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.....कारवां गुजर गया / परशुराम शर्मा

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 निर्झर बहते नीरज के गीत


बात बे बात (४९) : अमर गीतकार कवि नीरज से हम कभी नहीं मिले। लेकिन हम उनके गीतों के दीवाने रहे हैं। अपने गीतों के जरिये वे हमेशा हम पर छाये रहें। आगे भी छाये रहेंगे। क्योंकि उनके कुछ खास गीत मन में रच बस गये हैं।


वे गीत किशोरावस्था से हमारे दिल-दिमाग में गूंज रहे हैं। कारवां गुजर गया..गीत तो उनके नाम के संग गूंथा हुआ था। वह अमर हैं। पूरे राजकीय सम्मान के साथ  शनिवार को अलीगढ़ में उनकी अंतिम विदाई  दी गई। वे पंचतत्व में विलीन हो गये। गुरुवार को दिल्ली एम्स में उनका देहावसान हुआ था।


किशोरावस्था के बाद भी फिल्म 'मेरा नाम जोकर'  का यह गीत मुझे हमेशा स्मरण रहा.. 'ए भाई जरा देख के चलो। आगे ही नहीं,पीछे भी। उपर ही नहीं, नीचे भी।..'यह जीवन जीने  का एक संदेश था। मेरे जीवन में यह एक गाइड की तरह जुड़ा रहा। यह सन् १९७४ के जेपी छात्र आंदोलन में मेरे घुस कर निकलने का दौर था। पटना वि.वि. से एम.ए. की पढ़ाई पूरी कर मैं पूरी तरह पत्रकारिता में रम गया।


मैं कभी साहित्य का विद्यार्थी नहीं रहा। मुझे सिर्फ पढ़ने का शौक था। गंभीर और मनोरंजक दोनों तरह की पुस्तकें इधर-उधर और पुस्तकालय से लेकर पढ़ता था। यह शौक आजतक कायम है। अब पुस्तकें खरीद कर ही ज्यादा पढ़ना होता है। पढ़ने की शुरुआत परी-कथाओं से हुई। बचपन में कॉमिक जम कर पढ़ा। चंदामामा वैगरह पढ़ने में खुब मन लगता था। किशोरावस्था की ओर कदम बढ़े, तो बाजार में चल रहे ओम प्रकाश शर्मा के जासूसी उपन्यास और प्रेम रस वाले प्यारेलाल आवारा एवं गुलशन नंदा जैसे लेखकों के रुमानी उपन्यास हाथ लगे। इन्हें खोज-खोज कर पढ़ा। दोस्तों के प्रेम पत्र लिखने में ये काफी काम के साबित हुए। बदले में मुझे मान मिला। साथ ही दोस्तों से मुफ़्त में सिनेमा देखने का चस्का लगा। शायद उम्र के उसी दौर में देखे एक फ़िल्म- नयी उमर की नयी फसल- में एक गीत बहुत पसंद आया। उसके कुछ बोल ऐसे थे, जो सीधे मेरे दिल में उतर गये। जैसे, 'स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से...और हम खड़े खड़े बहार देखते रहे। कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे।'  


वैसे तो यह पूरा गीत सिनेमाघर में सबको अच्छा लगा था। पर, मेरे कच्चे मन को इतना भाया कि हम केवल यह गीत सुनने के लिए कई बार वह फ़िल्म देखने गये। उन दिनों फिल्मी गानों की किताबें बिका करती थी। इस गाने की किताब को फुटपाथ की दुकान से खोज कर खरीदा। उसे बार-बार पढ़ा, उसको याद किया और अपने बेसुरे राग से कई बार गाने का प्रयास किया।   


उसी गाने की किताब से गीतकार के नाम का पता चला कि यह नीरज का लिखा गीत है। गोपाल दास नीरज नहीं, केवल नीरज से मेरा प्रथम परिचय इस प्रकार हुआ। बाकी उनके बारे में कुछ और नहीं जानता था। पर उस अनजान नीरज से एक गहरा रिश्ता जरुर जुड़ गया। बेसब्री से उनके गीतों की प्रतीक्षा करता था। फिल्म के उनके गीत मन में गहरे उतरते चले गये। उनके बाकी चीज़ों से मेरा कोई विशेष वास्ता नहीं रहा। बस फिल्मी दुनिया के वे मेरे सबसे पसंदीदा गीतकार बन गये।


