कहां रे हिमाला ऐसा, कहां ऐसा पानी, यही वो जमीं जिसकी दुनिया दीवानी!!
केदारनाथ हैलीपैड से सुबह वापसी के लिए काफी भीड़ जमा थी, हमें सात की बजाय आठ बजे का टोकन मिला। मैंने इस एक घंटे का भरपूर फायदा उठाया। सबसे पहले संगम घाट पर जाकर एक कैन में मंदाकिनी का जल भर लिया और फिर एक बार मंदिर तक वापस गया। सुबह के समय जलाभिषेक कराने वालों की करीब 150 मीटर से भी लंबी लाइन लगी थी। मैंने पूरे केदारनाथ धाम का एक क्लिप में कवर कर लेने वाला वीडियो तैयार किया, कई चित्र लिए। बर्फ के ढके पहाड़ों को पीठ करके लौटने का मन ही नहीं कर रहा था, यमुनोत्री व गंगोत्री की तुलना में सफेद चादर ओढ़े ये पहाड़ ज्यादा करीब लग रहे थे। मैं बार-बार उन्हें पीछे मुड़कर देखता, अपनी आंखें मूंदकर महसूस करने की कोशिश करता कि क्या ये दृश्य मेरे अंतस में भी अंकित हो गए हैं या नहीं? ताकि महीनों-सालों बाद जब कभी यहां की याद आए और तब आंखें बंद करूं तो मेरे मानस पटल पर यही दृश्य उभर आएं। उसी समय जेहन में सचिन देव बर्मन का गाया और गोपालदास नीरज का लिखा प्रेम पुजारी फिल्म का गीत याद आया-‘कहां रे हिमाला ऐसा, कहां ऐसा पानी, यही वो जमीन जिसकी दुनिया दीवानी।’ फिर तो दिनभर दिमाग में ये पंक्तियां घुमड़ती रहीं। चारधाम यात्रा पूरी करने के कई महीने बाद एक फिल्म रिलीज हुई-‘केदारनाथ’। उसका ये गीत जब भी सुनता हूं- ‘जय हो, जय हो शंकरा, भोलेनाथ शंकरा, नमो नमो जी शंकरा, भोलेनाथ शंकरा, रुद्रदेव हे महेश्वरा।’ तो केदारनाथ की बहुत याद आती है, और लगता है काश गौरी कुंड से केदारनाथ और वापस पैदल ही गए होते या कम से कम एक तरफ तो पैदल चलते।
लौटते समय हैलीकॉप्टर में अनन्य को आगे पायलट के बगल वाली और हम दोनों को पीछे की सीट मिली। उड़ान का भी पूरा वीडियो बनाया। पहाड़, नदियां, जंगल, बादल, सड़क, मकान सब तेजी से पार होते जा रहे थे, कुछ ही मिनटों में फाटा पहुंच गए। यहां उतरते ही हमने उस टैक्सी को फिर से बुलाया, जिसे कल त्रियुगीनारायण के बीच रास्ते वापस फाटा ले आए थे। हालांकि खुद पैदल नहीं गए थे सो गौरीकुंड व मुंडकटिया गणेश मंदिर जहां से केदारनाथ की पैदलयात्रा शुरू होती है, तक जाने की बहुत इच्छा थी। मुंडकटिया गणेश मंदिर ही वह स्थान माना जाता है जहां भगवान शंकर ने गौरीपुत्र गणेश द्वारा रास्ता रोके जाने पर उनका सिर ही काट दिया, बाद में सिर कटे धड़ में हाथी का सिर जोड़कर उन्हें जीवित कर दिया। लेकिन फाटा से गौरीकुंड जाने के रास्ते में बहुत ट्रैफिक जाम था इसलिए सीधे त्रियुगीनारायण की ओर ही मुड़ गए। त्रियुगीनारायण के बारे में मान्यता है कि यहां भगवान शिव व पार्वती का विवाह हुआ था। इसके नाम से ही जाहिर है कि यह मंदिर त्रियुगी यानी तीन युगों के, नारायण यानी विष्णु को समर्पित है। मान्यता है कि यहां शंकर-पार्वती के विवाह में विष्णु ने पार्वती के भाई के जिम्मे के रीति-रिवाज निभाए थे तो ब्रह्मा इस विवाह के पुरोहित आचार्य बने थे। यहां मौजूद पुजारी ने बताया केदारनाथ की पैदल यात्रा जिस गौरीकुंड से शुरू होती है, हिमवान की बेटी पार्वती ने उसी गौरीकुंड में तपस्या कर शंकर को प्रसन्न किया था एवं उन्हीं से विवाह करने का वर प्राप्त कर लिया।
