Quantcast
Channel: पत्रकारिता / जनसंचार
Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

मालागढ़ बुलंदशहर की शहादत

$
0
0

 एक गुमनाम शहादत, नवाब वलिदाद खान


उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा जिला बुलंदशहर, उसी बुलंदशहर जनपद से लगभग 9-10 किलोमीटर दूर सड़कमार्ग से होता हुआ मालागढ़, टूटा फटा तंग ऊबढ़ खाबड़ पथरिला रास्ता खेत खलियान बागों से गुज़रता हुआ आपको पहाड़ी के उस ऐतिहासिक खण्डहर तक पहुंचा देगा जो 1857 की क्रांति का प्रतीक था।

गुलामी के उस दौर मे भारत कई छोटी बड़ी रियासतों मे बंटा हुआ था, और उन रियासतों पर राजा,रजवाड़े,नवाबों की हुकूमत हुआ करती थी। ईस्ट इंडिया कंपनी जब व्यापारी का भेष बनाकर भारत मे आयी तो उस समय इसकी घृणित मंशा को यह शासक वर्ग समझ ना सका जिसके कारण अंग्रेज़ धीरे धीरे पूरे भारत मे फैलते चले गये,लेकिन बहुत जल्दी जब इनकी सोच बेनका़ब हुई तो बड़ी संख्या मे राजा रजवाड़ो नवाबो के साथ जनता भी इस विदेशी सत्ता को बाहर खदेड़ने के लिए इनके साथ शामिल हो गई। उसी समय 10 मई 1857 को मेरठ से उठी क्रांति की गूंज समूचे भारत मे फैल गयीं हालाकी यह क्रांति बहुत लंबे समय तक ना चल सकी लेकिन इस वगा़वत ने आज़ादी की नींव रखकर, स्वतंत्र भारत का सपना दिखाया।

उस समय मालागढ़ भी एक छोटी सी रियासत हुआ करती थी, जिसके शासक नवाब वलिदाद खान थे उनकी वैभवता सम्पन्नता ज़िदादिली और हिन्दू मुस्लिम पक्षधर के प्रतीक के साथ उनकी बहादुरी भी काफी मशहूर थी। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ फैली इस क्रांति की लौ को जलाये रखने के लिए जब दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, बरेली, झांसी, जगदीशपुर प्रमुख केन्द्र बने उसी समय बुंलदशहर की मालागढ़ रियासत मे भी इसी विद्रोह की पटकथा लिखी जा रही थी, चारों तरफ से क्रांति के रण कुंवर बग़ावत के लिए उतालवे थे, वही इस क्रांति का संरक्षक जब बहादुर शाह ज़फ़र को बनाया गया तो नाना साहेब से लेकर बेगम हज़रत महल, रानी लक्ष्मी बाई, मौलवी लियाक़त, राव उमराव सिंह, खान बहादुर खान, कुंवर सिंह जैसे क्रांतिकारीयों की भीड़ अंग्रेजो़ की जड़े उखाड फैकने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर अपने अपने क्षेत्रों मे इस बग़ावत का नेतृत्व करने लगी और इसी बाग़ी सोच के साथ मालागढ के नवाब भी बुंलदशहर से इसी विद्रोह के समर्थन मे अंग्रेजी सेना के खिलाफ अपना फौजी दस्ता तैयार करने लगे।

वलिदाद खान के इन बाग़ी तेवरो व युद्ध रणनीति को देखकर बहादुर शाह ज़फ़र ने इनको बुलंदशहर,अलीगढ़ के साथ साथ उसके आसपास की सभी निकटवर्ती क्षेत्रों की सूबेदारी सौंप दी।

