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Channel: पत्रकारिता / जनसंचार
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बहुत कठिन है डगर शून्य उत्सर्जन / संजय श्रीवास्तव

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 शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य प्राप्ति में अडाणी, अंबानी और टाटा जैसे समूह सरकार के साथ आगे आये हैं, पैस और परियोजनाएं लेकर। एनटीपीसी जैसी कुछ कंपनियां भी।


1000 अरब डॉलर नौ मन तेल है


पर इसके बाजूद गांव कस्बों तक अबाध, अनवरत स्वच्छ बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित होना अत्यावश्यक है। बिजली कटौती कारबन उत्सर्जन के का बहाना बनती है। स्वच्छ बिजली आयेगी वैकल्पिक स्रोत से। सौर और पवन ऊर्जा सस्ती है मगर लिथियम सेल में इनका भंडारण और प्राकृतिक  निशचित्तता इसका दाम बढा देती है।

 

यह राह नहीं आसान


आज यह जिस स्तर पर है उसमें खरबों के निवेश के बाद ही पर्याप्त उत्पादन संभव है। हाइड्रोजन फ्यूएल का निर्माण मुश्किल नहीं लेकिन भंडारण और वितरण टेढी खीर है, देश में इसका भी उत्पादन अभी शैशवावस्था में है। नाभिकीय ऊर्जा के अपने खतरे और सीमितताएं हैं।इन सबसे अभी 30 फीसद भी ऊर्जा नहीं बनती और इसे तीन गुना तक पहुंचना है।


ज़ीरो ईमीशन

वादे हैं वादों का क्या

अगले दो दशकों में ढाई करोड़ वाहन सड़कों पर उतरेंगे, लगता नहीं कि सभी ग्रीन होंगे। 2030 तक ढाई करोड़ एसी घरों दफ्तरों में लगेंगे इन्हें कैसे ग्रीन बनायेंगे। 2030 तक स्वच्छ ऊर्जा अभियान का बजट 30 अरब डॉलर से 150 अरब डॉलर करने से यह उम्मीद जगती पर महज धन से ऐसे लक्ष्य नहीं मिलते। 


दुर्भाग्य से देश में पर्यावरण कोई राजनीतिक, चुनावी मुद्दा नहीं है। पर्यावरण पर सरकारी सक्रियता से जनमत नहीं बनता इसलिये यह राजनीतिक प्राथमिकता में नहीं है। 


पर्यावरण के प्रति सियासी सरोकार तभी  सकारात्मक दिशा में बढेगी जब इसके जरिये वोट मिलने की संभावना होगी या फिर वोट कटने के। फिलहाल समूचे विश्व की निगाहें भारत के पर्यावरण संबंधी  दावे और वादे की ओर हैं और वे उसका अनुसरण करने को बेताब हैं।


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