आज बात ऑनलाइन बनाम स्टेज कार्यक्रमों की ।
ऑनलाइन और स्टेज कार्यक्रम दोनों में बड़ा फर्क है।स्टेज कार्यक्रम में आप सीधे श्रोताओं से संवाद करते हैं। उनके चेहरे तत्काल प्रतिक्रिया भी दे देते हैं कि आपकी प्रस्तुति कैसी है। उसी हिसाब से आप अपने वक्तव्य की सीमा भी नियत कर लेते हैं। ऑनलाइन कार्यक्रमों में ऐसा कम ही संभव हो पाता है।पहला डर तो यही रहता है कि हमारी शक्ल और आवाज़ श्रोताओं तक पहुंच भी रही है या नहीं। अधिकांशत: शुरुआत ही यहीं से होती है 'मेरी आवाज़ आ रही है ना '। हमारे जैसे कमजोर तकनीक वाले लोगों के साथ ये बात और ज्यादा है जिनका आधा दिमाग मोबाइल को सहेजने और चेहरे को मोबाइल के केंद्र में रखने में ही लगा रहता है। कम से कम मैं तो कतई निश्चिंत होकर नहीं बोल पाता। पूरे ऑनलाइन कार्यक्रम के दौरान टेंशन में रहता हूं। यही कारण है कि मैं कुछ खास मित्रों के कारण या व्यंग्य के गंभीर कार्यक्रमों के कारण ही हां कहता हूं। वरना यथासंभव ऑनलाइन आने से बचता हूं , गला खराब होने से लेकर काम की अधिकता तक के सारे बहाने बना लेता हूं। जबकि आयोजक लोग समझते हैं कि मुझे घमंड नाम की बीमारी लग गई है। पर असलियत तो वह है जो मैं आज बयान कर रहा हूं।सच तो यह है कि हमारे जैसे अधिकांश पुराने लोगों की यही स्थिति है। हम बस यही पूछते रह जाते हैं आवाज़ आ रही है या नहीं ? :)