दिल्ली सलतनत से मिली क्रांति की ज़िम्मेदारी को आगे संचालित करने के लिए नवाब ने दादरी के राजा राव उमराव सिंह, बल्लभगढ़ के नरेश नाहर सिंह व अन्य क्रांतिकारी नायको के अलावा क्षेत्रीय ग्रामीणों, किसानों आदि के साथ मिलकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पंचायतें जोड़ी। नवाब को बुंलदशहर के समीप बसे क्षेत्रीय गांव नंदवासिया, कपासिया व अन्य मे गुर्जर समाज का काफी समर्थन प्राप्त था और जिस कारण नवाब की रियासत मे इन्द्रसिंह गुर्जर एक ज़िम्मेदार सेनापति के रुप मे पदस्थ थे व साथ ही अनेक गुर्जर नवाब की फौज मे भी शामिल थे।

क्रांति के इस महासमर मे जगह जगह कंपनी से टकराव होने लगा, दादरी के राजा राव उमराव सिंह ने ईस्ट इंडिया कंपनी की फौजौ पर हमला कर इनको दिल्ली की ओर बढ़ने से रोक दिया, हर तरफ आज़ादी की हुकांर सुनाई देने लगी।

उधर मालागाढ़ की पहाडी पर नवाब द्वारा मिट्टी व पत्थर से बनवाये गये दुर्ग मे दुश्मनों से निबटने के लिए हथियार गोला बारुद जैसे संसाधन जमा होने लगे, यह किला उस समय क्रांति के प्रतीक चिन्हों मे शामिल था क्योंकि बुलंदशहर जिले मे क्रांति की शुरूआत ही इस किले से हुई थी,  इसके अलावा भारत के आखिरी मुगल बादशाह ने क्रांति के उस दौर मे दो दिन इस किले मे बिताये थे। मशहूर लेखक व विद्वान इकबाल मोहम्मद खान द्वारा लिखी पुस्तक "ए टेल आफ सिटी"मे इसकी बुंलद इमारत  और खूबसूरती का ज़िक्र मिलता है।


1857 की बग़ावत अंग्रेजी सरकार के लिए एक कडी  चुनौती से कम ना थी वही जब अलीगढ से लेकर बुलंदशहर जेसे क्षेत्रों मे क्रांति का नेतृत्व नवाब वलिदाद खान के हाथ मे आया तो इन इलाकों से कंपनी की हुकूमत कमज़ोर पढ़ने लगी, जगह जगह अंग्रेजो़ से नवाब की फौज और ग्रामीणों के साथ टकराव हुए आजादी के जनून में विदेशी शासन के प्रतीक डाक बंगलो, तारघरों एवं अन्य सरकारी इमारतों को चुन-चुनकर ध्वस्त कर उनमें आग लगा दी, 31 मई को सिकंदराबाद के सरकारी कार्यालय भी इस विद्रोह की चपेट से ना बच सका भारी तबाही के बाद इसका कोषागार लूट लिया गया,बुलंदशहर की पुलिस छावनी पर भी हमला कर उसके हथियार लूट लिये गये। आगरा से लेकर मेरठ और अलीगढ़ से होते हुए बुलंदशहर तक की सभी संचार सेवाओं को क्रांतिकारियों ने ध्वस्त कर दिया, इस विद्रोह से ईस्ट इंडिया कंपनी को भारी जान माल का नुकसान हुआ साथ ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुंलदशहर, खुर्जा और अलीगढ़ से लेकर दिल्ली राजमार्ग तक के इलाके पूर्णतः नवाब वलिदाद खान के नियत्रंण मे आ गये, अंग्रेज़ अधिकारी नवाब की क्रांतिकारी सोच से इतने भयभीत हो गये की 21 मई 1857 तक सभी बुलंदशहर से भागकर मेरठ आ गये। 

अब अंग्रेज़ी हुकूमत के सामने नवाब एक विषम परिस्थिति की तरह थे जिसे हटाना उनके लिए बेहद ज़रुरी था हालाकी वलीदाद खान के इस बाग़ी अंदाज़ 

को बुंलदशहर का जिलाधिकारी सैप्टे पहले से भांप गया था, जब बराल गांव के कई हज़ार ग्रामीण कंपनी के खिलाफ क्रांतिकारी मेहताब सिंह के आह्वान पर इकट्टा हुये थे लेकिन इस आंदोलन के पीछे अप्रत्यक्ष रूप से नवाब वलिदाद खान थे जो इसको संरक्षण दे रहे थे। 

