अभिषेक
इस कॉलम के जरिए लगातार अब तक मीडिया उद्योग के बदलते हुए स्वरूप को परखा गया है और पत्रकारिता के गिरते मापदंडों का उल्लेख किया गया है। बहरहाल आज इसी विषय को ध्यान में रखकर बदलते हुए मापदंडों पर चर्चा जारी है।
आज समाचार-पत्रों और समाचारों का जो अभिन्न अंग बन गया वो है "अरेंज्ड"कहानियों और कृतियों का सिद्धांत। बेशक फिर चाहे पूरी तरह अरेंज्ड समाचार हों या फिर अरेंज्ड फोटोशूट्स, वे होते पूर्व नियोजित ही हैं। अनेक लोगों को एक स्थान पर एकत्र कर विभिन्न प्रकार के स्टंट्स कराए जाएँ जो एक ओर तो बावलेपन को दर्शाते हैं और दूसरी तरफ बेवकूफी, या फिर दस लोगों को किसी निरर्थक कार्य में उलझाकर उसमें से कोई कहानी पैदा करना, पत्रकारों ने इस तरह आसान राह पकड़ ली है।
कई पत्रकार हैं जो आदिवासी क्षेत्रों में जाकर सच को सामने लाते हैं या फिर बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में पहुँचकर असली बात उजागर करते हैं किंतु 20 पन्नों के अपने समाचार-पत्र पर गौर करें, आपको असल और नियोजित समाचार का अनुपात स्वतः दिखाई देगा और साथ ही यह पता चलेगा कि नियोजित समाचार के प्रति झुकाव बढ़ रहा है।
अधिकांश पत्रकार इन दिनों विज्ञापनदाता के पास जाकर पूछ लेना बेहतर समझते हैं कि उन्हें किस प्रकार की कहानी की दरकार है और उनके उत्पाद के मुताबिक समाचार बनाकर छाप देते हैं जिससे विज्ञापनदाता को प्रसन्ना करना आसान हो सके। और कुछ पत्रकार तो ऐसे होते हैं जिनके पास पूर्व नियोजित कहानियाँ तैयार होती हैं जिनका प्रयोग वे समय समय पर करते रहते हैं और आवश्यकता पड़ने पर हर बार दस नए लोगों से उनकी राय ले लेते हैं जिससे उनकी कहानी हर बार नई और रोचक लगे।
यह प्रवृत्ति केवल पत्रकार के स्तर तक ही सीमित नहीं है अपितु यह संस्था के स्तर तक भी फैली हुई है। प्रिंट मीडिया में प्रतिस्पर्धा का स्तर इतना अधिक गिर चुका है हालाँकि यह आर्थिक प्रतिस्पर्धा के रूप में नहीं वरन् पत्रकारिता के गिरते स्तर के रूप में उजागर होता है।
इस बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा के चलते समाचार-पत्र पहले तो बड़ी मार्केटिंग पार्टियाँ आयोजित करते हैं और फिर विज्ञापनदाताओं को खुश करने के लिए अखबार के कुछ पन्नो भी इन पार्टियों के विवरण से भर दिए जाते हैं। इस प्रवृत्ति के चलते समाज सुधार के लिए भी कई मुद्दे उठाए जाते हैं लेकिन जब तक ये विचार गतिशील होते हैं तब तक ये केवल मीडिया का हथकंडा रह जाते हैं, समाज सुधार का पहलु मानो खो ही जाता है।
फिर वो पर्यावरण से संबंधित कोई योजना हो या फिर सामाजिक मंच की स्थापना जिससे लोग अपने विचार व्यक्त कर सकें और यह उम्मीद कर सकें कि जिम्मेदार अधिकारी कोई सार्थक कदम उठाएँगे, यह सब मीडिया की एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें समाज कल्याण केवल उपजात होता है।
असल बात तो ये है कि समाचार-पत्र में अधिक से अधिक लोगों के नाम और फोटो छापे जाते है जिससे कि अधिक संख्या में लोग अखबार खरीदें, अखबार में छपी खबर की चर्चा करें; वस्तुतः ऐसी कहानियाँ पाठक को अखबार के विस्तार से जोड़ने के लिए गढ़ी जाती हैं।
व्यावसायिक दृष्टिकोण से देखें तो यह बहुत अच्छा प्रतीत होता है किंतु नीतिगत तौर पर अनुचित और अनैतिक है। इससे जो मुख्य बात उभरकर सामने आती है वह है पाठक की मानसिकता। आज के समय में अखबार पाठक के लिए समाचारों का स्रोत नहीं रह गया है, अब यह केवल एक आईना है। लोग अपनी जिंदगियों को अखबार में देखना चाहते हैं।
वे अपनी कॉलोनी में पौधारोपण देखना पसंद करते हैं न कि दूर बसे सैनिक कैंप की गतिविधियों के बारे में पढ़ना, और यही वो मानसिकता है जिसका दोहन अखबारों ने अपने फायदे के लिए किया है। इसलिए आप खुद को दोष दें पाठक के रूप में अथवा अखबार को दोष दें जो ये सब कर रहे हैं, मुख्य बात ये है कि ये भी दोषारोपण का खेल मात्र रह जाएगा जिसका कोई निराकरण ही नहीं हो सकेगा।
यह कुछ ऐसी स्थिति है जो पाठक और मीडिया उद्योग दोनों को पसंद आ रही है। तो फिर असल पीड़ित कौन है? यह एक भ्रमित करने वाला प्रश्न है लेकिन फिर भी साफ है कि हमारा समाज ही असल मायने में पीड़ित है!