेत से भी हाथ साफ करने में नहीं हिचकते। तब किसी खेत से खाने की कोई मनाही नहीं थी। घर में मटर खाने को मिलता था। कभी हरे मटर को दल कर दाल बनता और ज्यादातर तला हुआ हरा मटर नास्ते के तौर पर सबके सामने आता।
बरसात के मौसम का भी अपना मजा होता। तब हम जम कर मकई का भुट्टा खाते। नदी का पानी अक्सर बाढ़ के रुप में हमारे मक्के के खेतों में भर जाता तो पानी में डूब रहे खड़े फसल से कच्चे-पके सभी मक्के तोड़ कर लाने का सबको आदेश होता। सब इस अभियान में जुट जाते। इस तरह हमारा बचपन गांव में मजे से कटता। हम हमेशा मस्त रहते। हर मौसम सुहाना लगता।
-- परशुराम शर्मा।