इसी घटना पर सैप्टे ने नवाब को पत्र लिखकर जवाब मांगा जिस पर वलिदाद खान ने अपनी बुद्धिमत्ता से पत्र मे इसका जवाब पेश करके लगे आरोपो से खुद को बचाया। इम्पिरियल गजेटियर आफ इंडिया के नवीन संस्करण व बुंलदशहर कलेकट्रेट म्यूटिनी के दस्तावेजों मे यह पत्र दर्ज है।  

नवाब वलिदाद खान की फौजो और ब्रिटिश सेना के बीच सिंतबर 1857 तक कई बार टकराव हुआ लेकिन वहा के क्षेत्रीय हिन्दू मुस्लिम ने इस बग़ावत मे ज़बरदस्त साथ दिया जिसमें गुर्जरों ओर बारहबस्ती के पठानो ने नवाब के  प्रति अपनी जाने अड़ा दी थी जिसके कारण अंग्रेजो़ को अधिकतर भारी शिकस्त का सामना करना पड़ा।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश से समाप्त होती ब्रिटिश हुकूमत को देखकर कंपनी ने उस क्षेत्र की कमान विशेष आला अफसरो को सोप दी जो युद्ध रणनीति मे माहिर थे, धीरे धीरे उन इलाके मे प्रशिक्षित सैनिक टुकडिया भी बढ़ाई जाने लगी, अंग्रेज़ भारी गोला बारूद और हथियारो से सुसज्जित होकर नवाब वलिदाद खान को घिरने की ओर बढ़ने लगे।

अंग्रेजी हुकूमत का बढ़ता शिकंजा और क्रांतिकारीयो के दमन की खबरे सुनकर नवाब ने मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र से सेना की मदद मांगी लेकिन उस समय  दिल्ली सलतनत खुद खतरे मे थी और वहा भीषण संघर्ष जारी था। कंपनी ने दिल्ली पर अपना कब्ज़ा करने के लिए पूरी ताकत झोंक दी उधर बहादुर शाह ज़फ़र की सेना भी बराबर मुकाबला करती रही लेकिन अंत में अंग्रेजी सेना ने दिल्ली पर अपनी हुकूमत का झंडा गाड़ दिया और अंग्रेजी अफसर हिडसन के सामने 21 सितंबर 1857 को हिन्दोस्तान के आखरी बादशाह को आत्मसमर्पण करना पड़ा, अब क्रांति प्रमुख कंपनी की कैद मे था, इस खबर से क्रांतिकारीयो का मनोबल कमज़ोर हुआ लेकिन आज़ादी की सोच लेकर वह फिर भी बाग़ी बनकर अड़े रहे। 

दिल्ली पर अपना शासन स्थापित कर अंग्रेज अब नवाब वलीदाद की क्रांति को कुचलने की ओर बढ़ चले, नवाब भी अंग्रेजो़ की सोच को बेहतर समझ चुका था कि ब्रिटिश फिर से इस इलाके मे अपनी हुकूमत कायम करने के लिए बलपूर्वक हमला करेंगे। 

21 सितंबर को ही लेफ्टिनेंट ग्रीथेड के नेतृत्व मे 8वी बटालियन को अजमेरी गेट (दिल्ली) के सामने मैदान मे खड़ा कर बुंलदशहर पर हमले का आदेश दिया गया।

24 सितंबर को अंग्रेज़ी फौज ने लेफ्टिनेंट ग्रीथेड के साथ हिंडन नदी को पार किया और ग़ाज़ियाबाद से होते हुए 26 सितंबर को दादरी व सिकंदराबाद पहुंची, वहा भारी कत्लेआम करती हुई क्रांति के दमन को कुचलती चली गई।

28 सिंतबर को यह सेना बुंलदशहर पहुंची यहा अग्रेज़ी सेना ओर नवाब की सेना आमने सामने थी, दोनो ओर से भंयकर गोलीबारी के साथ तीखा संघर्ष जारी रहा व एक दूसरे को खदड़ने के लिए तोपों की मदद ली गई, टकराव इतना ज़बरदस्त था कि सिर्फ चार घंटे मे लगभग 300 क्रांतिकारी ओर 40 से अधिक अंग्रेज़ सिपाही मारे गये।

