दीवाली और आसन्न नववर्ष के समय हमारे यहां पत्रिकाओं, जिनमें साहित्य आवश्यक अंतर्वस्तु हो, के वार्षिक अंक निकालने - निकलने की सुदीर्घ परंपरा रही है. यहां यह कहना कुछ अतिरेक में न समझा जाय कि एक पीढ़ी इन पत्रिकाओं के पन्ने उलट-पलट कर ही सचमुच रचनाधर्मी भी बन गई.
डॉ. धर्मवीर भारती संदर्भित मौके पर "धर्मयुग"के 'उपहार 'अंक ( कभी - कभी, 2 भी ) दिया करतेi, इसी तरह मनोहर श्याम जोशी "साप्ताहिक हिंदुस्तान"के 'विशेष अंक'निकाला करते, जो मृणाल पांडे के समय भी जारी रहा. इन प्रकाशनों के बंद हो जाने के उपरांत "इंडिया टुडे"का दस्तावेज़ी महत्व वाला वार्षिकांक, इसके समानांतर "आउटलुक"आ जाने के बाद उसका वार्षिक अंक तथा "राष्ट्रीय सहारा"का ऐसा ही सालाना अंक पठनीय व संग्रहणीय हुआ करता. दुःखद कि उस सांस्कारिक वक्त का अब अवसान हो गया.
मोटे तौर पर यह वह दौर था, जब लघु पत्रिकाएं भी पूरी ताकत और चमक के साथ हमें पढ़ने को सुलभ थी. अभी "पहल"ने जब 125 वें अंक के बाद अलविदा कह दिया तो एक असौम्य, अप्रीतिकर और चिंत्य निर्वात सब तरफ़ व्याप गया.
भला हो वेबसाइट, ऑनलाइन लिंक, हिंदी बिंज. इन, नॉटनुल के इस घनघोर समय में दैनिक जागरण समूह में राजेंद्र राव जी द्वारा "पुनर्नवा "करके वार्षिक साहित्यिक पत्रिका और इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप; "जनसत्ता"के कोलकाता संस्करण का वार्षिक अंक अब भी बदस्तूर मिल जाता है.
"जनसत्ता"का वार्षिक अंक : दीपावली 2021 सामने है.
विमर्श खंड में आनंद कुमार सिंह और भरत प्रसाद त्रिपाठी के आलेख क्रमश: "हिंदी की संवेदनागत यात्रा"और "समकाल से कदमताल करती कविता"हिन्दी साहित्य के इतिहास व समकालीन कविता कर्म पर पुनः विमर्श है और इनमें एक-एक नया पन्ना भी जोड़ता सा है.
कविता खंड में तरसेम गुजराल, हेमंत कुकरेती, राज्यवर्धन और वाजदा खान की कविताएं ध्यान आकर्षित करती हैं. कृष्णमोहन झा की लंबी कविता 'उसकी खोज'उल्लेखनीय कही जा सकती है.
अंक में 8 कहानियां भी दी गई हैं. उर्मिला शिरीष, हरियश राय, सुशील फुल्ल, वंदना यादव, रंजना जायसवाल और संजय स्वतंत्र की कहानियां समकालीन जीवन के उस भाव-भूमि की कथाएं हैं, जहां मानव मन का अंदाजा लगा कर अभिशप्त जीवन के प्रति कुछ निर्णय लिए जाते हैं और फिर निरपेक्ष भाव से ऐसे निर्णयों को न्यायोचित भी ठहरा दिया जाता है.
सुरेश सेठ का व्यंग्य 'नई दुनिया के सपनों के मरुथल में भटकते लोग 'पैसे के दबाव का मार्मिक अर्थ बखूबी बताता है, वहीं सूर्यनाथ सिंह के ललित निबंध 'सच है क्या और झूठ है क्या 'को मन और मस्तिष्क की दुराभिसंधि का बारीक निरूपण कहा जा सकता है.
अंक में कला/संस्कृति का पृथक खंड बहुत महत्व का है.
अजित राय ने पड़ोस का सिनेमा के बहाने बांग्लादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका में सिनेमा की स्थिति का ब्यौरा देते हुए बताया है कि इन पड़ोसी मुल्कों ने कैसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई है और कई मामलों में वहां का सिनेमा भारत से भी आगे है.
एक, एक उदाहरण देखें - इसी साल 74 वें कान फिल्म फेस्टिवल में बांग्लादेश की एक फिल्म official selection में चुनी गई, जबकि भारत की किसी भी फिल्म को पिछले सताईस सालों से प्रविष्टि तक में जगह नहीं मिली. उधर पाकिस्तान को लेकर यह कम ख्यात तथ्य कि वह 1948 से 1977 तक उर्दू में दस हजार, पंजाबी में आठ हजार, पश्तो में छह हजार और सिंधी भाषा में दो हजार फिल्में बनाकर दुनिया का चौथा सबसे बड़ा फिल्म निर्माता राष्ट्र बन चुका था. इसी तरह श्रीलंका, कान के मुख्य प्रतियोगिता खंड में अपनी फिल्म 'रेकावा' (1957) से जगह बनाने में सफल रहा.
सत्यदेव त्रिपाठी ने अपने आलेख 'मंच का नया रंग'के जरिए कोरोना काल में "थिएटर बनाम डिजिटल थिएटर "की अवधारणा, उत्पत्ति और जरूरत की अच्छी व्याख्या की है.
इसी प्रकार अशोक भौमिक ने 'एक जिंदगी बिखरी - सी 'शीर्षक से भारतीय चित्रकला में एजिट प्रॉप ( आंदोलन - प्रचार ) की धारा के सूत्र धर चित्रकार चित्तप्रसाद के बाबत ऐसी कमयाब सामग्री प्रस्तुत की है कि समकालीन भारतीय कला में कलाकारों की जगह उनके काल, काम और प्रतिबद्धता के पसमंजर में फिर से निर्धारित करनी पड़े.
कुल मिलाकर अंक इस लायक है कि खरीद कर पढ़ा जाय.
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