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नेहरु जी का दिल्ली में पहला घर / विवेक शुक्ला

Next: मुझे राजीव लौटा दीजिए मैं लौट जाऊंगी, नहीं लौटा सकते तो उनके पास यहीं मिट्टी में मिल जाने दीजिए । आपने देखा है न उन्हें। चौड़ा माथा, गहरी आंखे, लम्बा कद और वो मुस्कान। जब मैंने भी उन्हें पहली बार देखा, तो बस देखती रह गयी। साथी से पूछा- कौन है ये खूबसूरत नौजवान। हैंडसम! हैंडसम कहा था मैंने। साथी ने बताया वो इंडियन है। पण्डित नेहरू की फैमिली से है। मैं देखती रही। नेहरू फैमिली के लड़के को। कुछ दिन बाद, यूनिवर्सिटी कैंपस के रेस्टोरेन्ट में लंच के लिए गयी। बहुत से लड़के थे वहां। मैंने दूर एक खाली टेबल ले ली। वो भी उन दूसरे लोगो के साथ थे। मुझे लगा, कि वह मुझे देख रहे है। नजरें उठाई, तो वे सचुच मुझे ही देख रहे थे। क्षण भर को नजरे मिली, और दोनो सकपका गए। अगले दिन जब लंच के लिए वहीं गयी, वो आज भी मौजूद थे। कहीं मेरे लिए इंतजार। मेरी टेबल पर वेटर आया, नैपकिन लेकर, जिस पर एक कविता लिखी थी। वो पहली नजर का प्यार था। वो दिन खुशनुमा थे। वो स्वर्ग था। हम साथ घूमते, नदियों के किनारे, कार में दूर ड्राइव, हाथों में हाथ लिए सड़कों पर घूमना, फिल्में देखना। मुझे याद नही की हमने एक दूसरे को प्रोपोज भी किया हो। जरूरत नही थी, सब नैचुरल था, हम एक दूसरे के लिए बने थे। हमे साथ रहना था। हमेशा। उनकी मां प्रधानमंत्री बन गयी थी। जब इंग्लैंड आयी तो राजीव ने मिलाया। हमने शादी की इजाजत मांगी। उन्होंने भारत आने को कहा। भारत? ये दुनिया के जिस किसी कोने में हो, राजीव के साथ कहीं भी रह सकती थी। तो आ गयी। गुलाबी साड़ी, खादी की, जिसे नेहरूजी ने बुना था, जिसे इंदिरा जी ने अपनी शादी में पहना था, उसे पहन कर इस परिवार की हो गयी। मेरी मांग में रंग भरा, सिन्दूर कहते हैं उसे। मैं राजीव की हुई, राजीव मेरे, और मैं यहीं की हो गयी। दिन पंख लगाकर उड़ गए। राजीव के भाई नही रहे। इंदिरा जी को सहारा चाहिए था। राजीव राजनीति में जाने लगे। मुझे नही था पसंद, मना किया। हर कोशिश की, मगर आप हिंदुस्तानी लोग, मां के सामने पत्नी की कहां सुनते है। वो गए और जब गए तो बंट गये। उनमें मेरा हिस्सा घट गया। फिर एक दिन इंदिरा निकलीं। बाहर गोलियों की आवाज आई। दौड़कर देखा तो खून से लथपथ। आप लोगों ने छलनी कर दिया था। उन्हें उठाया, अस्पताल दौड़ी, उनके खून से मेरे कपड़े भीगते रहे। मेरी बांहों में दम तोड़ा। आपने कभी इतने करीब से मौत देखी है? उस दिन मेरे घर के एक नही, दो सदस्य घट गए। राजीव पूरी तरह देश के हो गए। मैंने सहा, हंसा, साथ निभाया। जो मेरा था। सिर्फ मेरा, उसे देश से बांटा। और क्या मिला। एक दिन उनकी भी लाश लौटी। कपड़े से ढंका चेहरा। एक हंसते, गुलाबी चेहरे को लोथड़ा बनाकर लौटा दिया आप सबने। उनका आखरी चेहरा मैं भूल जाना चाहती हूं। उस रेस्टोरेंट में पहली बार की वी निगाह, वो शामें, वो मुस्कान।बस वही याद रखना चाहती हूं। इस देश में जितना वक्त राजीव के साथ गुजारा है, उससे ज्यादा राजीव के बगैर गुजार चुकी हूं। मशीन की तरह जिम्मेदारी निभाई है। जब तक शक्ति थी, उनकी विरासत को बिखरने से रोका। इस देश को समृद्धि के सबसे गौरवशाली लम्हे दिए। घर औऱ परिवार को संभाला है। एक परिपूर्ण जीवन जिया है। मैंने अपना काम किया है। राजीव को जो वचन नही दिए, उनका भी निबाह मैंने किया है। सरकारें आती जाती है। आपको लगता है कि अब इन हार जीत का मुझ पर फर्क पड़ता है। आपकी गालियां, विदेशी होने की तोहमत, बार बाला, जर्सी गाय, विधवा, स्मगलर, जासूस ... इनका मुझे दुख होता है? किसी टीवी चैनल पर दी जा रही गालियों का दुख होता है, ट्विटर और फेसबुक पर अनर्गल ट्रेंड का दुख होता है?? नही, तरस जरूर आता है। याद रखिये, जिससे प्रेम किया हो, उसकी लाश देखकर जो दुख होता है। इसके बाद दुख नही होता। मन पत्थर हो जाता है। मगर आपको मुझसे नफरत है, बेशक कीजिये। आज ही लौट जाऊंगी। बस, राजीव लौटा दीजिए। और अगर नही लौटा सकते , तो शांति से, राजीव के आसपास, यहीं कहीं इसी मिट्टी में मिल जाने दीजिए। इस देश की बहू को इतना तो हक मिलना चाहिए शायद। (सोनिया गांधीजी के पत्र का एक अंश!)