कंपनी के पास पर्याप्त हथियार व उच्च गुणवत्ता वाला बारूद और तोपे थी तो वही नवाब की सेना के पास सीमित संसाधन थे फिर भी वलिदाद खान की सेना ने अंग्रेजी फौजो को लोहे के चने चबबा दिये। लेकिन धीरे धीरे ब्रिटिश फौज नवाब की सेना पर भारी पड़ने लगी, अंग्रेजो़ की तोप ने क्रांतिकारी सेना को पीछे ठकेल दिया, संघर्ष अब कमज़ोर पढ़ने लगा नवाब की सेना जहा एकजुट होकर लड़ रही थी कुछ घंटे बाद वह अलग अलग हो चुकी थी।

बुंलदशहर को हारता देख नवाब वलिदाद खान इस क्रांति को ज़िंदा रखने के लिए मालागढ़ से परिवार सहित पलायन कर गये वही ग्रीथेड अब अपनी फौज के साथ मालागढ़ के किले की ओर बढ़ने लगा, क्रांतिकारीयो द्वारा किले को बचाने की ज़बरदस्त कोशिश की गई परंतु किले को चारों ओर घेर लिया, अंग्रेजी फौज द्वारा किले पर बेहिसाब तोपें दागी गई, पूरा मालागढ़ बारूद की गूंज से हिल उठा और आखिरकार किले को धवस्त कर मालागढ़ रियासत पर ईस्ट इंडिया कंपनी का झंडा फहरा दिया गया। 

नवाब क्रांति की इस मशाल को थामे हुए मालागढ़ से होते हुए बंदायू जिले के इस्लाम नगर मे पहूचे वहा कुछ समय गुमनामी मे गुज़ारने के बाद अंग्रेजो़ द्वारा पहचान लिए जाने के बाद उन्हे कैद करके लखनऊ लाया गया गया जहा उन्हें फाँसी दे दी गयी।

इनकी फांसी को लेकर इतिहास कारो के दो मत है एक मत लखनऊ मे इनकी फांसी को मानता है तो दूसरा मत इतिहासकार गणपति सिंह अपनी किताब "गुर्जर वीर वीरांगनाए"मे लिखते है की नवाब वलिदाद खान को  बुंलदशहर के काला आम चौराहे पर सार्वजनिक रुप से फांसी पर लटका दिया गया था, इस तरह दोनो मतो मे उनकी फांसी की पुष्टी होती है।

नवाब की शहादत उस गुलामी के दौर मे एक क्रांति की तरह ही थी जिसने अंग्रेजी हुकूमत से कभी हाथ नही मिलाया बल्कि अपने ऐशो आराम को ठुकराते हुये आज़ादी के मुजाहिद बनकर अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती दी। लेकिन आज मौजूदा समय मे मालागढ रियासत की जंगे आज़ादी मे शामिल होने के विषय पर किसी को कोई खास जानकारी नही बल्कि उस ऐतिहासिक दुर्ग की दुर्दशा बेहद खस्ता है जिसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता हैं कि गांववाले इस धराशायी किले के टीले पर उपले पाथने लगे हैं, सुबह-शाम गांव के पशु यहां चरने के लिए आते हैं। क्रांति की इस अनमोल धरोहर को बचाने के लिए कोई प्रशासनिक पेहरा नही और ना ही नवाब की शहादत को कोई याद करने वाला।

"लेकिन आज़ादी के इतिहास मे शहीद वलिदाद खान का नाम भले ही उस सुनहरी स्हायी से ना लिखा गया हो पंरतु आज भी अपने राजा की शहादत के रुप मे यह किला और उसके पास बना वह कुँआ जो क्रांतिकारीयो की प्यास बुझाया करता था एक मज़बूत दस्तावेज बनकर खड़े है"-मोहम्मद उमर


Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>