त्रियुगीनारायण गांव सोनगंगा व मंदाकिनी के संगम यानी सोनप्रयाग से करीब 5 किमी दूर मंदाकिनी के तट पर समुद्र तल से 1980 मीटर की ऊंचाई पर बसा है। मंदिर के दरवाजे तक गाड़ी जाने लायक सड़क है। यहां का मुख्य मंदिर केदारनाथ मंदिर का बिल्कुल हमशक्ल है। मुख्य मंदिर में भगवान विष्णु, लक्ष्मी व सरस्वती की प्रतिमाएं विराजमान हैं। गर्भगृह के आगे ही एक हवन कुंड है जिसमें सदा अग्नि जलती रहती है, इसलिए इस मंदिर को अखंड धुनी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। ऐसी मान्यता बताई गई कि इस हवन कुंड की राख को आशीर्वाद के रूप में कोई अपने घर लाए तो उसका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी बीतता है। लोग इस कुंड में भेंट के रूप में समिधा (लकड़ी) चढ़ाते हैं। इसी अहाते में मंदिर के सामने एक चबूतरा है जिसे ब्रह्म शिला कहते हैं, यही स्थान शंकर-पार्वती का विवाह स्थल माना जाता है। परिसर में ही चार कुंड भी हैं जिनमें से तीन कुंडों रुद्र कुंड, विष्णु कुंड व ब्रह्मकुंड को चौथे सरस्वती कुंड से आने वाली धारा से जल मिलता है। हमने मंदिर में समिधा भेंट की। बाहर ब्रह्म शिला पर बहुत से लोग बारी-बारी ‘कन्यादान’ पूजन कर रहे थे। करीब आधे घंटे हम यहां रहे। यहां गांव में पहली बार ऐसी पहाड़ी महिला भी नजर आई जो पीठ पर बेंत की बनी लंबी डलिया बांधकर खेत से सब्जी ला रही थी। पहाड़ी महिलाओं की ऐसी तस्वीरें मैंने किताबों में देखी थीं। पहाड़ों में चढ़ाई पर सामान लेकर चढ़ने या सामान्य पैदल चलने में भी आमतौर पर आगे झुककर ही चलना पड़ता है, चढ़ते समय दोनों हाथ खाली रहें, इसके लिए महिलाएं या पुरुष भी डलिया या सामान को रस्सी या फीते से अपने सिर और कमर से बांध लेते हैं। इससे यहां के सीढ़ीदार खेतों में भी काम करने में आसानी होती है, दोनों हाथों से फल, फूल, सब्जी, पत्तियां तोड़कर बस अपने पीछे डलिया में डालते जाओ। चाय के बागानों में ऐसे दृश्य बहुत आम हैं।
त्रियुगीनारायण से टैक्सी ने हमें रामपुर के जीएमवीएन गेस्ट हाउस छोड़ दिया। हम तो हैलीकॉप्टर से गए-आए लेकिन हमारे समूह के कोलकाता वाले दोनों बुजुर्ग प्रोफेसर बंधु पैदल ही गौरीकुंड से केदारनाथ गए और पैदल ही वापस आए, हमारे ट्रिप में इस समय का प्रावधान था इसलिए यहां से हमारा प्रस्थान अब अगले दिन था। सो अब अफसोस हो रहा था कि अभी यहां से चलना ही नहीं था तो सुबह-सुबह केदारनाथ से इतनी जल्दी दौड़े-भागे क्यों चले आए, वहां से शाम को लौट आते लेकिन तीन महीने पहले हैलीकॉप्टर की टिकट बुकिंग के समय इसका तनिक भी अनुमान नहीं था।
गेस्ट हाउस की बॉलकनी से मंदाकिनी नदी और उसके दूसरे तट के पहाड़, उनसे गिरते झरनों की धाराएं, हर तरफ फैली हरियाली, उड़ते पंछी, आसपास के वृक्षों की हवा में लहराती टहनियां, मटकती पत्तियां और रुक रुककर हो रही बेहद हल्की बारिश से पैदा हो रही प्राकृतिक ध्वनियों ने वातावरण को काव्यमय बना दिया था, मानो हम किसी जीती जागती कविता का हिस्सा बन गए हों। सामने जहां तक नजर जा रही थी, बस आप उनका नाम लेते जाइए, कविता तो अपने आप बन जाए। दूसरी ओर, गेस्ट हाउस के दरवाजे के सामने गुप्तकाशी से सोनप्रयाग जाने वाला मुख्य रास्ता गुजर रहा था। सड़क के दूसरी तरफ पहाड़ी चट्टानें व जंगल थे। यहां