बेगम अख़्तर को आज उनके शैदाई उनके जन्म दिन (7 अक्टूबर 1914- 30 अक्तूबर 1974) पर बड़ी ही शिद्दत से याद कर रहे हैं। बेग़म अख्तर की जिंदगी का आखिरी बड़ा खास कार्यक्रम दिल्ली में 15 अक्टूबर, 1974 को विज्ञान भवन में हुआ था। उस दिन राजधानी में जाड़ा दस्तक दे रहा था। बेगम अख्तर ने विज्ञान भवन की महफिल में जब अपनी रेशमी आवाज में शकील बदायूंनी की लिखी गजल- “यूँ तो हर शाम उम्मीदों में गुज़र जाती है आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया ..."गाई तो विज्ञान भवन वाह...वाह करने लगा था।
बेगम अख्तर मुस्कारते हुए बड़े ही मन से गा रही थीं। उसके बाद उन्होंने शकील बदायूंनी की एक और गजल “मेरे हम-नफ़स मेरे हम-नवा मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे ...” भी सुनाई थी। दिल्ली मदहोश हो गई थी उनकी गायकी पर। इस कार्यक्रम को पेश करने के कुछ दिनों के बाद उनका इंतकाल हो गया था। वह तब 60 बरस की थीं। बेगम अख्तर की आवाज़ भारत-पाकिस्तान और गजल के शैदाइयों के दिलों में हमेशा ज़िंदा रहेगी, हमेशा गूँजती रहेगी।
बेगम अख्तर के चाहने वाले उनकी गाई बेहद मकबूल हुई गजल “आप कहते थे कि रोने से न बदलेंगे नसीब.उम्र भर आप की इस बात ने रोने न दिया,रोने वालों से कहो उन का भी रोना रो लें ...” को खासतौर पर पसंद करते थे।
उन्हें दादरा, ठुमरी व ग़ज़ल गायकी में महारत हासिल थी। उन्हें कला के क्षेत्र में भारत सरकार पहले पद्म श्री तथा सन 1975 में मरणोपरांत पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। जो कहते है कि गजल गायकी का मतलब बेग़म अख्तर है, वे अपनी जगह गलत तो नहीं है। उन्होंने दर्जनों बार दिल्ली में अपने कार्यक्रम पेश किए।
सप्रु हाउस में बेगम अख्तर में भी अपने कई सफल कार्यक्रम पेश किए। सन 1964 के दिसम्बर महीने में बेगम अख्तर ने बेहद सफल कार्यक्रम सप्रु हाउस में पेश किया था। इसे उनका दिल्ली में पेश किया गया पहला कार्यक्रम भी माना जाता है। दिल्ली में 1960 के दशक में संगीत और नाटक वगैरह के आयोजन के लिए लगभग एक जगह थी- ‘सप्रू हाउस’। मंडी हाउस के आस पास दूसरे हाल- कमानी, श्रीराम सेंटर और फिक्की आदि, सब बाद में बने।
फिल्म लेखक सतीश चोपड़ा ने बताया कि लगभग चार सौ सीटों वाले सप्रु हाउस में बेगम अख्तर के कार्यक्रम का आनंद लेने के लिए सप्रु हाउस खचाखच भरा था। सुनने वालों में सभी तबके के श्रोता थे। रात लगभग नौ बजे प्रोग्राम शुरू हुआ और हर गज़ल, ठुमरी दादरा की अवधि लगभग आधे घंटे से अधिक रही होगी। बीच बीच में ‘ए मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’ की फ़रमाइश होती तो प्रोग्राम के संचालक ये कह कर टाल देते ‘आखिर में।’
खैर साहब, देर रात को उनकी सबसे मशहूर गज़ल ‘ए मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’ का भी नम्बर आया, जिसे उन्होंने अपने अनूठे अंदाज़ में आधे- घंटे से अधिक समय तक गाया। उस वक्त रात के डेढ़ बजे का समय था। इस गजल को सुनने के बाद दर्शक तृप्त हो गए थे।
ये ना थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता...
बेगम अख्तर के सभी कार्यक्रम सफल होते थे। बेगम अख्तर अपने सुनने वालों की हर मांग को पूरा करती थीं। उन्होंने दिल्ली में 1966 में ओबराय इंटरकांटिनेटल होटल में कार्यक्रम पेश किया था।बेगम अख्तर से उनके चाहने वाले गालिब की गजल - ये ना थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता..., अगर और जीते रहते, यही इंतज़ार होता... को सुनाने की फरमाइश अवश्य करते थे।
उन्होंने चेम्सफोर्ड क्लब में भी कई बार अपने कार्यक्रम पेश किए। वे यहां प्राइवेट महफिलों में भी भाग लेती थीं। लाला भरत राम और लाला चरत राम के घरों में उन्होंने कई बार अपनी आवाज का जादू बिखेरा था।
बेगम अख़्तर की रव़ायत को कायम रखने वाली सबसे मजबूत स्तम्भ उनकी शिष्य डॉक्टर शांति हीरानंद थीं। उनका पिछले साल अप्रैल में गुरुग्राम में निधन हो गया था। बेगम अख्तर की गाई बेहद मकबूल हुई गजल “आप कहते थे कि रोने से न बदलेंगे नसीब.उम्र भर आप की इस बात ने रोने न दिया,रोने वालों से कहो उन का भी रोना रो लें...” को शांति जी भी बेहद सुरीले अंदाज में सुनाया करती थीं।
उन्होंने अपनी चर्चित किताब 'बेग़म अख्तर : द स्टोरी ऑफ़ माय अम्मी'में एक जगह लिखा है जब वे पहली बार बेगम अख्तर के साथ पाकिस्तान गईं तो उन्होंने ( बेगम अख्तर) ने वहां पर एक बार कुछ लोगों को कहा था 'मियाँ, हम सुरीले हिन्दुस्तान से आए हैं। हम ऐसे ही मिल-जुल कर रहते हैं। हम होली भी मनाते हैं, और ईद भी। हम कान्हा के भजन भी साथ गाते हैं और नातिया कव्वाली भी।'
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