 

पंडित जवाहरलाल नेहरु और तीन मूर्ति को जोड़कर देखा जाता है। यह सही है। वे दिल्ली में तीन मूर्ति में ही रहे। यह बात सही नहीं है। देखिए देश में 2 सितंबर,1946 को अंतरिम सरकार का गठन हुआ और उसके प्रधानमंत्री बने पंडित जवाहर लाल नेहरु। अब उन्हें दिल्ली में रहना था,तो उन्हें 17 यार्क रोड ( अब मोती लाल नेहरु मार्ग) का बंगला आवंटित हुआ। यह सोनिया गांधी के 10 जनपथ वाले बंगले से कुछ ही आगे ही है। नेहरु जी का यह दिल्ली में पहला घऱ था। इससे पहले आजादी के आंदोलन के दौरान नेहरु जी का जब भी दिल्ली में आना-जाना होता, तो वे यहां पर अपने मित्रों के घर में ही ठहरते। उनका अपना निजी आवास तो इलाहाबाद में था।


 कोई सुरक्षा कर्मी नहीं रहा


सबसे अहम बात ये है कि पंडित जी के बंगले के बाहर किसी तरह का कोई सुरक्षाकर्मी नहीं होता था। कोई भी शख्स उनके बंगले के अतिथि कक्ष तक जा सकता था। आज के दौर में तो इसकी कल्पना करना भी असंभव है।

अंतरिम सरकार का मुखिया बनने के बाद उनके यार्क रोड के बंगले में भी कभी-कभी कैबिनेट की बैठकें होने लगीं। देश आजाद हुआ तो नेहरु जी यहां से ही लाल किला गए देश को पहली बार संबोधित करने और तिरंगा फहराने।

 हां, दिल्ली में 1947 में जब सांप्रदायिक दंगे भड़के तो उनके निजी सचिव एम.मथाई ने बंगले के बाहर कुछ पुलिसकर्मी खड़े करवा दिए थे। उन्होंने अपना एक तंबू बंगले के भीतर बना लिया। उस दिन जब नेहरु जी शाम को घर लौटे तो उस तंबू को देखकर मथाई से सारीबात पूछी। मथाई के जवाब से असंतुष्ट नेहरु जी ने उन्हें निर्देश दिए कि उनके घर से पुलिसवालों को चलता कर दिया जाए। उसके बाद मथाई ने उन पुलिसकर्मियों को बंगले की पिछली तरफ तैनात करवा दिया। वरिष्ठ पत्रकार और नेहरु जी के सचिव रहे सोमनाथ धर ने अपनी किताब ‘डेज विद नेहरु’ में लिखा है, "एक बार मैंने देखा था कि नेहरु जी 17 यार्क रोड बंगले के विशाल बगीचे के एक कोने में एक बड़े से पेड़ के नीच लेडी माउंटबैटन के साथ गप कर रहे थे।"लेडी माउंटबैटन 17 यार्क रोड के बंगले में नियमित रूप से आती थीं।

 

