Quantcast
Channel: पत्रकारिता / जनसंचार
Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

जरूरी है भाषाओं को मरने से बचाना

$
0
0







यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोजकैसी विडंबना है कि गिनी-चुनी भाषाओं को छोड़कर मनुष्य को मनुष्य कहने का हक दिलाने वाली तमाम भाषाएं संकट में हैं। हमारा समाज-संसार विकसित हो रहा है और नई सुखद घटनाएं घट रही हैं, लेकिन साथ में वह विकृति भी आ रही है, जो विकास केसाथ मिलती है। भाषाओं का संकट विकास की वेदी पर चढ़ती बलि ही है। आंकड़ा बताता है कि हर पखवाड़े एक भाषा लुप्त हो रही है। आज स्थिति यह है कि संसार में प्रचलित करीब छह हजार भाषाओं में से एक-चौथाई को बोलने वाले सिर्फ एक ही हजार लोग बचे हैं। इनमें से भी सिर्फ छह सौ भाषाएं ही फिलहाल सुरक्षित की श्रेणी में आती हैं। किसी नई भाषा के जन्मने का कोई उदाहरण भी हमारे सामने नहीं है। हां, कुछ भाषाओं की मिलावट से `फ्यूजन´ की स्थिति जरूर बन रही है, जैसे `हिंग्लिश´। पर इसे नई भाषा नहीं कह सकते। इसका कोई भाषिक व्याकरण तो है ही नहीं, सामाजिक व्याकरण भी फिलहाल नहीं है।

भाषाविद् भाषाओं के लुप्त होने को मनुष्य की मृत्यु के समान मानते हैं। भाषाशास्त्री डेविड क्रिस्टल अपनी पुस्तक, लैंग्वेज डेथ में कहते हैं, भाषा की मृत्यु और मनुष्य की मृत्यु एक-सी घटना है, क्योंकि दोनों का ही अस्तित्व एक-दूसरे के बिना असंभव है। किसी भाषा का अस्तित्व बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि उसे बोलने-चालने वाले कम से कम सौ-पचास लोग हों। यूनेस्को ने तो भाषाओं के अस्तित्व का बाकायदा पैमाना भी तय किया है। उसका मानना है कि सौ लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा असुरक्षित है। इसका एक कारण यह भी है कि एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को अब विरासत में भाषा नहीं सौंपती। इंग्लैंड की संकटग्रस्त भाषाओं की फाउंडेशन का मानना है कि मानव इतिहास उस मोड़ पर है, जहां दो पीढ़ियों के बाद संसार में अधिकांश भाषाएं समाप्त हो जाएंगी हालांकि यह एक अतिवादी दृष्टिकोण हो सकता है, लेकिन खतरे की गंभीरता के प्रति सतर्क भी करता है।

दुनिया भर में इस वक्त चीनी, अंगरेजी, स्पेनिश, बांग्ला, हिंदी, पुर्तगाली, रूसी और जापानी कुल आठ भाषाओं का राज है। दो अरब 40 करोड़ लोग ये भाषाएं बोलते हैं। इसमें से अंगरेजी का प्रभुत्व सर्वाधिक है और वह वैश्विक भाषा के रूप में स्वीकार कर ली गई है। भाषाविज्ञानी इसे खतरनाक ट्रेंड मानते हैं। वैश्विक दर्जा हासिल करने में अंगरेजी के एक विशेष गुण का बड़ा योगदान है। यह दूसरी भाषाओं के शब्दों को आत्मसात करके उनको मूल भाषा से çवçच्छन्न करने में माहिर है। डिक्शनरी देखने से पता चलता है कि अंगरेजी बनी ही दूसरी भाषाओं के शब्दों से है। दरअसल अंगरेजी दूसरी भाषाओं के शब्दों की देन है।

अंगरेजी के विश्वव्यापी बनने में उसके लचीलेपन का बड़ा हाथ रहा है। लेकिन अंगरेजी के विश्व वर्चस्व को भाषाविज्ञानी स्थानीय भाषाओं के लिए बड़ा खतरा मानते हैं। अंगरेजी का वर्चस्व उन भाषाओं के लिए भी खतरा है, जिन्हें बोलने वालों की संख्या बहुतायत में है, अंगरेजी उन भाषाओं के लिए भी खतरा है, जो आधुनिक हैं और उन भाषाओं के लिए तो अंगरेजी खतरा है ही, जिन्हें बोलने वालों की स्ांख्या कम है। हिंदी का ही उदाहरण लीजिए। आज विश्व की आठ प्रमुख भाषाओं में इसकी गिनती है। लेकिन क्या हिंदी या बांग्ला पढ़-लिखकर कोई तरक्की कर सकता है? सिक्का उसी भाषा का चलेगा, जिसमें उच्च शिक्षा दी जाएगी, जिसमें तकनीकी ज्ञान उपलब्ध होगा और जिसमें राजकाज चलेगा। हमारे देश में यह सब अंगरेजी में ही होता है। इसलिए कोई गलतफहमी नहीं पालनी चाहिए। आसन्न लक्षण स्पष्ट हैं।

