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फ़िल्मी पोस्टर / राजा बुंदेला

 वक्त बड़ा बेरहम होता है। कभी किसी को नहीं बख्शता यह नामुराद! जिस साम्राज्य में कभी सूरज नहीं डूबता था, इसने उसे भी डुबो दिया। 


इस दौर में टॉकीज के नाम से हमारे दिलो-दिमाग में छाए हुए उस जादू का तिलिस्म भी टूटा, जिसकी धड़कन हमारी साँसों के साथ वाबस्ता सी थी। एक नशा था, एक आकर्षण था, एक रोमांच था ,  गोया कि इसके बगैर हम अपनी जिंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकते थे।


बाजारवाद ने जिन संस्थाओं को बर्बाद किया उनमें से एक सिनेमा थिएटर भी है। हम में से 45-50 की उम्र के ऊपर का शायद ही कोई ऐसा इंसान होगा जिसने टॉकीज में पिक्चर देखने के लिए मार या कम से कम डाँट ना खाई हो। तब चोरी-छिपे फ़िल्म देखना बहादुरी का काम माना जाता था। 


जवानी के बेहतरीन किस्सों में टॉकीज का जिक्र न हो ऐसा संभव ही नहीं था। पटिये की बैठक तख्ते ताउस का एहसास देती थी। रेत में सिंकती मूँगफली की खुशबू ,साथ में मिर्ची की चटनी और काला नमक पिक्चर का मज़ा दुगुना कर देते थे। मदहोश कर देनेवाले सस्ते समोसे बड़े से बड़ा व्रत तुड़वा देते थे।


 पान की पीक टॉकीज के रंगरोगन का खर्चा बचाती थी और बीड़ी और सिगरेट से निकलने वाला छल्लेदार धुआं गोपालराम गहमरी के उपन्यासों का तिलस्मी माहौल निर्मित कर देता था। उन दिनों की गेटकीपर से दोस्ती सांसद या विधायक से ऊपर मानी जाती थी।


खोजखबर करने पर मालूम पड़ा कि जिंदगी में अपने हिस्से में आये जितने भी टॉकीज, जो देश के अलग-अलग हिस्सों में स्थित थे और जहाँ कभी अपन ने सिनेमा की खिड़की से दुनिया को देखा था, अब खुद दुनियाए-फानी से कूच कर चुके हैं।


इन भूतपूर्व इमारतों के साथ सामूहिक जीवन के न जाने कितने किस्से ज़मींदोज़ हो गए और सांस्कृतिक कब्रगाहों के नीचे न जाने कितनी कहानियाँ अँगड़ाई ले रही होंगी। अभी पिछले दिनों की बात है, मैं दिल्ली में था और मुझे मालूम पड़ा कि कनाट प्लेस पर स्थित वर्षों पुरानी टॉकीज ‘रीगल’ का आज आखिरी शो है और फ़िल्म का नाम है ‘मेरा नाम जोकर।’ 


तो एक बात तो तय है कि सारे सिंगल स्क्रीन टॉकीजों की हालत अमूमन देश में एक जैसी ही है। अधिकांश टॉकीजों की जगह या तो कोई मॉल या फिर किसी मल्टीप्लेक्स ने जन्म ले लिया है, जहाँ एक टिकिट चार-पाँच सौ रूपयों की और पॉप-कार्न अस्सी-सौ रूपयों का होता है। 


जाहिर है कि सिनेमा का दर्शक-वर्ग सिरे से बदल गया है और इसने इस पूरे माध्यम के लोकतांत्रिक चरित्र को गंभीर चोट पहुँचाई है। तब सिनेमा के टिकिट 70 पैसे में मिल जाते थे तो उसका कंटेंट भी आम इंसान को संबोधित करने वाला होता था।


 ‘नया दौर’ फिल्म की कहानी मशीन के विरूद्ध मानवीयता के पक्ष में खड़ी होती दिखाई पड़ती थी। यह फिल्म आज के दौर में बनती तो तांगे वांले का बेतरह मजाक उड़ाती और ओला या उबर वाले ‘नायक’ की तरफदारी करती। 


याद करें कि फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ के 2 इडियट्स किस तरह से अपने साथी के परिवार की गरीबी का ही मजाक उड़ाते दिखाई पड़ते हैं। यह अनायास नहीं है कि फिल्म का चरित्र इस बात पर भी निर्भर करता है कि फिल्म में पैसे किसने लगाए हैं ?


सुधीश पचौरी ने एक जगह लिखा है कि कुंदन शाह ‘जाने भी दो यारों 'जैसी फिल्म कभी भी नहीं बना सकते थे, अगर उसमें लगने वांले पैसे एनएफडीसी के न होते। आज भी ‘ऑफबीट’ फिल्में कम बजट के पैसों से ही बन पा रही हैं।


किसी बंद सिनेमाहाल की ढह चुकी इमारत के आगे घड़ी-भर को आँखे बंद करके खड़े हो जाएँ। आपके जेहन से होकर कई पुरानी फिल्मों के दृश्य और बीतें दिनों के सिनेमाई किस्से छलाँग भरते हुए गुजर जायेंगे ।

शब्दो का आभार

( Raja Bundela)


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