के जंगलों में आमतौर पर चीड़, देवदार, बांज (ओक), ढाक, बुरांस व काफल के पेड़ हैं। देवदार और चीड़ तो ऐसे लगते हैं मानो पहाड़ों ने मुकुट पहना हो। दोनों एक ही शंकुधारी वृक्षों की जाति से हैं लेकिन दोनों की प्रकृति बिल्कुल भिन्न है। यहां सबसे अधिक पेड़ चीड़ (पाइन) के हैं, उत्तराखंड के 16 फीसदी वन क्षेत्र में केवल चीड़ के वृक्ष हैं। चीड़ कुदरती तौर पर दक्षिणी अभिमुख यानी पहाड़ की उस ढाल पर जो सूरज के सामने होता है, में पाया जाता है। पहाड़ का यह हिस्सा आमतौर पर शुष्क रहता है लेकिन कम पानी व नमी के अभाव में भी चीड़ पनप जाता है। चीड़ के पेड़ 30-50 मीटर तक ऊंचे होते हैं, कभी-कभी और भी ऊंचे, खंभे की तरह खड़े मुख्य तने पर शाखाएं व पत्तियां काफी ऊंचाई पर होती हैं, साखें आसमान की ओर उठी रहती हैं, एक तरह से भाले या तीर जैसी शक्ल बना लेते हैं। इस संरचना के कारण इसे दूर से ही पहचाना जा सकता है। चीड़ जहां होता है, वहां दूसरी वनस्पति नहीं पनपती। दरअसल, इसकी पत्तियां जिसे पहाड़ी लोग पिरुल कहते हैं, जहां गिरती हैं उस जमीन की उर्वरा शक्ति को कम कर देती है क्योंकि इन पत्तियों पर राल के रूप में एक रसायन मौजूद रहता है जो इन पत्तियों को सड़ने-गलने नहीं देता और जमीन पर एक परत बना लेता है। इस वृक्ष के तने की छाल में किसी धारदार औजार से कट लगा दें तो गोंद या लीसा (रेजिन) निकलने लगता है जिसे गंधविरोजा या श्रीवास कहते हैं। इससे तारपीन का तेल बनता है। इसकी पत्तियों पर पानी भी नहीं टिकता सो गीले नहीं होते। पत्तियों पर मौजूद रसायन लिग्निन बहुत ज्वलनशील होता है। पहाड़ों पर इन्हीं पत्तियों के कारण जंगल में आग का खतरा बना रहता है। हमें शाम होते-होते इसका एक छोटा नमूना भी देखने को मिला, सड़क के बिल्कुल किनारे न केवल पत्तियों में बल्कि चीड़ के दो-तीन पेड़ों ने भी आग पकड़ ली थी, हालांकि वह ज्यादा नहीं फैली। चीड़ के बाद यहां पहाड़ों पर जिन पेड़ों की कतार नजर आई वे थे देवदार। देवदार के तो क्या कहने, वह तो है ही पेड़ों का सरदार। इसे देवदारू भी कहते हैं यानी देवताओं का काठ। पहाड़ों के घर निर्माण में इसी लकड़ी का इस्तेमाल ज्यादा होता है, यह बहुत मजबूत होता है। चीड़ की तुलना में इसका कद कुछ छोटा होता है लेकिन ये अधिक ऊंचाई वाले पहाड़ों पर भी दिखता है। इसकी पत्तियां भी नुकीली ही होती हैं पर अपेक्षाकृत चौड़ी और ये जहां होता है वहां जमीन का जलस्तर अच्छा रहता है, इसकी छत्रछाया व पास-पड़ोस में दूसरे वनस्पति भी पनपते हैं। इस पेड़ की शाखाएं कम ऊंचाई से तने के चारों ओर होती हैं और जमीन की ओर झुकी होती हैं। दोनों वृक्षों की बात चली तो इनमें फर्क बताने वाली एक कविता का जिक्र करता चलूं-‘चीड़ उठाए रखता है/अपनी सभी साखें/आसमान की ओर/वहीं देवदार झुका देता है अपनी निचली बांहे/जमीन की ओर/मानो वो बनाए रखना चाहता हो/अपनी मिट्टी से ताल्लुक/शतफुट ऊंचा होने बाद भी/इसीलिए शायद देवदार होता है/शतसहस्र फुट ऊंचाई पर/और चीड़/केवल निचले पहाड़ों पर।’ कितनी सटीक है न ये कविता।
