'करंट 'से पहले 'धर्मयुग 'की अंगनाई में
कभी की बम्बई , यानी आज की मुंबई हमेशा ही मेरे दिलों-दिमाग के सबसे खूसूरत अहसास का मुकाम रही है ! … वो बोरी बन्दर ,वो टाइम्स इंडिया की बिल्डिंग ,वो धर्मयुग के गलियारे ,वो संध्याएं, वो समंदर की लहरें ,वो लोकल ट्रेन , चर्चगेट ,बांद्रा ,खार,अँधेरी तक का सफर ! यादों के सफर का एक जिंदादिल पड़ाव। …सन 1980 से 87 तक के बम्बई-प्रवास के दौरान 'धर्मयुग 'की अँगनाई में इस टिल्लन रिछारिया नाम के प्राणी को भी कुछ कालावधि तक किलोल करने का अवसर मिला। … मैं बुद्धि,कला , विज्ञान सब में अौसत से अौसततर,यह किस करिश्में का अंजाम था , सब के साथ-साथ मैं भी चकित था --यूं ही सहज भाव से एक सामान्य सी दोपहर मैं धर्मयुग की की और मुड़ गया , गणेश मंत्री जी से मुखातिब था चाय के प्याले के साथ , भारती जी से मिलने के लिए अनुमति की अर्जी लगा चुका था -- मंत्री जी बोले , टिल्लन जी.… अवध जी तीन -चार माह की छुट्टी पर जा रहे हैं आप उनकी ऐवज में यहां काम कर लो !… कुछ कह-सुन पाता की भारती जी का बुलावा आ गया !
भारती के साथ उनके कक्ष में … वो हाल चाल पूंछते रहे मैं बताता रहा ,घर यानी कर्वी - चित्रकूट से लौटा था रामायण मेला का हाल सुना रहा था। … चाय भी आ गयी। … कुछ और बातें की एकाएक पता नहीं किस भाव-उराव में मैं कह गया , मंत्री जी ऐसा-ऐसा कह रहे थे ! बड़े सहज भाव से भारती जी ने सुना , बोले … अच्छा ! घंटी बजाई,चपरासी आया … सरल जी ! सरल जी आये तो सहज ही मैं अपना चाय का कप लिए खड़ा हो गया। … सरल जी , ये टिल्लन जी कल से अवध जी का काम देखेंगे , इन्हें यहाँ के तौर -तरीके बता दीजिये। … मैं हतप्रभ … ! मेरी ओर देख भारती जी बोले , हाँ अब क्या , जाइए …!