पत्रकार और साहित्यकार होने में अंतर है , जबकि अक्सर दोनों को एक समझ लिया जाता है ....
दोनों को एक समझने के कारण हैं -- दोनों लेखन कर्म से जुड़े हैं , दोनों अभिव्यक्ति के माध्यम का प्रयोग करते हैं , दोनों अपनी अभिव्यक्ति को प्रकाशित या प्रसारित करते हैं , दोनों की लेखन कर्म के प्रति प्रतिश्रुति होती है , दोनों समाज और मानवता के मूल्यों के प्रति समर्पित होते हैं और दोनों अपने समय की चेतना के वाहक होते हैं ....
पत्रकारिता साहित्य की तुलना में अपेक्षाकृत नया पेशा है । दुनिया भर में पत्रकारिता का प्रचलन कई चीजों से जुड़ कर और उनके कारण परवान चढ़ा ---- आधुनिकता , पूंजीवाद , व्यक्तिवाद , लोकतंत्र , प्रौद्योगिकी व छापाखाना जैसे अनेक तत्वों ने पत्रकारिता को अपरिहार्य बना दिया । आधुनिककाल से पूर्व पत्रकारिता की परिकल्पना और संकल्पना असंभव थी । जहाँ जहाँ और जैसे जैसे आधुनिकता , पूंजीवाद और लोकतंत्र पहले आया , वहाँ वहाँ और वैसे वैसे पत्रकारिता का उद्भव और विकास होता चला गया । जहाँ ये परिवर्तन देर से हुए , वहाँ पत्रकारिता को भी आने में समय लगा ....
साहित्य की स्थिति पत्रकारिता से कुछ अलग है । साहित्य मानव , मानव समाज और उसके भाषा रूपों से जुड़ा हुआ है , इसलिए यह समाज और भाषा की उत्पत्ति के साथ ही अस्तित्व में आ गया । अलग अलग कालखंडों में साहित्य के स्वरुप व प्रकृति में जरूर अंतर आता गया , समय के साथ साहित्य में काफी बदलाव भी आता गया , लेकिन समाज और भाषा के किसी भी दौर में इसे अनुपस्थित नहीं देखा गया । इसीलिए साहित्य के साथ शाश्वतता और सार्वभौमिकता का बोध जुड़ गया , जबकि पत्रकारिता अपनी प्रकृति के कारण तात्कालिकता से अधिक संपृक्त हो गई ....
पत्रकारिता अपने पेशागत चरित्र के कारण आजीविका का माध्यम बनी , जबकि साहित्य किसी भी दौर में जीविकोपार्जन का सशक्त आधार नहीं बन पाया । साहित्यकारों को प्रायः हर युग में जीविकोपार्जन के लिए साहित्येतर माध्यमों पर निर्भर रहना पड़ा । सामंतवादी युग में उनके पास राज्याश्रित या धर्माश्रित ( लोकाश्रित ) होने के सीमित विकल्प थे , लेकिन आधुनिक पूंजीवादी युग ने इन विकल्पों को कई गुना बढ़ा दिया . इस युग में जो विकल्प बढ़े , उनमे से दो प्रमुख थे ---- ( एक ) पत्रकारिता और ( दो ) प्राध्यापकी । ज्यादातर साहित्यकार इन्हीं दो विकल्पों से जुड़ कर अपने आजीविका संबंधी असुरक्षाबोध से मुक्त हुए ....
इन दो विकल्पों में भी पत्रकारिता का #ग्लैमर अलग और अधिक था तथा साहित्य की प्रकृति के अनुकूल था । हिन्दी में तो प्रारंभिक दौर में अधिकांश साहित्यकार घोषित या अघोषित पत्रकार अवश्य थे । वे अधिकांशतः अपना पत्र निकालते थे और उस पत्र के #पीर_बवर्ची_भिश्ती_खर भी स्वयं होते थे ....
समय के साथ जब पत्रकारिता के स्वरुप में अंतर आया । बड़े बड़े औद्योगिक घराने , संस्थान और प्रतिष्ठान अखबार और पत्रिकाएं निकालने लगे , तो लिखने के हुनर में माहिर कवि और लेखक पत्रकार के रूप में उनका अंग बन गए । वे समान भाव से पत्रकारिता और साहित्यकारिता करने लगे और देखते देखते #कवि_पत्रकार नामधारी एक नया वर्ग तैयार हो गया ....
वे #पत्रकारिता_जगत_में_साहित्यकार और #साहित्य_जगत_में_पत्रकार का #रुतबा और #प्रतिष्ठा अर्जित करने लगे । पत्रकारिता से जुड़ जाने पर साहित्य जगत में उनकी माँग कई गुना बढ़ गई और इसी के साथ साहित्य में उनकी महत्वाकांक्षा भी .........
सच तो यह है कि साहित्य और पत्रकारिता दो भिन्न क्षेत्र हैं , जिनमें लेखन का समान तत्व विद्यमान है , लेकिन लेखन की समानता दोनों को एक नहीं बनाती ; जरूरत इस बात की है कि एक क्षेत्र की महत्ता का इस्तेमाल दूसरे क्षेत्र में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए न होने पाए .... साहित्यिक क्षेत्र में प्रतिष्ठा का आधार साहित्यिक लेखन हो और पत्रकारिता क्षेत्र में प्रतिष्ठा का आधार पेशेवर दक्षता !
#अनूप_शुक्ल