चीड़ व देवदार से इतने करीब से रूबरू तो आज पहली बार हुए लेकिन निर्मल वर्मा के ‘चीड़ों पर चांदनी’ में चीड़ों की सांय-सांय तो न जाने कब से सुन चुके थे। नरेश मेहता ने कविता लिखी है-‘बोलने दो चीड़ को’ तो हम काफी देर कान लगाए शांति से चीड़ों को निहारते रहे कि शायद हमें भी इनके मन की बात सुनाई दे। अटल जी ने भी अपनी कविता में चीड़ों के बिहंसने का जिक्र किया है-‘न चुप हूं, न गाता हूं/बिखरे नीड़/बिहंसे चीड़/आसूं है न मुस्कानें/हिमानी झील के तट पर/अकेला गुनगुनाता हूं/न चुप हूं न गाता हूं’। ये खयाल भी आया कि अच्छा है चीड़ मैदानों में नहीं होते क्योंकि इनमें कोई छांव नहीं होती। जमीन पर पड़ी चीड़ की सींक सी पत्तियों को अपने पैरों से कुरेदते हुए नरेश सक्सेना भी याद आए, जिन्होंने ‘पत्तियां यह चीड़ की’ में क्या खूब कहा है-‘सींक जैसी सरल और साधारण पत्तियां/यदि न होती चीड़ की/तो चीड़ कभी इतने सुंदर नहीं होते/नीम या पीपल जैसी आकर्षक/होतीं यदि पत्तियां चीड़ की/तो चीड़/ आकाश में तने हुए भालों से ऊर्जस्वित/और तपस्वियों से स्थितप्रज्ञ न होते’। चीड़ के वनों को देखकर लगता है मानो उन्होंने तय किया है कि खंभे सरीखे वृक्ष आपसी दूरी बना कर ही रहेंगे और इलाके को साफ-सुथरा रखेंगे, वहीं देवदार के जंगल घने दिखते हैं, भरे-भरे होते हैं, वहां दिन में भी कम रोशनी रहती है। झबरीली टहनियों व कंटीले पत्तों वाला देवदार हवा में जब झूमता है तो लगता है कोई फक्कड़ साधु अपनी जटाएं लहरा रहा हो। देवदार की बात हो तो महान साहित्यकार हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध ‘देवदारू’ का जिक्र लाजिम है जिसमें उन्होंने देवदारू को भूतभगावन, वहम मिटावन, भ्रांति नसावन बताया है। उन्होंने मजाकिया लहजे में इसकी जितनी भी किस्में गिनाई हैं जैसे खूसठ, सूम, सनकी, झबरैला, चपरगेंग, गदरौना, खिटखिटा, झक्की, झुनरैला, धौकर, नटखट, चुनमुन, बांकुरा, चौरंगी-यहां मुझे हरेक किस्म के देवदार के दर्शन का मौका मिला।
द्विवेदी जी ने देवदारू की प्रशस्ति में यहां तक लिखा है कि ‘न जाने कितने वृक्षों लताओं ने वातावरण से समझौता कर लिया, मैदानों में जा बसे, खासी प्रतिष्ठा हासिल की लेकिन देवदारू है कि नीचे नहीं उतरा, समझौते के रास्ते पर नहीं गया, खानदानी चाल नहीं छोड़ी।’ मेरे लिए यहां ऐसी स्थिति बन गई थी, मुस्कुराइए कि आप देवदार के वन में हैं। वाकई मुस्कुराते हुए ही धीरे-धीरे जब शाम ढलने लगी तो अभिनेत्री दीप्ति नवल की कविता की ये पंक्तियां साकार लग रही थीं-‘यूं ही किसी चोटी पर/देवदार के पेड़ के नीचे खड़े-खड़े/मैंने दिन को रात में बदलते देखा है’। हिमाचल प्रदेश व कश्मीर की यात्राओं में भी चीड़ व देवदार नजर आए थे लेकिन जितने करीब से यहां उन्हें जान सका, वह मौका पहले नहीं मिला था। कहीं-कहीं काफल के पेड़ भी दिखे, खाने में खट्टे-मीठे। पहाड़ों में काफल का दर्जा मैदानी इलाके के आम की तरह राजा जैसा है। इस फल का नाज-नखरा गजब का है। एक पहाड़ी लोक गीत में गाया जाता है-‘खाणा लायक इंद्र का, हम छियां भूलोक आई पणां’ मतलब हैं तो हम स्वर्ग में इंद्र देवता द्वारा खाने लायक, लेकिन हमें भूलोक पर आना पड़ा है। बुरांश रोडेंड्रन को कहते हैं जिसके लाल, गुलाबी व सफेद फूल होते हैं, ये भी कहीं-कहीं नजर आए। रात रामपुर के गेस्टहाउस में ही बीती।
(उत्तराखंड चार धाम यात्रा एपिसोड 9/13)
(इस पोस्ट के फोटो 6 जून, 2018 के हैं)