और साफ समझने के लिए यूरोप की आधुनिक भाषाओं से सबक लेना चाहिए। वे संकट की आंच महसूस करने लगी हैं। कई यूरोपीय देशों ने अपनी भाषाओं को अंगरेजी से बचाने के लिए एहतियात बरतना शुरू कर दिया है। हॉलैंड और बेçल्जयम की सरकारों ने मिलकर डच भाषा के संवद्धüन-संरक्षण के लिए एक संगठन बनाया है। संगठन का मानना है कि डच भाषा को निकट भविष्य में कोई खतरा नहीं है, पर धीरे-धीरे इसका क्षरण अवश्यंभावी है। भविष्य में यह केवल बोलचाल की भाषा रह जाएगी। एक ऐसी भाषा, जिसे आप परिवार के बीच बोल सकेंगे, अपनी भावनाएं बेहतर ढंग से व्यक्त कर सकेंगे। लेकिन जीवन के गंभीर पहलुओं, ज्ञान-विज्ञान, टेक्नोलॉजी, राजकाज, मुद्रा-मंडी इन सब पर किसी वैश्विक भाषा या अंगरेजी का ही राज रहेगा। यहां डच के स्थान पर किसी भारतीय भाषा को रखकर देखने से अपनी भाषाओं का भविष्य साफ दीखने लगेगा।

भाषाओं को बचाने की आवश्यकता आखिर क्यों है? जब एक भाषा से काम चल सकता है, तो अनेक भाषाओं की क्या जरूरत? यह सवाल आज का नहीं है, बहुत पुराना है। बाइबिल के समय से एक कहानी प्रचलित है। उसके अनुसार भाषा एक ही होनी चाहिए, क्योंकि ज्यादा भाषाएं मानवता पर दंड हैं। भाषा एक होने से आपसी समझ- बूझ को बढ़ावा मिलता है, मनमुटाव कम होता है और शांति का प्रचार-प्रसार होता है। लेकिन यह एक मिथक ही है। भाषा एक हो या अनेक, अंतद्वüंद तो मनुष्य के दिमाग की उपज हैं। अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया के तमाम एकभाषी देश गृहयुद्ध की आंच में झुलस रहे हैं। जाहिर है, एक भाषाभाषी होना मतभेद कम होने की गारंटी नहीं है।

इस जवाब में ही एक सवाल भी निहित है। भाषा की विविधता क्यों आवश्यक है? दरअसल कोई भी भाषा अपने में एक पूरी विरासत होती है। भाषा की मृत्यु का अर्थ होता है अपने बीते वक्त से कटना, अपने इतिहास, दर्शन, साहित्य, चिकित्सा-प्रणाली और दूसरी तमाम समृद्ध परंपराओं के मूल स्वरूप से वंचित हो जाना। एक अनुमान केअनुसार, दुनिया में इस समय करीब 6,000 भाषाएं प्रचलित हैं। यानी हम छह हजार तरीके से दुनिया को समझ सकते हैं, समझा सकते हैं। भाषा की विवधता का यही कमाल है। एस्कीमो बर्फ में रहते हैं, बर्फ ही उनका जीवन है। यही कारण है कि उनकी भाषा में बर्फ के दो दर्जन से ज्यादा उच्चारण हैं। अल्बेनियाई लोग मंूछों को 27 तरह से जताते हैं। डेविड क्रिस्टल मानते हैं कि जो लोग दूसरी भाषा में अपनी परंपराएं और संस्कृति व्यक्त करते हैं और इसे ही सही मानते हैं, वे भ्रम में हैं। संस्कृति बहुआयामी होती है। इसमें अनंत तत्वों का समावेश होता है। जिस परिवेश, जिस भूदृश्य में ये विकसित होती है, उसी के मुताबिक उसकी सरलता-सहजता-दुरूहता तय होती है, लहजा बनता और बिगड़ता है। भाषाओं की प्रारंभिक स्थिति यानी बोलियोंं में इसे आसानी से देखा-समझा जा सकता है। इसको ऐसे भी समझा जा सकता है कि समान भूदृश्यों में भाषाएं अलग-अलग होने के बावजूद कई बार गीतों और शब्दों की ध्वनियां में अद्भुत साम्य देखने को मिलता है। दूसरी भाषा में उसे व्यक्त कर सकते हैं, पर मूल भाषा से बोलियां अपने आसपास को ज्यादा बेहतर उच्चारित करती हैं। तब परदेसी भाषा कितनी विपन्न साबित होगी, इसे सहज ही समझा जा सकता है। इसलिए अपनी भाषा-बोलियों को सहेजना जरूरी है। यही सजीव इतिहास है।

लेखक - सुनील शाह
( लेखक अमर उजाला से जुड़े हैं। )

Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>