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महान_क्रांतिकारी_योद्धा #बरजोर_सिंह_परमार

 # वैसे तो बलिदानी बुंदेलखंड देश में हुई कई क्रांतियों की गाथा का प्रतीक माना जाता है लेकिन शायद यह कम ही लोग जानते होंगे कि स्वाधीनता के लिए संघर्ष की नींव साल 1804 में जालौन के अमीटा गांव में रखी गई थी।

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सन 1802 में बेसिन की संधि के बाद अंग्रेज यहां शासक के रूप में आए। उन्होंने जालौन के आसपास के गांवों में बदसलूकी के साथ राजस्व की वसूली करनी शुरू कर दी। ब्रिटिश सरकार के इस रवैये को देख यहां पहली बार बुंदेलों ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका। बगावत की चिंगारी इस तरह से उठी कि बुंदेलों ने ब्रिटिश सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।

परमार राजवंश ने अमीटा और बिलायां को अपने राज्य का संचालन केंद्र बनाया। ये दोनों गांव एटा रेलवे स्टेशन के मात्र 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। परमार परिवार के दीवान जवाहर सिंह ने अंग्रेजों की राजस्व वसूली नीति के खिलाफ निकटवर्ती जमीदारों, जागीरदारों एक सूत्र में बांधा तथा अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और फिर अंग्रेजों को राजस्व देना बंद कर दिया।


अंग्रेजों की राजस्व नीति से तंग आकर बुंदेलों ने आंदोलन के नए समीकरण बनाए। अंग्रेजों ने इस विद्रोह को कुचलने और अमीटा-बिलायां की गढ़ी ध्वस्त करने के लिए नौगांव छावनी में नियुक्त सेना नायक फावसैट को निर्देश दिए। उसने सात कंपनियों तथा तोपखाने की एक टुकड़ी के साथ 21 मई 1804 को अमीटा की गढ़ी को घेरकर आक्रमण कर दिया।


अंग्रेजों से जब खुद को घिरते देखा तो अमीटा के परमारों ने अंग्रेजों को झांसा दिया कि वे उनसे संधि कराना चाहते हैं। अंग्रेजों को अपनी चाल में फसाने के बाद दूसरी ओर उनके सहयोगी अमीर खां ने अमीटा दुर्ग के बाहर खड़ी अंग्रेजी सेना की घेराबंदी कर ली। 22 मई 1804 की सुबह होते ही अंग्रेजी सेना चारों तरफ से घिर चुकी थी। बाहरी ओर से अमीर खां कि पिडारी सेना व अंदर घात लगाए बैठी परमार सेना ने अंग्रेजी सेना पर हमला बोल दिया।

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पिंडारी और परमार सेना की ओर से भीषण गोलाबारी हुई। इसमें अंग्रेजी सेना परास्त हुई। दो दिन तक चले इस युद्ध में अंग्रेजी सेना को आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ा। भारतीय पैदल सेना की दो कंपनियां तथा तोपखाना टुकड़ी के 50 अंग्रेजी सैनिक मौत के घाट उतार दिए गए। युद्ध में मारे गए अंग्रेजी सेना के अधिकारियों की समाधियां कोंच के सरोजनी नायडू पार्क तथा जल संस्थान के बीच पार्क में अभी भी बनी हैं। इस युद्ध में ब्रिटिश सेना की पराजय का दंड सेनानायक फावसैट को भुगतना पड़ा और उसे हटाकर इंग्लैंड वापस भेज दिया गया।

बाद में मराठों से संधि के बाद कोंच का यह क्षेत्र अंग्रेजों के अधीन आ गया । संघर्ष और क्रांति के बीच लम्बे समय तक यह परमार अंग्रेजों के विरुद्ध किसी बड़ी रणनीति में कामयाब नहीं हो पाये ।

आगें जलकर इन परमारों का नेतृत्व बरजोर सिंह ने किया , 15 मई 1858 एक वारंट में बरजोर सिंह की उम्र 40 बर्ष बताई गयी है। इस आधार पर उनका जन्म 1818 माना जाता है। कोंच में बंदोबस्त हुआ , तो बिलाया की जमीदारी बरजोर सिंह के नाम हो गयी । 

बरजोर सिंह अंग्रेजों को टैक्स चुकाने में देरी करते , जिससे उन्हें हवालात में भी रहना पड़ा था । अधिक टैक्स और जनता में गरीबी के कारण बरजोर सिंह अंग्रेजों के विद्रोही बन गये ।


उन्होंने आसपास के राजाओं को संगठित किया और टैक्स में कटौती कराने में कामयाब रहे । 1857 आते-आते वह अंग्रेजों के लिये नासूर बन गये । उन्होंने गांव-गांव संपर्क करने, आर्थिक संसाधन जुटाने, नाना साहब के सेनापति तात्याटोपे तथा जालौन की रानी ताईबाई की मदद करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

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1 अप्रैल 1858 को झांसी में पराजय के बाद जब रानी लक्ष्मीबाई ने कालपी की ओर प्रस्थान किया तब उन्होंने रास्ते में बरजोर सिंह से भेंट करना उचित समझा।

बरजोर सिंह से भेंट के बाद वह कोंच चली गईं। जहां 7 मई 1858 को भीषण संघर्ष हुआ। 22 मई को कालपी के संघर्ष में भी बरजोर सिंह ने अहम भूमिका निभाई।


झांसी की रानी लक्ष्मीबाई कालपी और गोपालपुरा से होती हुई ग्वालियर की ओर चली गईं। अब क्रांति के संचालन की जिम्मेदारी बरजोर सिंह पर आ गई थी। 31 मई 1858 को उनकी बिलायां गढ़ी पर ब्रिटिश सेना ने हमला किया जिसका उन्होंने मुकाबला किया। भीषण युद्ध में वह पराजित हुये , लेकिन बरजोर सिंह अंग्रेजों की पकड़ से बाहर रहे । बरजोर सिंह ने अपने साथियों को इकट्ठा किया और अंग्रेज समर्थकों जमीदारों-गांवो को लूटते रहे । 

कोंच पर हमला करके बरजोर सिंह ने कोंच को जीत लिया । राजस्व की बसूली तक बरजोर सिंह के हाथों में आ गयी ‌। जालौन को कब्जा करने की कोशिश में वह अंग्रेजों से परास्त भी हुये , लेकिन हमेशा अंग्रेजों की पकड़ से बाहर रहे ।


जालौन और आसपास के जिलों में बरजोर सिंह भय से अंग्रेजों को टैक्स देना बंद हो चुका था । ब्रिटिश सरकार के लिये बरजोर सिंह बड़ी चुनौती बने रहे । उनके सैकड़ों साथियों ने इस कार्य में अपनी कुर्बानी दी ।


सबसे लंबी अवधि तक उन्होंने अंग्रेजों से संघर्ष किया। 

सरकारी दस्तावेज के मुताबिक जून 1859 तक उनके जीवित रहने के साक्ष्य मिलते हैं। इस संबंध में अमीटा के उनके वंशजों ने बताया कि वे जून 1859 में पलेरा (टीकमगढ़) चले गए थे जहां लू लगने की वजह से उनकी मृत्यु हुई। इस प्रकार आजादी की यह ज्वाला कई वर्षों तक संघर्ष करके शांत हो गई। बाद में यहां जालौन के जिलाधिकारी एमलाज के प्रयास से 15 अगस्त 1972 को बिलायां में उनका स्मारक चबूतरा बना जो उस दीवान वीर बरजोर सिंह की शौर्यगाथा का प्रमाण है।    




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