सच कहूं तो यह फ़िल्मी परिचय कभी साहित्यिक परिचय का रूप नहीं धारण कर पाया। मैं इसे अपनी कमजोरी ही  मानता हूं। मैं इसी में मगन था कि कोई मेरा ऐसा आदमी इस दुनिया में मौजूद है, जो बार-बार मेरे मन के तार को छेड़ जाता है। कभी राजकपूर के फिल्मों में तो कभी देवानंद के फिल्मों में उनके ऐसे गीत डाले जाते रहे। जिसे सुन कर दिल का कोई न कोई कोना छू जाता था। मैं उसमें गहरे डूब जाया करता हूं। तबतक मुझे फिल्में देखने की लत लग चुकी थी। अब भी देखता हूं। मैं वैसी फिल्मों की प्रतीक्षा करता रहता हूँ। उनमें नीरज टाइप के गाने ढूंढता हूं। इस तरह कहा जाये तो फ़िल्मी दुनिया के रंगीन पर्दे के माध्यम से ही हमारी पक्की दोस्ती नीरज जैसे महान गीतकार कवि से बनी रही। जबकि उनसे ना कभी मिला और न ही उनके अन्य किसी साहित्यिक गुणों एवं गतिविधियों से अवगत होने का संयोग बना। 


वैसे तो नीरज के सारे गाने मनमोहक हैं। इनमें कुछ उल्लेखनीय हैं -

. फूलों के रंग से, दिल की कलम से..

. रंगीला रे, तेरे रंग में..

. मेघा छायी आधी रात..

. लिखे जो खत तुझे...

. बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं..

. शोखियों में घोला जाए...

. धीरे से आना खटमल खटियन में..

. देखती ही रहो आज ना दर्पण तुम..

उनके लिखे सभी गाने सराहे गये। इसके लिए उन्हें तीन बार फिल्म फेयर एवार्ड मिला। १९७० में चंदा और बिजली फिल्म के गीत : काल का पहिया घूमे रे भइया, १९७१ में फिल्म पहचान का गाना: बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं और १९७२ में मेरा नाम जोकर फिल्म के सदा बहार गीत: ए भाई ! जरा देख के चलो.. के लिए उन्हें लगातार पुरस्कार दिये गये। देवानंद के साथ उनके अंतरंग संबंध आखिर तक कायम रहे। 


वहां से जी भर गया तो नीरज ने बंबई फिल्मी दुनिया को अलविदा कर दिया। स्थायी तौर पर अलीगढ़ में अपना डेरा जमाया। कवि सम्मेलनों में उन्होंने खुब नाम कमाया। चारों तरफ़ उनकी वाह-वाही हुई। भारत सरकार की ओर से उन्हें दो-दो बार पद्म पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उन्हें १९९१ में पद्मश्री और २००७ में पद्म भूषण से अलंकृत किया गया। साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें उ.प्र.सरकार से १९९४ में ही यश भारती पुरस्कार से नवाज़ा जा चुका था।


पर उनके जाने की खबर से मैं बहुत मर्माहत हुआ। कहा जाय तो वे मुझ जैसे आम आदमी से भीतर तक जुड़े व्यक्ति थे। इनके जाने का दु:ख मेरे जैसे करोड़ों करोड़ आम लोगों को हुआ होगा। ऐसी लोक श्रद्धांजलि एक महान व्यक्ति को ही मिला करती है। सचमुच, नीरज एक विराट कद के आम आदमी थे, पूरी तरह आम आदमी से जुड़े हुए। साहित्य जगत में उनकी भले जो ऊंची पहचान हो, पर उनकी सही पहचान एक आम आदमी वाली ही ज्यादा होगी। आगे भी संभवतः यही बनी रहेगी। दूर दराज के इलाके तक आम लोगों के बीच के वे एकबेहद लोकप्रिय गीतकार के रूप में अमर रहेंगे। यही उनकी सही पहचान है।


इटावा के पास एक गांव में सन् १९२५ में जन्मे गोपाल दास सक्सेना नीरज भी यही चाहते थे। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि 'अगर दुनिया से रुखसती के वक्त आपके गीत और कविताएं लोगों की जुबां और दिल में हों तो यही आपकी सबसे बड़ी पहचान होगी।'सच है कि एक रचनाकार की इससे बड़ी पहचान क्या हो सकती है। नाम और दाम के साथ नीरज को सब कुछ मिला। भले हम चाहे जितने दु:खी हों। कभी न भूलने वाले हमारे नीरज सबके प्रिय थे और सदा रहेंगे।


-- परशुराम शर्मा ।


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