कोरोना काल के पिछले डेढ़ साल में एक बुरी लत लग गई है । कोई अच्छी फिल्म देखे बिना रात को नींद ही नहीं आती । इस दौरान कम से कम पांच सौ फिल्में तो देखी ही होंगी । नेटफ्लिक्स तो जैसे पूरा ही चाट डाला । हॉलीवुड और अन्य देशों की तमाम पुरस्कृत फिल्में भी देख मारी । इस फिल्मों को देख कर महसूस होता है कि अभिव्यक्ति की आजादी के मामले में हम कितने पीछे हैं । अपने नेताओं को खुलेआम गाली देना , अपने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को चोर अथवा ड्रग माफिया दिखाना , अपने दिवंगत नेताओं को सरेआम गरियाना , अपने देश के झंडे को पैरों से कुचलना और यहां तक की अपने इष्ट देव की मूर्ति पर थूकने जैसे सीन भी वे लोग अपनी फिल्मों में बड़ी आसानी से दिखा देते हैं । कई दफा उनकी हिम्मत की दाद देने का मन करता है तो कई दफा मन में सवाल उठता है कि क्या यही अभिव्यक्ति की आजादी है कि कोई कुछ भी कह दे , देश की प्रतिष्ठा और देश वासियों की भावनाओं का क्या कोई महत्व नहीं ? माना वे लोग विकसित लोकतंत्र हैं मगर क्या उनके मुल्कों में राजद्रोह कानून जैसी कोई परिकल्पना ही नहीं है ?
हालांकि राज द्रोह जैसे कानून का मैं कभी हिमायती नहीं रहा । इतिहास गवाह है कि हमारे यहां तमाम सरकारों ने सदैव इस कानून का दुरुपयोग किया है । सुप्रीम कोर्ट भी इसके औचित्य पर सवाल उठा चुका है और इसके भविष्य को लेकर आजकल सुनवाई कर रहा है । यह कानून हम पर अंग्रेजों ने अपने लाभ के लिए थोपा था और हम आज तक इसे ढो रहे हैं । इस कानून के नाम पर मोदी सरकार के हाथ तो जैसे कोई चाबुक ही लग गया है और पिछली सरकारों के मुकाबले उसके शासन में राजद्रोह के मुकदमे 28 फीसदी बढ़ गए हैं । पिछले सात सालों में इस कानून की धारा 124ए के तहत लगभग सात सौ मुकदमे दर्ज कर दस हजार से अधिक लोगों को नामजद किया गया है । खास बात यह है कि आरोपियों में विपक्षी नेता, छात्र, पत्रकार, लेखक और शिक्षाविद् अधिक हैं । अधिकांश मामलों में जनता से जुड़े मुद्दों पर आंदोलन कर रहे लोगों को मोदी सरकार की आलोचना करने अथवा अपमानजनक टिप्पणी करने पर लपेटा गया । यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इस मामले में तमाम राज्य सरकारों में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है और अकेले योगी सरकार में सभी पुराने रिकॉर्ड टूट गए हैं । बिहार और कर्नाटक दूसरे व तीसरे नंबर पर हैं ।
हमारे संविधान के सबसे खूबसूरत पहलुओं में से एक है अनुच्छेद 19 के तहत मिली अभिव्यक्ति की आजादी । किसी स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश में अपनी बात बिना किसी भय के कहने की आजादी तो होनी ही चाहिए मगर यदि हम यह सुनिश्चित नहीं कर सकते और राजद्रोह जैसे कानून हमें जरूरी ही लगते हैं तो कम से कम पात्र अथवा कुपात्र का तो खयाल रखें । अब देखिए न छात्र अथवा किसान आंदोलन करें तो राजद्रोह और कंगना रनौत जैसी बारहवीं फेल पगलैट लाखों लोगों की कुर्बानी से मिली आजादी को भीख बताए तो कुछ नहीं ? माना सभी सरकारें अपने लोगों को पुरस्कृत करती हैं । मोदी सरकार कोई अपवाद नहीं है । यही वजह है कि अपनी भोंपू कंगना को यह सरकार एक के बाद फिल्म फेयर, राष्ट्रीय पुरस्कार और अब पद्म श्री जैसे ईनाम इकराम दे रही है मगर अभिव्यक्ति और भौंकने में कुछ अंतर तो हो ?
क्या यह उचित है कि एक अनपढ़ औरत सार्वजनिक रूप से गांधी नेहरू जैसे हमारे इतिहास पुरुषों को खुलेआम बार बार गरियाए ? क्या उसकी जबान को लगाम लगाने की जरूरत नहीं है ? आपकी आप जानें मगर मेरे ख्याल से इस पगली के खिलाफ तुरंत राजद्रोह का मुकदमा दर्ज होना चाहिए । राजद्रोह जैसे समाज विरोधी कानून की हिमायत करने वालों को भी इसके बहाने से एक अच्छा तर्क और उदाहरण मिल जायेगा ।