 नेहरु जी से 17 यार्क रोड के बंगले  राजधानी में दशकों पहले से बसे हुए कश्मीरी भी मुलाकात करने के लिए आते थे। उर्दू के लेखक और दिल्ली की पुरानी कश्मीरी बिरादरी के अहम मेंबर गुलाजरी देहलवी बताते थे कि एक बार कश्मीरी बिरादरी ने नेहरु जी को भोज के लिए आमंत्रित किया। वो उस भोज में शामिल भी हुए। उस भोज का आयोजन दिल्ली के प्रमुख कश्मीरी काशी नाथ बमजई के घर पर हुआ था। बमजई पत्रकार थे। इसमें कश्मीरी हिन्दू और मुसलमान शामिल हुए थे। उस भोज में सीताराम बाजार में गली कशमीरियान में रहने वाले दर्जनों कश्मीरी परिवार शामिल हुए थे।


 गुमनामी में नेहरु जी ससुराल



 नेहरु जी से जुड़ा पुरानी दिल्ली का एक घर गुमनामी में ही रहा। कायदे से देखा जाए तो इसकी भी कम अहमियत नहीं है इस नेहरु-गांधी परिवार के लिए। पंडित जवाहर लाल नेहरू इधर ही कमला जी से शादी करने बैंड,बाजा,बारात के साथ 8 फरवरी 1916 को आए थे। ये घर सीताराम बाजार में है। पंडित नेहरु इधर शादी के बाद कभी नहीं आए। पर इंदिरा जी तो अपनी मां के घर से अपने को भावनात्मक स्तर पर जुड़ा हुआ महसूस करती थीं।


जाहिर है कि दिल्ली-6का यह घर उनकी मां कमला नेहरू का था। इधर ही उनकी मां पली-बढ़ीं और फिर पंडित नेहरू की बहू बनकर इलाहाबाद के भव्य-विशाल आनंद भवन में गईं।



 नहीं आए राहुल-प्रियंका



अगर श्रीमती इंदिरा गांधी को छोड़ दिया जाए तो माना जा सकता है कि परिवार के अन्य सदस्यों का इसको लेकर रवैया बेरुखी भरा ही रहा। शायद ही इसमें कभी इधर राजीव गांधी या संजय गांधी आए हों। राहुल गांधी, प्रिंयका गांधी और वरुण गांधी की तो बात ही मत कीजिए।  अब गांधी-नेहरू परिवार से जुड़ा घर जर्जर हो चुका है। बंद पड़ा है। कमला जी का परिवार दिल्ली की कश्मीरी पंडित बिरादरी में नामचीन था। कमला जी ने जामा मस्जिद के करीब स्थित इंद्रप्रस्थ स्कूल से शिक्षा ग्रहण की थी। ये स्कूल अब भी चल रहा है। इसे आप दिल्ली का पहला लड़कियों का स्कूल मान सकते हैं।

 इंदिरा जी के ननिहाल वालों ने अपने घर को 60 के दशक में बेच दिया। बस,तब ही से इसके बुरे दिन शुरू हो. गए। फिर इसे देखने वाला कोई नहीं रहा। इसका मालिकाना हक किसके पास है, यह भी किसी को नहीं पता।

और अब तो नेहरु जी के ससुराल का रास्ता बताने वाला भी आपको दिल्ली-6 में मुश्किल से ही कोई मिलेगा। हां, कुछ बड़े-बुजुर्गों की ख्वाहिश है कि गांधी-नेहरू परिवार से जुड़े इस घर को स्मारक का दर्जा मिल जाए। इधर एक पुस्तकालय बन जाएं जहां पर आकर लोग पढ.सकें।

  पुरानी दिल्ली के सामाजिक कार्यकर्ता मकसूद अहमद बताते हैं कि इंदिरा जी दिल्ली-6 मंा होने वाली चुनावी सभाओं में  यह भी बताना नहीं भूलती थीं कि उनकी ननिहाल सीताराम बाजार में ही थी। वे साल 1980में फिर से प्रधानमंत्री बनने के बाद अपनी मां के घर आईं थीं। उनके साथ उनके सचिव आर.के. धवन और दिल्ली के उस दौर के शिखर नेता हरिकिशन लाल भगत भी थे। जाहिर तौर पर उनके अपने घर आने के खबर से वहां पर भारी भीड़ एकत्र हो गई थीं। करीब 30-40 मिनट वो अपनी मां के घर ठहरीं थीं। घर के एक-एक हिस्से को उन्होंने करीब से देखा।


Vivek Shukla, Lokmat


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